धर्म वृध्दि से आत्मशुध्दि की ओर बढ़ना होगा-मुक्तिसागर महाराज
उज्जैन। संसार है दुख का धाम, यहां सुख क्षण का है, पाप मण का और उससे मिलने वाला दुख तो टन का है। हमने धर्म आराधना तो बहुत की परंतु संसार का आवागमन मिटा नहीं और बढ़ता ही गया है। अब धर्म वृध्दि से आत्मशुध्दि की ओर आगे बढ़ना है।
उक्त बात मालव मार्तण्ड मुक्तिसागर सूरिजी महाराज ने खाराकुआ स्थित जैन उपाश्रय में अपने प्रवचन के दौरान कही। आपने कहा कि मानवी क्रियात्मक और द्रव्यात्मक धर्म तो बहुत कर रहा है। परंतु गुणात्मक और भावात्मक धर्म से कोसो दूर है और यही उसके भ्रमण का कारण बना है। आपने धार्मिक क्रियाओं को धर्म बनाने के लिए तीन प्रकार के आराधक भाव बताये। पहला प्रभु प्यारे लगे, हम भगवान की पूजा, दर्शन, भक्ति जरूर करते हैं किंतु हमें संसार ज्यादा प्रिय लग रहा है। धन, पद, स्त्री, पुत्र, परिवार के मोह में खोये हुए हैं। दूसरे नंबर का आराधक भाव बताया कि प्रभु को जो प्रिय है, वह प्रिय लगे और भगवान को तो जगत के जीव मात्र प्रिय हैं, अतः हमें भी वे प्रिय लगना चाहिये। आत्म रमणता और शिव रमणता की बातें बाद में पहले हमारे अंदर जीवरमणता आनी चाहिये। तीसरा है प्रभु की आज्ञा प्रिय लगे। हम भगवान को जरूर मानते हैं, किंतु उनकी आज्ञा नहीं मानते। सभी पापों से सदा के लिए दूर रहने को हमारे प्रभु द्वारा बताया गया है। आचार्यश्री ने शाम को ही हनुमंत बाग की ओर विहार किया। आज मंगलवार को आचार्यश्री का भव्य प्रवेश अभ्युदयपुरम जैन गुरूकुल में होगा। उल्लेखनीय है कि वर्तमान पीढ़ी में शिक्षा के साथ संस्कारों की प्राप्ति के उद्देश्य से आपने धरमबड़ला के पास गुरूकुल की स्थापना की है। जहां आज की हाईप्रोफाईल शिक्षा के साथ धर्म के संस्कार भी करीब 75 बच्चे ग्रहण कर रहे हैं। दूरदराज से वहां आकर रह रहे बच्चे वहां जैन जीवनशैली सीख रहे हैं। ट्रस्ट ने गुरूकुल में पूज्य आचार्यश्री के प्रवेशोत्सव में सम्मिलित होने की समाजजनों से अपील की है। करीब सवा महीने तक पूज्य गुरूदेव की वहां स्थिरता रहेगी।