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राम गए वनवास, रोती रही अयोध्या


भोपाल। इस जगत में कर्मों की ही प्रधानता है। शुभ ग्रह क्या कर सकते हैं? गुरु वशिष्ठ ने जो शुभ मुहुर्त (घड़ी) श्रीराम के राजतिलक के लिए निकला था, उसी में राम को वन की ओर प्रस्थान करना पड़ा। 'कर्म संग चले न चतुराई, अयोध्या छोड़ चले रघुराई'

जैन संत ध्यान सागर महाराज ने शनिवार को इकबाल मैदान में चल रही रामकथा में जब 'राम वनवास' प्रसंग की मार्मिक प्रस्तुति दी तो श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण और माता सीता के त्याग को देखकर श्रोताओं की आंखें नम हो गईं। सारा पंडाल भगवान राम के जयघोष से गूंज उठा। संत श्री ने कहा कि माता-पिता के चरण छूने के बाद राम, लक्ष्मण और सीता जैसे ही अयोध्या से वन की ओर प्रस्थान करते हैं, सारी अयोध्या स्तब्ध रह जाती है। हर आंख में बिछोह के आंसू बरसने लगते हैं। पशुओं के भी नेत्र भींगे होते हैं। भगवान राम अपने दुपट्टे से बुजुर्गों के आंसू पोंछते हुए उन्हें समझाइश देते आगे बढ़ते जाते हैं। संत श्री कहते हैं, दूसरों के आंसू पोंछने वाले शासक इस धरती पर बहुत कम होते हैं। जिसकी आंखों में दूसरे की पीड़ा के आंसू होते हैं वो धरती के रत्न होते हैं।

राजपाट छोड़ प्रभु भक्ति में रमने की मंशा
शनिवार को कथा की शुरूआत में ध्यान सागरजी ने कहा कि राजा दशरथ ने राजपाट पात्र राजकुमार के हाथों में सौंपकर प्रभु भक्ति में रमने का विचार किया। उत्तरदायित्व लेते समय और सौंपते समय चिंता स्वाभाविक होती है। लिहाजा उन्होंने शुभचिंतकों, मंत्रियों से रायशुमारी की। रानियों तक यह समाचार पहुंचा तो कैकई ने सबसे पहले आकर पूछा। साथ ही अपनी राय देते हुए कहा कि वैसे तो मैं आपके पुत्र भरत की मां हूं, लेकिन मेरा अनुरोध है कि आप राजा राम को ही बनाना। इस संबंध में रानी सुमित्रा और कौशल्या से भी चर्चा हुई। सभी ने राम को ही राजा बनाने की सहमति दी।

दुर्बुद्धि की विजय, विवेक में आग लगा देती है
आचार्यश्री ने कहा राजा राम के राजतिलक की जोर-शोर से तैयारी शुरू हो जाती हैं। श्रेष्ठ मुहुर्त भी निकाल लिया जाता है। इस बीच कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि दुर्बुद्धि की विजय, कर्मों का उदय या समय का प्रभाव होता है, तो विवेक को आग लगा देता है। सिर पर हठाग्र हावी हो जाता है। अचानक कैकई कोप भवन में जा बैठती है। राजा दशरथ उनसे पूछते हैं कि उत्सव की बेला में यह क्या स्वरूप बना रखा है आपने? कैकई उन्हें पूर्व में दिए गए वरदान मांग लेती हैं। भरत को राजा बनाने और राम को वनवास का वचन देकर दशरथ निढाल हो जाते हैं। यह समाचार अयोध्या में फैलता है तो प्रजा स्तब्ध रह जाती है।

तो मैं कैसे अलग हो सकती हूं
राजा बनाने राम को तैयार किया जा रहा था, तभी उनके पास पिता दशरथ का बुलावा आता है। सहज भाव से राम जाकर पिता और माता कैकई के चरण छूते हैं। संताप के कारण पिता के मुंह से तो बोल भी नहीं फूट पाते तब वह माता कैकई से पूछते हैं। भरत को राजा और उन्हें वनवास दिए जाने के बारे में पता चलते ही वह पिता के आदेश को शिरोधार्य करते हैं। संत श्री कहते हैं कि भावुकता से बड़ा कर्तव्य होता है। एक क्षत्रिय को भावना से ऊंचा स्थान कर्तव्य को देना पड़ता है। आगे बढ़ते ही सीताजी भी उनके साथ चलने लगती हैं। जब राम उन्हें रोकते हैं तो माता सीता कहती हैं कि जब वृक्ष से छाया, चंद्रमा से चांदनी अलग नहीं हो सकती तो फिर मैं तो आपसे कैसे अलग हो सकती हूं।

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