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आचार्य विनोबा भावे रोशनी जिनके साथ चलती थी



-ललित गर्ग-
महापुरुषों की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं रहती। उनका लोकहितकारी चिन्तन कालजयी होता है और युग-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करता है। आचार्य विनोबा भावे हमारे ऐसे ही एक प्रकाश स्तंभ है, जिनकी जन्म जयन्ती 11 सितम्बर को मनाई जाती है। वे  अपने समय के सूर्य थे। रोशनी उनके साथ चलती थी। वे संतों की उत्कृष्ट पराकाष्ठा थे, भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। उनका मूल नाम विनायक नरहरी भावे था। वे भारत में भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलन प्रणेता के रूप में सुपरिचित थे। वे भगवद्गीता से प्रेरित जनसरोकार वाले जननेता थे, उपदेष्टा थे, जिनका हर संवाद सन्देश बन गया है।
विनोबा भावे ने गाँधीजी के साथ देश के स्वाधीनता संग्राम में बहुत काम किया। उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज और व्यक्ति से जुड़ी थी। इसी कारण सन्त स्वभाव के बावजूद उनमें राजनैतिक सक्रियता भी थी। उन्होंने सामाजिक अन्याय तथा धार्मिक विषमता का मुकाबला करने के लिए देश की जनता को स्वयंसेवी होने का आह्वान किया। उनके आध्यात्मिक विकास में उनकी माँ रुक्मिणी देवी का गहरा प्रभाव था। उन्होंने इसी प्रभाव में महाराष्ट्र के सभी सन्त तथा दार्शनिकों को पढ़ा था। उनकी गणित में विशेष रुचि थी। उन्हें भारत का राष्ट्रीय आध्यापक और महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी समझा जाता है। आज भी कुछ लोग यही कहते हैं। मगर यह उनके चरित्र का एकांगी और एकतरफा विश्लेषण है। वे गांधीजी के ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी’ से बहुत आगे, स्वतंत्र सोच के स्वामी थे। मुख्य बात यह है कि गांधीजी के प्रखर प्रभामंडल के आगे उनके व्यक्तित्व का स्वतंत्र मूल्यांकन हो ही नहीं पाया। सचमुच! वह कर्मवीर कर्म करते-करते कृतकाम हो गया। पर हमारे सामने प्रश्न है कि हम कैसे मापें उस आकाश को कैसे बांधे उस समंदर को, कैसे गिने बरसात की बूंदों को? विनोबा की रचनात्मक, सृजनात्मक एवं समाज-निर्माण की उपलब्धियां इतनी ज्यादा है कि उनके आकलन में गणित का हर फार्मूला छोटा पड़ जाता है।
वर्ष 1916 में विनोबा भावे अपनी इन्टरमीडियेट की परीक्षा देने मुम्बई जा रहे थे। रास्ते में ही उनका मन बदला और वे बनारस की ओर चल पड़े। उनके मन में अनश्वर ज्ञान तथा अनादि ब्रह्म को जानने की अदम्य इच्छा जागी। बनारस में उन्होंने संस्कृत के पौराणिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। दरअसल इस घटना ने उनके जीवन की धारा बदल दी। इस समय के भाल पर दो महापुरुषों केे एक-दूसरे के आकर्षण का संयोग अंकित था-एक ओर विनोबा संन्यास की साध में, सत्यान्वेषण की ललक लिए काशी की गलियों में, घाटों पर भटक रहे थे। वहीं दूसरी ओर एक और जिज्ञासु भारत को जानने, उसके हृदयप्रदेश की धड़कनों को पहचानने, उससे आत्मीयताभरा रिश्ता कायम करने के लिए भारत-भ्रमण पर निकला हुआ हुआ था। वह कुछ ही महीने पहले दक्षिण अफ्रीका से बेशुमार ख्याति बटोरकर लौटा था। आगे उसकी योजना भारतीय राजनीति में दखल देने की थी। उस साधक का नाम था-मोहनदास करमचंद गांधी।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में विनोबा भावे ने गाँधीजी का प्रवचन सुना। वह उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने गाँधीजी को पत्र लिखा। कुछ पत्राचार के बाद गाँधीजी ने विनोबा भावे को अहमदाबाद के कोचराब आश्रम में मिलने के लिए बुलाया। 7 जून 1916 को विनोबा भावे गाँधीजी से मिले। इस भेंट ने विनोबा भावे को इतना प्रभावित किया कि उनका गाँधीजी से अटूट बंधन जुड़ गया। वह गाँधीजी के आश्रम में उनके सभी काम जैसे पठन-पाठन, चरखा कताई तथा जन-सेवा आदि करने लगे। 1921 में विनोबा ने गाँधीजी के निर्देश पर वर्धा आश्रम के संचालन का काम संभाला। उसी दौरान एक मराठी मासिक पत्र ‘महाराष्ट्र धर्म’ के नाम से प्रकाशित करना शुरू किया, जिसमें विनोबाजी के उपनिषदों पर लिखे निबन्ध छपे। साथ ही इनका जुड़ाव गाँधीजी के रचनात्मक कार्यों, जैसे खादी, ग्रामोद्योग, नई शिक्षा तथा स्वच्छता आदि की तरफ गहरा होता गया। वे महात्मा गाँधी द्वारा पहले एकल सत्याग्रही के रूप में चुने गए और गाँधीजी ने उन्हें ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में भी साथ लिया। पवनार आश्रम में आने के बाद वही उनका स्थायी मुख्यालय बन गया। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद विनोबा भावे ने समाज सुधार के आंदोलन की शुरुआत की। इस क्रम में भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलन बहुत प्रभावी रहे। उनका मानना था कि भारतीय समाज के पूर्ण परिवर्तन के लिए ‘अहिंसक क्रांति’ छेड़ने की आवश्यकता है। इसके लिये वे आचार्य तुलसी और उनके अणुव्रत आन्दोलन को उपयोगी मानते थे और उन्हें अपना पूरा समर्थन प्रदत्त किया।
विनोबा भावे की संवेदना ने पूरी मानवता को करुणा से भिगोया था। नेतृत्व वही सफल होता है जो सबको साथ लेकर, सबका अपना होकर चले। उनका नेतृत्व कद ऊंचा इसलिये उठ गया, क्योंकि उन्होंने अपना वात्सल्य, प्रेम, विश्वास और सौहार्द सबमें बांटा। उपलब्धियों में सबको सहभागी माना। अपने साथियों एवं कार्यकर्ताओं का दर्द-बांटना उनकी सर्वोपरि प्राथमिकता थी। इसका उदाहरण मेरा परिवार- मेरे पिता श्री रामस्वरूप गर्ग एवं माता श्रीमती सत्यभामा गर्ग हैं। सन् 1959 में वे पदयात्रा करते हुए अजमेर आये, उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी एक कार्यकत्र्री सत्यभामा गर्ग कैंसर से पीड़ित है और जीवन-मृत्यु के बीच संघर्षरत हैं, तो वे उनसे मिलने इमली मौहल्ला की संकरी गलियों में गये, तीसरी मंजिल तक चढ़ कर उन्हें अपना आशीर्वाद दिया। संभवतः यह विनोबा जैसा व्यक्तित्व ही कर सकता है।
 इसीलिये सर्वोदय में विनोबा भावे सबके उदय की बात करते थे। उनकी इस सोच में वे लोग भी शामिल थे, जो निर्धन, विपन्न, अभावग्रस्त तथा अशिक्षित थे। उन लोगों के लिए विनोबाजी ने भूदान आन्दोलन शुरू किया। उन्होंने दान में भूमि माँगना शुरू किया ताकि निर्धन-विपन्न लोगों के लिए भूमि की व्यवस्था की जा सके। विनोबाजी कर्मप्रधान व्यक्ति थे इसलिए गीता उनका आदर्श थी। उन्होंने अपने प्रवचनों में गीता का सार बेहद सरल शब्दों में जन-जन तक पहुँचाया ताकि उनका आध्यात्मिक उदय हो सके।
1970 में उन्होंने यह घोषणा की कि अब वह स्थायी रूप से केवल पवनार में रहेंगे। 25 दिसम्बर 1974 से 25 दिसम्बर 1975 तक उन्होंने एक वर्ष का मौन व्रत रखा। महात्मा गाँधी के गहन अनुयायी होने के कारण वह कांग्रेस पार्टी के निर्विवाद समर्थक थे। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने लोकतन्त्र तथा संविधान को परे करते हुए आपातकाल लगाया, तब भी विनोबाजी ने इन्दिरा गाँधी तथा कांग्रेस का समर्थन किया। वह समय विनोबा भावे के मौन व्रत था तब भी उन्होंने एक स्लेट पर लिखकर अपना सन्देश दिया था कि ‘आपातकाल अनुशासन पर्व है’ इस बात को लेकर वह विवाद से घिर गए थे और उनकी आध्यात्मिकता तथा जन-सरोकार को संशय से देखा जाने लगा था।
विनोबा धार्मिक संस्कारों में पाखंड के विरोधी थे। मां के निधन के समय उनका अपने पिता और भाइयों से मतभेद हुआ। नतीजा यह कि जिस मां को वे सबसे अधिक चाहते थे, जो उनकी आध्यात्मिक गुरु थीं, उनके अंतिम संस्कार से वे दूर ही रहे। मां को उन्होंने भीगी आंखों से मौन विदाई दी। लेकिन पिता के निधन के समय उन्होंने वेदों के निर्देश कि ‘मिट्टी पर मिट्टी का ही अधिकार है’ का पालन करते हुए उनकी देह को अग्नि-समर्पित करने के बजाय, मिट्टी में दबाने जोर दिया।
विनोबा भावे धर्म-दर्शन के मामले में समर्पण और स्वीकार्य-भाव रखते थे। उन्हें जब भी अवसर मिला धर्म-ग्रंथों की व्याख्या उन्होंने लीक से हटकर की। चाहे वह ‘गीता प्रवचन’ हों या संत तुकाराम के अभंगों पर लिखी गई पुस्तक ‘संतप्रसाद’। इससे उनमें पर्याप्त मौलिकता और सहजता परिलक्षित होती हैं। यह कार्य वही कर सकता था जो किसी के भी बौद्धिक प्रभामंडल से मुक्त हो। एक बात यह भी महात्मा गांधी के सान्निध्य में आने से पहले ही विनोबा आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त कर चुके थे। संत ज्ञानेश्वर एवं संत तुकाराम उनके आदर्श थे। आश्रम में आने के बाद भी वे अध्ययन-चिंतन के लिए नियमित समय निकालते थे।
भूदान आन्दोलन संत विनोबा भावे द्वारा सन् 1951 में आरम्भ किया गया स्वैच्छिक भूमि सुधार आन्दोलन था। उनकी कोशिश थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से जन-भागीदारी से इसकी सफल कोशिश की जाए। उन्होंने गांधीवादी विचारों पर चलते हुए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों को प्रयोग में लाया। आंदोलन के शुरुआती दिनों में विनोबा ने तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गांवों की पदयात्रा की थी और उन्हें दान में 12,200 एकड़ भूमि मिली। इसके बाद आंदोलन उत्तर भारत में फैला। बिहार और उत्तर प्रदेश में इसका गहरा असर देखा गया था। मार्च 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन बतौर दान मिल चुकी थी। 1955 तक आते-आते आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। इसका अर्थ था ‘सारी भूमि गोपाल की’। ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी गई, जिस पर सबों का बराबर का अधिकार था। इसकी शुरुआत उड़ीसा से हुई और इसे काफी सफलता मिली। 1960 तक देश में 4,500 से अधिक ग्रामदान गांव हो चुके थे। इनमें 1946 गांव उड़ीसा के थे, जबकि महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर था। वहां 603 ग्रामदान गांव थे। कहा जाता है कि ग्रामदान वाले विचार उन्हीं स्थानों पर सफल हुए जहां वर्ग भेद उभरे नहीं थे। वह इलाका आदिवासियों का ही था।
विनोबा भावे ने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था। उनकी जन-चेतना का उदाहरण उनका भूदान कार्यक्रम सामने लाता है। इस कार्यक्रम में वे पदयात्री की तरह गाँव-गाँव घूमे और इन्होंने लोगों से भूमिखण्ड दान करने की याचना की, ताकि उसे कुछ भूमिहीनों को देकर उनका जीवन सुधारा जा सके। उनका यह आह्वान जितना प्रभावी रहा, वह विस्मित करता है। विनोबा भावे की जन नेतृत्व क्षमता का अंदाज इसी घटना से लगता है कि इन्होंने चम्बल के डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया और वह विनोबाजी से प्रभावित होकर आत्म-समर्पण के लिए तैयार हो गए। विनोबा भावे को सामुदायिक नेतृत्व के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय रेमन मैगसाय पुरस्कार मिला था।
विनोबा भावे नवंबर 1982 में गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्होंने जैन धर्म के संलेखना- संथारा के रूप में भोजन और दवा का त्याग कर इच्छापूर्वक मृत्यु का वरण करने का निर्णय किया। उनका 15 नवंबर 1982 को निधन हो गया। उन्हें 1983 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। जन्म जयन्ती पर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तो इसी बात में है कि हम विनोबा को भौतिक चमत्कारों से तोलने का मन और माहौल न बनाये। उनके जीवन का तो एक-एक कर्म स्वयं पूजा है, मन्दिर और आरती है। कोई उन्हें जीकर देखे तो सही, आचरण स्वयं चमत्कार बन जायेगा।

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