‘शिवत्व’ कल्याण का मार्ग
नरेश सोनी
संपूर्ण सृष्टि के अधिपति भगवान शिव ही है जिनकी आराधना तथा पूजन से व्यक्ति का, विश्व का तथा ब्रह्माण्ड का कल्याण होता है, वे चराचर जगत के स्वामी, जगन्नियन्ता जगदीश्वर है, जिनकी आराधना स्वयं नारायण एवं ब्रह्मा सहित सभी देवतागण करते हैं।
‘सोहम’ अर्थात शिवत्त्व का संदेश है, मैं हूं तो यह जगत है, मैं नहीं हूं तो सर्वथा शून्य ह। मनुष्य को जीवन के कल्याण के लिये महाशिवरात्रि पर्व का महान् एवं व्यापक संदेश है, वह है, ‘शिवत्त्व’ आदि अनादि भगवान शिव जिनका न आदि है न अंत है, उनकी आराध्या, तथा शक्ति माता पार्वती के साथ ‘शिवरात्रि महापर्व’ मनाया जाता है।
महाशिवरात्रि पर्व पर उपवास एवं रात्रि जागरण का अत्यन्त महत्त्व है। ऋषि-महर्षियों ने समस्त आध्यात्मिक अनुष्ठानों में उपवास को महत्त्वपूर्ण माना है। गीत (२/५९) की इस उक्ति ‘‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:’’ के अनुसार उपवास विषय-निवृत्ति का अचूक साधन है। अत: आध्यात्मिक साधना के लिये उपवा सकरना परमावश्यक है। उपवास के साथ रात्रि जागरण के महत्त्व पर गीता (२/६९) - का यह कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है - ‘‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी’’। इसका सीधा तात्पर्य यही है कि उपवासादि द्वारा इन्द्रियों और मनपर नियंत्रण करने वाला संयमी व्यक्ति ही रात्रि में जागकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील हो सकता है। अत: शिवोपासना के लिये उपवास एवं रात्रि जागरण के अतिरिक्त और कौन साधन उपयुक्त हो सकता है? रात्रिप्रिय शिव से भेंट करने का समय रात्रि के अलावा और कौन समय हो सकता है? इन्हीं सब कारणों से इस महान् ब्रत के व्रतीजन उपवास के साथ रात्रि में जागकर शिव पूजा करते हैं।
शिवपुराण के अनुसार व्रती पुरूष को प्रात:काल उठकर स्नान-संध्या आदि से निवृत्त होने पर मस्तक पर भस्म का त्रिपुर तिलक और गले में रुद्राक्षमाला धारण कर शिवालय में जाकर शिवलिंग का विधिपूर्वक पूजन एवं शिव को नमस्कार करना चाहिये। तत्त्पश्चात उसे श्रद्धापूर्वक व्रत का संकल्प करना चाहिये।
भगवान् शंज्र्र में अनुपम सामञ्जस्य, अद्भुत समन्वय और उत्कृष्ट सद्भाव के दर्शन होने से हमें उनसे शिक्षा ग्रहण कर विश्व-कल्याण के महान् कार्य में प्रवृत्त होना चाहिये - यहीं इस परम पावन पर्व का मानवजाति के प्रति दिव्य संदेश है। शिव अर्धनारीश्वर होकर भी कामविजेता है, गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त हैं, हलाहल पान करने के कारण नीलकण्ठ होकर भी विष से अलिप्त हैं, ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी होकर भी उनसे विलग हैं, उग्र होते हुए भी सौम्य हैं, अकिंचन होते हुए भी सर्वेश्वर हैं, भयंकर विषधरनाग और सौम्य चन्द्रमा दोनों ही उनके आभूषण हैं, मस्तक में प्रलयकालीन अग्नि और सिर पर परम शीतल गङ्गाधारा उनका अनुपम शृङ्गार है। उनके यहाँ वृषभ और सिंह का तथा मयूर एवं सर्प का सहज और भुलकर साथ-साथ क्रीडा करना समस्त विरोधी भावों के विलक्षण समन्वय की शिक्षा देता है। इससे विश्व को सह-अस्तित्व अपनाने की अद्भुत शिक्षा मिलती है।
इस प्रकार उनका श्रीविग्रह-शिवलिङ्ग ब्रह्माण्ड एवं निराकार ब्रह्म का प्रतीक होने के कारण सभी के लिये पूजनीय है। जिस प्रकार निराकार ब्रह्म रूप, रंग, आकार आदि से रहित होता है उसी प्रकार शिवलिङ्ग भी है। जिस प्रकार गणित तें शून्य कुछ न होते हुए भी सब कुछ होता है, किसी भी अज्र् के दाहिने होकर जिस प्रकार यह उस अज्र् का दस गुणा मूल कर देता है, उसी प्रकार शिवलिङ्ग की पूजा से शिव भी दाहिने (अनुकू ल) होकर मनुष्य को अनन्त सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। अत: मानव को उपर्युक्त शिक्षा ग्रहण कर उसके इस महान् महाशिवरात्रि-महोत्सव को बड़े समारोहपूर्वक मनाना चाहिये।
(लेखक राज्यस्तरीय अधिमान्य पत्रकार है।)