परीक्षा के समय छात्र छात्राओं द्वारा की जा रही आत्महत्याएँ, क्या इन सुझावों पर ध्यान देंगी सरकार ?
डॉ. चंदर सोनाने
मध्यप्रदेश में सन् 2001 से 2016 तक इन 15 सालों में 1147 छात्र छात्राओं द्वारा आत्महत्या की जा चुकी हैं। यह एक अत्यंत गंभीर मुद्दा हैं । परीक्षा के समय तनाव के चलते छात्र छात्राओं द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के रोकने के कारगर प्रयास करने का अब समय आ गया हैं। सबसे चिंताजनक बात यह हैं कि जिन 1147 छात्र छात्राओं ने पिछले वर्शो में आत्महत्या की हैं , उनमें से ज्यादातर बच्चे 10 वर्ष से 18 वर्ष के बीच के थे। यह अपने आप में एक गंभीर समस्या हैं। बच्चों द्वारा तनाव में आकर आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम उठाने के कारणों के मूल में जाने की आवश्यकता हैं। और उन कारणों को दूर करने की जरूरत हैं , जिसके कारण से बच्चे आत्म हत्या कर रहे हैं।
राज्य सरकार इस दिशा में गंभीर हैं । इसी कारण पिछले साल इसी मुद्दे पर विधानसभा में गंभीर चर्चा कर श्रीमती अर्चना चिटनिस की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई थी। इस समिति ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट बजट सत्र के अंतिम दिन विधानसभा में प्रस्तुत कर दी हैं। इस समिति ने बहुत सारे एंगल से विचार विर्मश किया हैं और 31 बिंदुओं में अपनी सिफारियों दी हैं। उन सभी सिफारिशों पर तुरंत अमल करने की आवश्यकता हैं।
वरिष्ठ पत्रकार एवं भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे समाचार पत्र के संपादक तथा न्यूज पोर्टल मध्यमत के संपादक श्री गिरीश उपाध्याय ने इन्ही मुद्दों पर अपने नियमित कॉलम में हाल ही में दो लेख लिखे हैं। इन लेखों में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। इन सुझावों में से दो प्रमुख सुझावों का यहां उल्लेख करना आवश्यक हैं , क्यों कि वह बहुत व्यवहारिक हैं। आइए हम सिलसिलेवार उनके प्रमुख दो सुझावों को देंखे -
1 . शिक्षा व्यवस्था में बच्चे जिन प्रमुख कारणों के चलते आत्महत्या करते हैं ,उनमें पढ़ाई में कमजोर रहना, अच्छे अंक न लाना, फेल हो जाने का डर या प्रतिभा प्रदर्शन का अतिरेक पूर्ण दबाव जैसे कारण शामिल हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में ज्यादातर बच्चे गणित और अंग्रेजी जैसे विषयों से खौफ खाते हैं । वे इन विषयों से बचना या भागना चाहते हैं। लेकिन उन्हें ये डर भी सताता हैं कि यदि वे इन विषयों मे ंपास नहीं हुए तो अगली कक्षा में नहीं जा पाएंगें। इसके लिए कोशीश की जा सकती हैं कि ऐसे बच्चों को कुछ वैकल्पिक विषयों के साथ अगली कक्षा में पदोन्नत होने का विकल्प उपलब्ध कराया जाए। जैसे यदि कोई बच्चा गणित में कमजोर हैं तो उसे खेल , संगीत, चित्रकला, हस्तशिल्प या उसकी रूचि के किसी विषय का विकल्प दिया जाए। उसे उस विषय के साथ अपनी पढ़ाई जारी रखने की अनुमति हों।
2 . बच्चों में सबसे बड़ा डर परीक्षा में फेल होने का रहता हैं। इसके लिए हमें प्रचलित परीक्षा प्रणाली पर गंभीरता से विचार करना होगा। साल में एक बार होने वाली परीक्षा से बच्चे के पूरे साल भर की मेहनत या प्रतिभा को आंकने की प्रथा पर पुनर्विचार होना चाहिए। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हम परीक्षा को 10 या 12 टुकड़ों में विभाजित करदे और उनके परिणाम के औसत के आधार पर बच्चे के उत्तीर्ण होने की श्रेणियां निर्धारित करें। इससे बच्चे के मन में परीक्षा का हव्वा भी खडा नहीं होगा। और सिर्फ साल में एक बार परीक्षा से भविष्य के बनने बिगडने की चिंता से भी वह मुक्त रहेगा। कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर उन्हें भी अगली कक्षा में पदोन्नत का आधार बनाया जा सकता हैं।
हमें श्री गिरिश उपाध्याय के उक्त दो महत्वपूर्ण सुझावों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता हैं। यदि आज की शिक्षा पद्धति में इन महत्वपूर्ण सुझावों को भी शामिल कर लिया जाए तो निष्चित रूप से बच्चों में बढ़ रही आत्महत्या की प्रवृत्ति पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सकता हैं। साथ ही बच्चे के अभिभावकों की भी महति जिम्मेदारी हैं ही कि वे बच्चों पर अधिक से अधिक प्रतिशत लाने का दबाव नहीं डाले। उन्हें पढ़ते समय तनाव मुक्त रखें और स्वयं भी तनाव मुक्त रहें।
प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान एक संवेदनशील मुख्यमंत्री के रूप में अपनी छाप छोड चुके हैं। उन्हें इस संवेदनशील मुद्दे पर गौर करने की जरूरत हैं। साथ ही मुख्यमंत्री को राज्य के षिक्षा मंत्री को भी इस विषय पर गंभीर चिंतन मनन करने और तुरंत कारवाई करने के निर्देश देने की आवश्यकता हैं।
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