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मोदी प्रधानमंत्री हैं, ब्रांड एम्बेस्डर नहीं


 

 

सुरेन्द्र पॉल

 

रिलायंस जियो और पेटीएम ने अपने विज्ञापनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने ब्रांड एम्बेस्डर की तरह पेश करने पर अंततः सरकार से माफी मांगकर अपना पल्ला इस प्रकरण से झाड़ दिया है। दोनों कंपनियों द्वारा जिस प्रकार अपने उत्पादों व सेवाओं के प्रचार-प्रसार के लिए प्रधानमंत्री के चेहरे का प्रयोग किया गया, उस पर राजनीतिक दलों ने काफी हो हल्ला मचाया था और बौद्धिक जगत में भी खासी बहस शुरू हुई थी। खासकर पत्रकारिता और मीडिया शिक्षा से जुड़े मंचों पर यह प्रकरण कई दिनों तक विमर्श का मुद्दा बना रहा। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या दोनों कंपनियों द्वारा केवल माफी मांग लेने से ही इस प्रकरण का पटाक्षेप हो जाएगा। प्रधानमंत्री को अपने ब्रांड एम्बेस्डर की तरह जनता के सामने पेश करके अपना उल्लू सीधा करने वाली इन कंपनियों को क्या इतने सस्ते में छोड़ दिया जाना चाहिए।

          इन विज्ञापनों पर बवाल मचने के बाद राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के संरक्षक (कस्टोडियन) की भूमिका निभाने वाले उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने इन कंपनियों को नोटिस भेजा था। मंत्रालय ने यह नोटिस राष्ट्रीय प्रतीक और नाम (अनुचित प्रयोग रोकथाम) कानून-1950 के तहत भेजा था। यह कानून प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के नाम और फोटो का व्यावसायिक प्रयोग करने पर रोक लगाता है। इसका उल्लंघन करने पर मामूली सी रकम के जुर्माने का प्रावधान भी है। पता चला है इन कंपनियों पर जुर्माने की यह राशि केवल पांच सौ रुपये है। यदि इन कंपनियों से यह मामूली राशि वसूल भी ली जाती है, तो भी वे फायदे में भी रहेंगी।

          दृश्य और छवियां लोगों के ज़ेहन में लम्बे समय तक ताज़ा रहती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की फोटो और वीडियो का प्रयोग करके इन कंपनियों ने जो विज्ञापन जारी किये थे, वे भी अभी तक अधिकांश उपभोक्ताओं के ज़ेहन में ताजा ही होंगे। ऐसे में क्या इन कंपनियों द्वारा महज़ माफी मांग लेना काफी है। एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सचमुच देश की इन नामी कंपनियों को ऐसे किसी कानून या गाइडलाइन की जानकारी नहीं थी या यह कृत्य जान-बूझकर संभावित मुनाफे के दृष्टिगत किया गया था। 

          गौरतलब है कि पिछले साल सितंबर में रिलांयस जियो ने अपनी 4जी सर्विस के विज्ञापन में नरेन्द्र मोदी के फोटो प्रकाशित किये थे। देश में बड़ी प्रसार संख्या वाले विभिन्न भाषाओं के समाचार पत्रों में यह विज्ञापन छपा था। टेलीविजन पर भी खासकर प्राइम टाइम में इस प्रकार के विज्ञापन दिखाए गये। इसके बाद 8 नवंबर 2016 को देश में नोटबंदी की घोषणा होने के बाद पेटीएम ने एक विज्ञापन अखबारों में दिया था जिसमें प्रधानमंत्री की फोटो छपी थी। कुछ दिनों तक तो लोगों को यही लग रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी ने ही पेटीएम का विकल्प जनता के हाथों में कैशलेस अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए दिया है। बहुत बाद में सरकार ने इस बात की पुष्टि की थी कि सरकार का इससे कोई लेनादेना नहीं है।

          विपक्षी दलों ने संसद में और अन्य मंचों पर इसका कड़ा विरोध किया। रिलायंस जियो के विज्ञापन पर तो सितंबर में ही कांग्रेस नेता मंगलेश्वर (मुन्ना) त्रिपाठी द्वारा जनहित याचिका तक दायर कर दी गई थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी सरकारी कंपनियों का प्रचार न करके प्रधानमंत्री मोदी की मंशा रिलांयस जियो को लाभ पहुंचाने की है। इसके बाद केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो यहां तक कह डाला कि मोदी सरकार ने पेटीएम को फायदा पहुंचाने के लिए नोटबंदी का फैसला लिया। वहीं कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पेटीएम के विज्ञापन को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि पेटीएम का मतलब है ‘पे टू मोदी’। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो प्रधानमंत्री को पेटीएम का सेल्समैन ही करार दिया।   

          राष्ट्रीय प्रतीक और नाम (अनुचित प्रयोग रोकथाम) अधिनियम-1950 के सेक्शन 3 के अनुसार कोई भी व्यक्ति या संस्था अपने व्यापारिक या कारोबारी उद्देश्य के लिए राष्ट्रीय प्रतीक चिह्नों और नामों का केंद्र सरकार या सक्षम अधिकारी से अनुमति लिए बिना प्रयोग नहीं कर सकता। इनमें देश के राष्ट्रपति प्रधानमंत्री, राज्यों के राज्यपाल, भारत सरकार या कोई प्रदेश सरकार, महात्मा गांधी, संयुक्त राष्ट्र संघ, अशोक चक्र आदि शामिल हैं। देश में लागू इस कानून से ये नामीगिरामी कंपनियां अनभिज्ञ हैं, यह बात हजम नहीं हो सकती।

अब जरूरत है कि केंद्र का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ऐसे विज्ञापनों के जारी होने पर रोक लगाने के लिए एक जागरूकता अभियान चलाए ताकि मीडिया और कंपनियां जागरूक हो सकें। आम पाठकों और दर्शकों को भी ऐसे विज्ञापनों को सरकार व भारत विज्ञापन मानक परिषद के संज्ञान में लाना चाहिए। 

 

 (लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं।)

 

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