संसद में हो रहे हंगामे पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने की सांसदों से अपील, कहा- ‘भगवान के लिए अपना काम कीजिए’
मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले के बाद शीतकालीन सत्र के दौरान संसद में पिछले करीब 17 दिनों से चल रहे लगातार हंगामे पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गहरी नाराजगी जताई है। राष्ट्रपति ने सरकार और विपक्ष के बीच चल रहे गतिरोध को खत्म करने की अपील करते हुए कहा कि संसद की कार्यवाही में बाधा किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है।
रक्षा संपदा दिवस व्याख्यान के अवसर पर यहां ‘मजबूत लोकतंत्र के लिए चुनाव सुधार’ विषय पर अपने संबोधन में प्रणब ने कहा, ‘संसदीय प्रणाली में कामकाज में बाधा डालना पूरी तरह अस्वीकार्य है। लोग अपने प्रतिनिधियों को बोलने के लिए भेजते हैं, धरना पर बैठने के लिए नहीं, और न ही सदन में दिक्कतें पैदा करने के लिए।’ राष्ट्रपति बनने से पहले कद्दावर सांसद रह चुके प्रणब ने कहा, ‘बाधा पैदा करने का मतलब है कि आप चोट पहुंचा रहे हैं, आप बहुमत की आवाज दबा रहे हैं। सिर्फ अल्पमत ही सदन के बीचोंबीच आता है, नारेबाजी करता है, कार्यवाहियां रोकता है और ऐसे हालात पैदा करता है कि अध्यक्ष के पास सदन की कार्यवाही स्थगित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। यह पूरी तरह अस्वीकार्य है।’
प्रणब ने ऐसे समय में यह तीखी टिप्पणियां की हैं जब पिछले 15 दिनों से नोटबंदी के मुद्दे पर संसद में गतिरोध जारी है। राष्ट्रपति ने कहा कि पूरे साल में महज चंद हफ्ते ही संसद का सत्र आयोजित होता है। उन्होंने कहा, ‘नोटबंदी के लिए आप कोई और जगह चुन सकते हैं। लेकिन भगवान के लिए, अपना काम करें। आपको कामकाज करना होता है। आपको सदस्यों के अधिकारों का इस्तेमाल करने, खासकर लोकसभा सदस्यों को धन और वित्त के मुद्दे पर कामकाज में अपना वक्त देना होता है।’
प्रणब ने साफ किया कि वह किसी खास पार्टी या व्यक्ति पर निशाना नहीं साध रहे, क्योंकि यह सबकी जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा, ‘तथ्य है कि यह बाधा आम बात हो गई है, जिसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। चाहे कितने भी मतभेद हों, हमारे पास अपनी बात खुलकर कहने का मौका होता है। कोई भी अदालत सदन में कही गई बातों में दखल नहीं दे सकती।’ प्रणब ने कहा कि यदि कोई सदस्य किसी पर आरोप लगाता भी है, तो कोई अदालत उस पर मुकदमा नहीं चला सकती, क्योंकि उसने ऐसा सदन में कहा है।
उन्होंने कहा, ‘बाधाएं पैदा कर इस तरह की आजादी का गलत इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।’ प्रणब ने कहा कि किसी लोकतंत्र में तीन डी यानी डिबेट (वाद-विवाद), डिसेंशन (असहमति) और डिसीजन (निर्णय) अहम होते हैं। उन्होंने कहा, ‘लेकिन इसमें चौथा डी नहीं होता। कम से कम मेरे शिक्षक ने मुझे नहीं बताया कि एक चौथा डी डिसरप्शन (बाधा) भी होता है।’
राष्ट्रपति ने कहा कि जब भारत का बजट छोटा होता था और जब पंचवर्षीय योजना के लिए आवंटित की जाने वाली राशि मामूली होती थी तो संसद का दो-तिहाई वक्त धन एवं वित्त पर चर्चा में गुजरता था। उन्होंने कहा कि ऐसा इसलिए होता था क्योंकि लोकसभा में जनप्रतिनिधियों का अधिकार है कि उनकी मंजूरी के बगैर कोई कर नहीं लगाया जा सकता और न ही उनकी मंजूरी के बगैर भारत की संचित निधि से कोई पैसा निकाला जा सकता।
प्रणब ने कहा, ‘संसद की मंजूरी के बगैर भारत की संचित निधि से कोई रकम खर्च नहीं की जा सकती। लेकिन इन मुद्दों पर यदि बहस नहीं हो, जब आप हर साल 16 लाख करोड़ से 18 लाख करोड़ प्रति वर्ष खर्च करें। यदि सदन के पटल पर इन चीजों पर बारीकी से चर्चा न हो तो मैं नहीं समझता कि हमारी संसदीय प्रणाली बहुत प्रभावी तरीके से काम करेगी और सफलतापूर्वक आगे बढ़ेगी।’
महिला आरक्षण के मुद्दे पर राष्ट्रपति ने कहा कि 2014 के चुनाव ने दिखाया कि जब महिलाओं को टिकट देने की बात आती है तो कोई पार्टी ‘उदार’ नहीं होती। उन्होंने कहा कि लोकसभा की सीटों में कुछ आरक्षण होना चाहिए और राज्यसभा पहले ही महिला आरक्षण विधेयक पारित कर चुकी है। प्रणब ने कहा कि सरकार को लोकसभा में बहुमत प्राप्त है और इस सदन को भी विधेयक पारित कर देना चाहिए।
चुनाव सुधार के मुद्दे पर राष्ट्रपति ने कहा कि चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार के लिए अपनी सिफारिशों से लैस अहम दस्तावेज बांटे हैं। उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि हमें इसे गंभीरता से लेकर सार्वजनिक तौर पर बहस करनी चाहिए।’ प्रणब ने कहा कि इसके बाद यदि जरूरत पड़े तो कुछ चुनाव सुधारों के लिए संशोधन एवं शुद्धियां की जा सकती हैं।
उन्होंने ‘एक साथ चुनाव’ कराने के मुद्दे का भी जिक्र किया और इसे ‘बहुत विवादित विषय’ करार दिया। उन्होंने यह भी कहा कि इसे ‘मौजूदा संविधान की रूपरेखा के दायरे में हासिल करना बेहद मुश्किल है।’ प्रणब ने कहा कि कई लोगों को मालूम है कि बार-बार होने वाले चुनावों पर काफी खर्च होते हैं जिससे प्रशासनिक एवं वित्तीय संसाधनों पर दबाव पड़ता है।
उन्होंने कहा, ‘लेकिन हम लोकतंत्र की खातिर यह कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं, पर हमारे जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में विकास की कीमत पर यह नहीं होना चाहिए। लिहाजा, हमें यह सुनिश्चित करने का रास्ता तलाशना चाहिए कि यदि संभव हो तो संसद और विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराए जाएं।’