जनकदुलारी सीता का हुआ स्वयंवर, धनुष तोड़ राम किया सीता का वरण
जनकसुता माता सीता, भगवान राम के मुकाबले कद में छोटी थीं। धनुष टूटने के बाद जब स्वयंवर की घड़ी आई तो श्री राम और सीता निकट आने लगे। लेकिन अनुज लक्ष्मण यह सोचकर आकुल-व्याकुल होने लगे कि श्री राम सूर्यवंश के सूर्य हैं। वरमाला के लिए उन्हें सिर झुकाना पड़ेगा। अचानक एक युक्ति के तहत उन्होंने भ्राता राम के चरण पकड़ लिए और बोले कि धनुष की टंकार से जो ध्वनि उत्पन्ना हुई थी वह अद्भुत थी। आप अद्भुत हैं, अद्वितीय हैं। श्रीराम का ध्यान अनुज की तरफ गया और वह लक्ष्मण को उठाने के लिए नीचे झुके तभी माता सीता ने उनके गले में वरमाला डाल दी।
जैन संत छुल्लक ध्यान सागर महाराज ने इकबाल मैदान में चल रही रामकथा में शुक्रवार को इस प्रसंग की जीवंत प्रस्तुति दी तो श्रोता भावविभोर हो गए। रामकथा के तीसरे दिन भगवान राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न की गुरुकुल शिक्षा से लेकर सीता स्वयंवर का बखान किया गया। इस दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालु मौजूद थे।
जो राजा अंदर से योगी होता है, वह प्रजा का पोषण करता है
आचार्यश्री ने कहा कि गुरुकुल में समत्व के वातावरण में चारों राजकुमारों की प्राथमिक शिक्षा शुरू हुई। पात्रता के चयन के उपरांत उन्हें शयन, जागना, बैठना, बोलना, भोजन करना, भक्ति, योग, साधना के गुर सिखाए गए। यह सीख दी गई कि क्षत्रिय की मर्यादा और कठोर होती है। राजा क्रोधित होकर किसी को मृत्युदंड दे सकता है, लेकिन मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। राजा कभी अपशब्द नहीं बोलता। सत्य वचन बोले,मन से पवित्र आचरण करे। छल, कपट से दूर रहे। बताया गया कि राजा अंतरमन से सन्यासी होता है। जो राजा अंदर से योगी होता है,वह प्रजा का पोषण करता है। जो राजा अंदर से भोगी होता है,वह प्रजा का शोषण करता है।
शूरवीर बालक लौटे तो बलैंया लने आकुल हुई माताएं
संत श्री ने कहा कि गुरूकुल की शिक्षा पूर्ण कर फौलादी शूरवीर जब राजपोषाक में अयोध्या पहुंचे,तो उनकी माताएं उनकी बलैंया लेने को आकुल हो उठीं। उनके नन्हें बालक अब युवा राजकुमार हो चुके थे। उन्हें देखकर मताएं भावुक हो उठीं और अयोध्या प्रफुल्लित। वातावरण आनंदित हो गया। लेकिन उत्सव कुछ पल के ही होते हैं। कुछ समय बाद ही गुरू विश्वामित्र आते हैं। राजा दशरथ से जनकल्याण के लिए राम-लक्ष्मण को अपने साथ ले जाते हैं। अपने शौर्य पराक्रम से राम-लक्ष्मण यज्ञ,अनुष्ठान आदि की बाधाएं दूर करते हैं। इस बीच जनकपुर में राजा जनक की पुत्री सीता के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन करते हैं।
जनकपुरी में सीता के स्वयंवर के लिए शिव के धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने की शर्त रखी जाती है। तमाम शूरवीरों उसे हिला तक नहीं पाते,तो राजा जनक चिंतित होने लगते हैं। अंततः श्रीराम एक महामंत्र का जाप करते हुए धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देते हैं। उसकी टंकार से पृथ्वी कांप उठती है। तभी वैदेही(सीता) अपनी मां विदेहा और सखियों के साथ वहां पहुंचती है,और भगवान राम के गले में वरमाला डाल देती हैं।
माता ने सीता को दी मार्मिक सीख
विदाई की बेला आई तो सीताजी भावुक हो गईं। सतंश्री ने कहा कि माता-पिता की आंखों में दो बार ही ऐसे अवसर आते हैं,जब उनके हृदय से आंसू निकलते हैं। एक पुत्री जब घर छोड़े और दूसरा जब पुत्र मुंह मोड़े। उन्होंने मां से कुछ सीख देने को कहा। इस पर माता ने कहा कि हमेशा कर्तव्य निष्ठ रहना,विश्वास को निर्मल बनाए रखना,बड़ों का सदा आदर करना। छोटों से हमेशा स्नेह रखना। कभी किसी को पलटकर जवाब नहीं देना। संतश्री ने कहा कि इस जगत में माता जैसी शिक्षिका कोई नहीं है। शिक्षा लेने के बाद सीता,राम के साथ विदा हो गईं। इस अवसर पर प्रमोद हिमांशु,नितिन नांदगांवकर,सोनू भाभा सहित अनेक लोग मौजूद थे।