....बिटिया सौभाग्य से को चरितार्थ करती मेरी बेटी
-भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
महिला दिवस पर ढेर सारे लेख मिले हैं। इनमें लेखकों ने अपने-अपने तरीके से आँकड़ों के साथ व्याख्या किया है। यह उनके अध्ययन को दर्शाता है परन्तु जब महिला की बात चलती है तब मुझे व्यक्तिगत रूप से ‘नारी’ शब्द और उसका महत्व याद आने लगता है।
सरकारें औश्र एन.जी.ओ. विश्व में घटते महिला लिंग अनुपात की चिन्ता से ग्रस्त होकर विभिन्न तरह के स्लोगनों के जरिए हमारे समाज के लोगों में जागृति पैदा कर रहे हैं कि लिंग परीक्षण न करवाएँ। यदि पता भी चल जाए तो भी भ्रूण हत्या करके ‘कन्या’ को जन्म लेने से रोका न जाए।
बेटा भाग्य से बिटिया सौभाग्य से
कोई चेहरा है कोमल कली का,
रूप कोई सलोनी परी का|
इनसे सिखा सबक जिंदगी का,
बेटियाँ तो है लम्हा ख़ुशी का||
बहरहाल मुझे तो मात्र इतना ही लिखना है कि ‘नारी’ के प्रति नकारात्मक सोच रखना एक महापाप है। और इस महापाप को अज्ञानी ही कर सकता है। संवेदनशील मानव नारी के सभी रूपों को यदि देखे/महसूस करे तब उसे स्वयं ही पता चल जाएगा कि नारी बेटियों से लेकर माँ-बहन और पत्नी के अलावा सभी रिश्तों में कितना खरा उतरती हैं। नारी का होना समाज, देश के लिए कितना महत्व का विषय है इसे वर्णित नहीं किया जा सकता है, बस महसूस कर इनके प्रति नकारात्मक सोंच की प्रवृत्ति से उबरना होगा।
मैं अपने को सौभाग्य शाली समझता हूँ। मेरे घर-परिवार में 5 अन्डर टीन किड्स हैं, जिनमें 2 मेल और 3 फीमेल। मतलब यह कि 5 बच्चों की हमारी बाल-बाड़ी में 2 लड़के (पुल्लिंग) और 3 लड़कियाँ (स्त्रीलिंग) हैं। 3 से 14 वर्ष के बीच की उम्र वाले बच्चों में दो पुत्र (14 और 8 वर्ष) तीन बच्चियाँ 3, 4 और 11 वर्ष हैं।
बीते दिवस मैं लेखन कार्य कर रहा था, तभी बैठे-बैठे मेरे दोनों पैर का रक्त संचार बाधित होने के कारण पैर सुन्न से हो गए जिसे बोल-चाल की भाषा में ‘झुनझुनी’ पकड़ना कहते हैं। मैं अपने लेखन कक्ष से बाथरूम जा रहा था, तभी अजीब सी पीड़ा महसूस हुई जैसे दोनों पैर ‘संबा शून्य’ हो गए हों। मेरे मुँह से कराह निकलने लगी।
लेखनकक्ष और बाथरूम के बीच आंगन में बालबाड़ी के सदस्य खेल रहे थे। मेरी कराह को सभी ने सुना। चेहरे पर दर्द के भाव और कराह को नन्हीं ‘बिटिया’ ने महसूस किया और मेरे पास आ गई बोली- डॉ. पापा आप को तकलीफ है? क्या हुआ है? जबकि अन्य चार उससे बड़े बच्चों ने कराह, पीड़ा को कौन कहे मेरी तरफ देखना तक गंवारा नहीं किया। मैने अपनी नन्हीं बिटिया को भाव-विभोर होकर गोंद में उठा लिया और अपना दर्द भूल गया। उस समय मुझे बेटी और बेटों में अन्तर पता चला। उसके प्रश्नों का उत्तर भी मैंने अपने तरीके से दिया था। बोला बेटी कुर्सी पर बैठे-बैठे मेरे पैरों में झुनझुनी आ गई थी, इसलिए चलने में दर्द एवं पैद सुन्न हो गए थे। वह चुप हो गई थी।
3 वर्षीया बिटिया की संवेदनशीलता से मैं अभिभूत हो गया था- वह तब तक मेरे पास बैठी रही जब तक मैं ‘सामान्य’ नहीं हो गया था। शेष बच्चे जो उम्र में सयाने हैं अपने खेल में ही मस्त थे। मैने इस अनुभव को बिटिया की माँ से ‘शेयर’ किया था, परन्तु वह कार्य में व्यस्त होने की वजह से कोई अधिक बात नहीं कर सकी थी। आज मुझे जब पता चला कि 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। लेखकों के विचार लेख आ रहे हैं- तब सोचा क्यों न मैं भी कुछ लिख डालूँ।
आँकड़ों और गूढ़ सम्पादकीय विचारों से अटे पड़े उन लेखों में लेखकों की विद्वता/जानकारी अवश्य ही परिलक्षित हो सकती है परन्तु मेरी बिटिया ने जो 3 वर्ष की उम्र में कर दिखाया वह मेरे लिए अवश्य ही एक अत्यन्त विचारणीय विषय है। बेटा भाग्य से- बिटिया सौभाग्य से- स्लोगन जिसने भी लिखा/बनाया होगा वह मेरी तरह का ही इंसान होगा। बेटियाँ तो हैं ‘लमहा’ खुशी का.....।
नन्हीं बिटिया ‘सानू’ मेरे/हमारे लिए एक मार्ग दर्शक सी बन गई। मैं उसके उक्त भाव से ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसकी अपार कृपा से मुझे सानू की डाक्टर पापा कहलाने का सौभाग्य मिला। मैं तो बस इतना ही कहूँगा कि बिटिया उन्हीं सौभाग्यशालियों को प्राप्त होती है जिस पर ईश्वर की असीम अनुकम्पा होती है।