यह मैने नहीं मेरी कलम ने लिखा ...!!
तारकेश कुमार ओझा
मैं एक बेचारे ऐसे अभागे जो जानता हूं जिसे गरीबी व भूखमरी के चलते उसके बड़े भाई ने पास के शहर में रहने वाले रिश्तेदार के यहां भेज दिया। जिससे वह मेहनत - मजदूरी कर अपना पेट पाल सके। बेचारा जितने दिनों तक उसे काम ढूंढने में लगे, उतने दिन मेजबान की रोटी तोड़ना उसकी मजबूरी रही। काम - धंधे से जुड़ने के बाद यह सोच कर कि काफी दिनों से इसकी रोटी तोड़ रहा हूं, अपना मेहनताना वह मेजबान के हाथों में रखता रहा। इससे कुछ दिनों तक तो सब कुछ ठीक - ठाक चला। लेकिन बीच में एक समस्या उभर आई। दैनंंदिन की दिनचर्या में उसका कच्छा फट गया। कड़ी मेहनत से उपार्जन के बावजूद कुछ दिनों तक तो वह संकोच में रहा कि अपने मेजबान से कैसे कहे कि उसे कच्छा खरीदने के लिए पैसे चाहिए। लेकिन फटे कच्छे से जब काम चलाना संभव नहीं रहा तो एक दिन उसने सकुचाते हुए मेजबान से कच्छे के लिए पैसे की मांग कर दी। इससे बौखलाए मेजबान ने झट गांव में रहने वाले उसके बड़े भाई से शिकायत कर दी कि तुम्हारे छोटे भाई को मैं इतने दिनों से खिला रहा हूं, अब उसे कच्छे खरीदने के लिए भी पैसे मुझसे ही चाहिए। बेचारा युवक करे तो क्या करे। क्योंकि मेहनत - मजदूरी के बावजूद वह अपनी कमाई तो मेजबान के सुपर्द करता आया है। आंखों - देखी इस सच्ची घटना के माध्यम से यही कहना है कि अपने देश - समाज में कुछ लोगों की किस्मत ही ऐसी होती है। उनकी जायज बातों व मांगों की ओर कोई ध्यान नहीं देता। अब जनधन योजना में खाता खुलवाने वालों की सोचिए। जिन बेचारों ने बैंक वालों के झांसे में आकर शून्य राशि पर खाता तो खुलवा लिया। लेकिन अब बैंक वाले शर्त पर शर्त थोपते जा रहे हैं। कभी यह सरचार्ज तो कभी वह सरचार्ज। कभी मुनादी होती है कि ऐसा नहीं किया तो इतना जुर्माना , और वैसा किया तो इतना जुर्माना। इससे भली तो घर की गुल्लक ही थी।लेकिन इनकी ओर ध्यान देने की फुर्सत भला किसके पास है। दूसरी ओर अपने देश - समाज में एक खेमा ऐसा है जो हल्की और बेसिरपैर की बातों को तुरत - फुरत लपकने पर आमादा रहता है। किसी ने बेसिरपैर की बातें कर दी और शुरू हो गया ट्वीट पर ट्वीट का खेल। फिर कहने वाले से ज्यादा ट्वीट करने वालों पर बहस। पिछले साल देश की राजधानी में स्थित शिक्षण संस्थान में हुई नारेबाजी की घटना ने मुझे हैरान कर दिया था। सोचना भी मुश्किल था कि कोई भारतीय इस तरह के नारे लगा सकता है या अपनी मातृभूमि के विषय में ऐसी कामना कर सकता है। इससे भी ज्यादा हैरानी इस बात से हुई कि बेतुकी बयानबाजी के बावजूद नारेबाजी करने वाले लगातार कई दिनों तक हीरी बने रहे। एक वर्ग ने उन्हें अवतारी पुरुष बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। देश की राजधानी के ही एक दूसरे शिक्षण संस्थान का वाकया क्या इसी घटना का सीक्वल था। क्योंकि यहां भी वही सब दोहराया जा रहा था। नफरत अपराधी से नहीं बल्कि अपराध से करो की तर्ज पर लगातार उपदेशों की घुट्टिय़ां देशवासियों को पिलाने की कोशिश की जा रही थी। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाला रवैया उस वर्ग का है जो ऐसी बातों पर ट्वीट पर ट्वीट करते रहते हैं। समुद्र मंथन की तर्ज पर एसी कमरों में बैठ कर भाषणबाजी होती रहती हैं। जबकि करोड़ों देशवासियों की तरह मुझे भी यही लगता है कि शिक्षण संस्थानों में नारेबाजी या इस तरह के जुमलों पर किंतु - परंतु या बहस के लिए स्थान ही नही होना चाहिए। दो टुक शब्दों में सीधे तौर पर कहा जाना चाहिए कि देश की एकता व अखंडता के लिए खतरा बन सकने या देश के खिलाफ किसी भी प्रकार की नारेबाजी का समर्थन तो दूर इस पर किसी किंतु - परंतु भी स्वीकार नहीं नहीं किया जा सकता। बहस के लिए कड़ी मेहनत के बावजूद कच्छा न खरीद पाने वाले वर्ग से जुड़े ऐसे कई मुद्दे हैं। जिन पर बहस का शायद उस वर्ग को फायदा भी हो। बेकार की बातों में उलझ कर कोई अपना या दूसरों का आखिर क्यों टाइम खराब करे।
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।