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26/11 की आज आठवीं बरसी, जब दहल उठा था मुम्बई शहर


आज ही के दिन ठीक आठ साल पहले मुंबई पर घातक चरमपंथी हमले हुए थे जिन में 160 के क़रीब आम नागरिक मारे गए थे. ये हमले 60 घंटों तक जारी रहे थे.
उन तीन दिनों में दौड़ता-भागता, जीता-जागता मेट्रोपोलिटन मुंबई शहर ठहर सा गया था. सहम सा गया था. ये न्यूयॉर्क के 9 /11 की तरह मुंबई का 26/11 साबित हुआ.

देखते ही देखते आठ साल गुज़र गए. लेकिन उन परिवार वालों के लिए इन हमलों की याद अब भी ताज़ा है जिनके सगे संबंधी इन में मारे गए थे.
मौत के उस नंगे नाच को वो भी कभी भूल नहीं सकेंगे जिन्होंने इसे क़रीब से देखा हो. जिन्होंने आटोमेटिक राइफ़लों से निकली गोलियों की आवाज़ें सुनी हों, हथगोलों के फटने की गूँज सुनी हो और बंधक बनाए लोगों की बेबसी की झलक देखी हो.

उन में से एक मैं भी हूँ. मैं 26 नवंबर 2008 की उस रात दोस्तों के साथ खाना खाने ट्रिडेंट होटल के क़रीब एक रेस्त्रां में बैठा हुआ था.

लगभग 9.30 बजे ख़बर आयी कि दक्षिण मुंबई में गैंग वार शुरू हो गया है. मुंबई के अंडरवर्ल्ड के डॉन के बीच झड़पों के आदी हो चुके शहरवासियों को पहले ऐसा ही लगा था.
लेकिन जल्द ही ये समझ में आ गया कि ये चरमपंथी हमले हैं. जो सारा सच अब हम जानते हैं वो उस रात को देर तक हमें नहीं मालूम था.

हमें नहीं मालूम था कि हमला करने वाले बंदूकधारी पाकिस्तान के कराची शहर से अरब महासागर में एक नाव पर सवार होकर आये थे.

हमें नहीं मालूम था कि उनकी संख्या दस थी और वो दो-दो की पांच टुकड़ियों में बंट कर एक साथ पांच जगहों पर हमला कर रहे थे.
अचानक हुए इन हमलों के लिए पुलिस तैयार नहीं थी. घायलों से जूझने के लिए अस्पताल चौकस नहीं थे. पीड़ितों की मदद के लिए प्रशासन चुस्त नहीं था.

मुंबई में 2006 में एक साथ कई लोकल ट्रेनों के अंदर घातक बम धमाके हो चुके थे. लेकिन 26 नवंबर के हमले अलग थे.

पहली बार हमला करने वालों को आप देख सकते थे. पहली बार वो तीन दिनों तक हमला करते रहे. और पहली बार वो सर पर मौत का कफ़न बांधे लोगों पर भरे स्टेशन में अंधाधुंध गोलियां चलाते रहे.
हमलों की चपेट में आए वीटी स्टेशन, ट्रिडेंट होटल, ताज महल होटल, लियोपोल्ड कैफ़े और ससून हॉस्पिटल में लाशों के ढेर लग गए थे.

जब मुंबई पुलिस और दिल्ली से आए स्पेशल कमांडो दस्ते ने मिलकर नौ बंदूकधारी मार गिराए तो हमले ख़त्म हो गए.
अजमल क़साब को ज़िंदा पकड़ लिया गया था. गिरफ्तार होने के बाद उन्होंने ही इस हमले की पूरी कहानी बयां की.

बंदूकधारियों के साथ मुठभेड़ में आतंकवाद निरोधक दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे समेत कई पुलिस वाले भी मारे गए थे.
इन हमलों से मुंबई के सैकड़ों परिवारों की दर्द भरी यादें जुडी हैं.
मैं उस दंपति के दर्द को याद करता हूँ जिनका 10 साल का बेटा एक ही होटल (ताज महल होटल) में रात भर उन से बिछड़ गया था.

इस बच्चे ने मुझे बाद में बताया कि जब वो शौचालय जा रहा था तो उस ने देखा दो बंदूकधारी गोली चला रहे हैं. रिसेप्शन पर लोग खड़े हैं लेकिन हिल भी नहीं पा रहे हैं. उसने सोचा कि कोई वीडियो गेम चल रहा है. लेकिन जब उसे ख़तरा महसूस हुआ तो वो भाग न सका. बिलकुल स्थिर खड़ा रहा. उसकी किस्मत अच्छी थी कि कुछ घंटों के बाद बंदूकधारी ऊपर की मंज़िल पर चले गए थे.

फिर लियोपोल्ड कैफ़े में काम करने वाले दो वेटर भाइयों को याद करता हूँ. एक भाई कैफ़े में मारा गया. दूसरा भाई अपने भाई के मारे जाने के सदमे से इस दुनिया से गुज़र गया.
कैफ़े में मारे गए भाई की कम उम्र की बेटी ने मुझ से रोकर पूछा था, "मेरे अब्बू ने इनका क्या बिगाड़ा था? उनकी जो भी मांग है क्या मेरे अब्बू के मारे जाने से पूरी हो जाएगी?"

इन हमलों में इसराइली और अमरीकी समेत कई विदेशी भी मारे गए थे. शायद इन हमलों के बाद पहली बार अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने ये समझा कि भारत आतंकवाद का बुरी तरह से शिकार है.
इस कांड ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी को जन्म दिया. अमरीका से आतंकवाद के मामले में ताल मेल बढ़ा. भारत को सब तरफ से सहानूभूति मिली.

शायद ख़ुफ़िया एजेंसियों ने अपने काम को मज़बूत किया. 26/11 के बाद मुम्बई में आठ साल में केवल एक चरमपंथ हमला हुआ (2011 में दो बम धमाके एक साथ हुए थे.)

मुंबई में कई साल रह कर तीन साल पहले मैं ने शहर को अलविदा कहा था. ये भी क्या इत्तेफ़ाक़ है कि 26/11 की आठवीं बरसी पर मैं यहाँ, कई यादों से जुड़े शहर में, कुछ दिनों के लिए वापस लौटा हूँ.
शहर में वापसी पर ख़ुशी है. साथ ही ये महसूस करके भी कि अब ये शहर पहले से काफी सुरक्षित है.

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