दंड एवं सजामुक्त हो स्कूली परिवेश
- ललित गर्ग -
देश के स्कूलों में शारीरिक दंड पर रोक के बावजूद स्कूली बच्चों के साथ पिटाई का सिलसिला नहीं रुक रहा है। देश में सख्त कानून बन जाने के बावजूद किसी-न-किसी हिस्से में हर दिन ऐसी घटनाओं का घटित होना चिन्तनीय है। हाल ही में दिल्ली में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले एक छात्र के होमवर्क पूरा नहीं करने पर उसकी आंख पर शिक्षिका द्वारा घूंसा मारने की घटना हो या जम्मू में एक अध्यापक द्वारा नौंवी क्लास के बच्चे के पेट में लात मारने से उसकी किडनी के खराब हो जाने की घटना न केवल शर्मनाक हैं बल्कि समूची शिक्षा व्यवस्था के लिए शर्मसार करने वाली त्रासदियां है। स्कूल के हिंसक होने की घटनाएं तो और भी भयावह है जिनमें बच्चों के कान तक ब्लेड से काटे गए हैं और कई बार तो बच्चों की जान भी इस प्रकार की मार पिटाई से जा चुकी है। इन विडम्बनापूर्ण वीभत्स घटनाओं पर नियंत्रण जरूरी है और इसके लिये उचित कदम उठाये जाने चाहिए।
मनुष्य को मनुष्यता का भान कराने, अहिंसा-करुणा-प्रेम का पाठ पढ़ाने एवं जीवन के समग्र विकास में शिक्षा ही सशक्त माध्यम है तथा सभ्यता और संस्कृति से परिचित कराने का यही दर्पण है। लेकिन शिक्षा के मन्दिरों में आज जिस तरह की छोटे-छोटे बच्चों के साथ मारपीट एवं हिंसा की घटनाएं हो रही है, उससे यही प्रतीत होता है कि आज की शिक्षा में कोई खामी है, त्रुटि है या अधुरापन है, इसमें आधारभूत सुधारों की आवश्यकता है। इस पर वर्षों से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चाएं, सम्मेलन होते रहते हैं तथा अनेक शिक्षा-शास्त्रियों के आयोग भी बनाए गए। पर हमारी शिक्षा प्रणाली अभी तक उपयुक्त दिशा नहीं पा सकी, भारतीयता के मूल्यों की पटरी से उतरी हुई है।
इसका प्रमाण है कि राजधानी के एक स्कूल होमवर्क न होने पर तीसरी कक्षा के छात्र की निर्मम एवं बेरहमी से की गयी पिटाई। सुदूर क्षेत्रों में नहीं बल्कि राजधानी दिल्ली में कुछ निजी स्कूलों में ही नहीं सरकारी स्कूलों में भी कायदे कानून का पालन नहीं होता। उन्हें यह भी नहीं पता कि अभिभावक अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और बेहतर भविष्य के लिए स्कूल भेजते हैं। उनके साथ मारपीट करने की छूट किसी भी हालत में नहीं दी जा सकती। शिक्षा निदेशालय को चाहिए कि वह इस तरह के मामलों की गहनता से जांच करे और दोषी शिक्षिका और स्कूल प्रशासन के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि निजी स्कूलों के साथ-साथ सरकारी स्कूलों पर इस तरह बच्चों पर बेरहमी से पिटाई के आरोप लगते रहे हैं।
विडम्बनापूर्ण तो यह है कि प्राइवेट स्कूलों में इस तरह की हिंसक एवं त्रासद घटनाएं अधिक देखने में मिल रही है, इससे इन महंगे स्कूलों की साख गिरती ही है साथ ही बच्चों का विकास भी अवरुद्ध होता है। ज्यादातर निजी स्कूलों में छोटे बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी शिक्षिकाओं को यह सोचकर सौंपी जाती है कि वे मां की तरह बच्चों का ख्याल रखेंगी, लेकिन यह घटना यह बताती है कि शिक्षिकाएं किस तरह से लापरवाही बरतती हैं। इस मामले में आरोपों को देखें तो यह पता चलता है कि स्कूल प्रशासन ने भी कोई सहृदयता नहीं दिखाई। बल्कि स्कूल प्रबंधन तो ऐसे मामलों को छिपाने में लगे रहते हैं। दरअसल ज्यादातर निजी स्कूल रसूखदार लोगों के हैं। इनका मकसद उन्नत शिक्षा से ज्यादा अधिकतम फायदा कमाना होता है। ऐसे में ये प्रशिक्षित शिक्षकों के बजाय किसी को भी काम पर रख लेते हैं। ऐसा माना जाता है कि कम धन देने वाले सरकारी स्कूलों में सुविधा नहीं मिलती, लेकिन ज्यादा धन देने के बावजूद अगर लोगों के बच्चे सुरक्षित नहीं हैं तो फिर रास्ता क्या बचता है?
हजारों की तादाद में देश में अंग्रेजी और मिशनरी स्कूल चल रहे हैं जहां अनेक सजा देने की घटनाएं इसलिये होती है क्योंकि बच्चे भारतीय संस्कृति और उससे जुडे़ संस्कारों को अपनाने की भूल कर जाते हैं। इन स्कूलों में पाठ्यक्रम से लेकर प्रार्थनाएं तक अंग्रेजी मंे होती हैं। हम हैं कि एक दीवानगी पाले हुए हैं कि हमारा बच्चा अंग्रेजी मंे धड़ल्ले से बोले। इन स्कूलों में पढ़कर बच्चा हिन्दी में भी बोलेगा तो भी इंगलिश स्टाइल में। सोचेगा तो इंगलिश में और हिन्दी में बोलेगा तो लगेगा कि अनुवाद कर रहा है। आश्चर्य तो इस बात का है कि अध्यापक (नहीं, सर और मैडम) भारतीय होकर भी विदेशी भाषा और संस्कृति के गुलाम बने हुए हैं। हमारी संस्कृति पर केवल विदेशी टी.वी. के चैनल ही हमला नहीं कर रहे बल्कि असली धारदार हथियार तो ये स्कूल हैं, जो जड़ें ही काट देते हैं। विदेशी भाषा का हम भाषा और साहित्य की दृष्टि से आदर कर सकते हैं, कुछ अंशों में विदेशी संस्कृति के अच्छे पक्षों को भी स्वीकार सकते हैं पर भारतीय भाषा और भारतीय संस्कृति की कीमत पर कत्तई नहीं। ऐसे स्कूल में एक बार एक लड़के को इसलिए अपमानित होना पड़ा कि रक्षा बन्धन के पवित्र त्यौहार पर राखियां बांधे स्कूल चला गया। एक दूसरे कान्वेंट स्कूल में एक लड़की को इसलिए कक्षा में नहीं घुसने दिया गया क्योंकि उसके हाथों पर मेहंदी रची हुई थी। यह जानकर मेरा ही नहीं मेरे सुधी पाठकों! आपको भी धक्का लगेगा। लेकिन यह सच्चाई है। इस प्रवाह में केवल मिशनरी ही नहीं अनेक भारतीय संचालक भी बह रहे हैं। स्कूलों के नाम भी अंग्रेजी, ड्रेसें भी अंग्रेजी। उद्देश्य केवल अर्थलाभ। संस्कृति को मिटाकर, सबकुछ भुलाकर।
हमारे यहाँ की शिक्षा प्रणाली की विसंगति का ही परिणाम है कि हमें अहिंसा नही,ं हिंसा प्रेरणा मिलती है। आधुनिक जीवनशैली में एक और बात भी आपने देखी होगी जो मारते पीटते नहीं भी हैं वो भी अपनी जबान से जरूर कहेंगे बच्चों को “पिटाई लगेगी” अथवा हाथों से मार लगाने वाला इशारा ही करेंगे, जैसे कि ये बहुत आवश्यक हो और इसके बिना काम चल ही नहीं सकता। सवाल यह उठता है कि हमारी भारतीय संस्कृति में हिंसा को सर्वत्र त्याज्य माना गया है तो फिर मार पिटाई का इतना महत्व क्यों है और क्यों वो इतना रच बस गई है यहाँ के जीवन में?
मेरी दृष्टि में बच्चों के प्रति की गई हिंसा कदापि भी उचित नहीं है क्योंकि वो छोटा है, नासमझ है, कमजोर है तथा प्रतिकार करने में असमर्थ है, आखिर उसको समझाने या सुधारने के लिए मारने की ही आवश्यकता क्यों है? क्या और कोई उपाय नहीं? मार का ही डर क्यों? मार से बच्चा और ज्यादा निष्ठुर, निर्दयी, बेहया और ढीठ हो जाता है, सोच लेता है कि चलो एकाध थप्पड़ या डंडा और खा लेंगे। यदि ये तरीका उचित होता तो आज क्यों दुनिया भर और भारत में भी इसके खिलाफ कानून बनता? इस प्रकार के हिंसक और निर्मम तरीके स्वीकार्य नहीं है। तभी दुनिया के बहुत से देशों में दण्ड इस तरह की प्रथाएं खत्म की गईं और पढ़ाने के नए तरीकों का विकास किया गया और ऐसा नहीं है कि उन देशों में बच्चे पढ़ लिख कर उच्च योग्यता नहीं प्राप्त करते हों। हमारे देश में भी कानून तो बन गया परन्तु उसे प्रभावी तरीके से लागू किया जाना जरूरी है। शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है कि वे बिना मारे-पीटे एवं हिंसक हुए किस तरह से पढ़ा सके?