पंडित दीनदयाल जी का आर्थिक चिंतन और समर्थ समाज का निर्माण "मानव जीवन के उद्देश्य का विचार करके हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे वे गति के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकें"- मुख्यमंत्री डॉ यादव
उज्जैन- व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र निर्माण का दर्शन देने वाले विलक्षण व्यक्तित्व के धनी, एकात्म मानव दर्शन तथा अंत्योदय के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के चरणों में कोटिशः नमन। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ऋषि-राजनेता रहे जिन्होंने राजनैतिक चिंतन के लिए एकात्म मानवदर्शन का सूत्र दिया और शासन की नीतियां बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। दीनदयाल जी जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्र जीवन दर्शन के दृष्टा हैं। पंडित जी द्वारा लगाए गए जनसंघ के पौधे का विस्तार विचार के रूप में देश ही नहीं दुनिया में भी हुआ है। उन्होंने एक ऐसी राजनैतिक धारा निर्मित की जिसका लक्ष्य राष्ट्र निर्माण है। उनका मानना था कि राजनीति सत्ता के लिए नहीं अपितु समाज की सेवा के लिए हो, स्वतंत्रता के साथ भारत राष्ट्र की यात्रा भारतीय दर्शन के अनुरूप होनी चाहिए। पंडित जी ने भारत के भविष्य की कल्पना वेदों में वर्णित चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के आधार पर की थी। यह चारों पुरुषार्थ मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर के संतुलन से संभव है। इससे ही एक आदर्श समाज और आदर्श राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। पहला पुरुषार्थ धर्म है जिसमें शिक्षा, संस्कार और व्यवस्था है तो दूसरे अर्थ में साधन, संपन्नता और वैभव आता है। अर्थ उपार्जन सही तरीके से हो, इसके लिये पंडित दीनदयाल जी ने मानव धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। इस तरह धर्मानुकूल, अर्थात उचित मार्ग से अर्थ उपार्जन करने का मार्ग प्रशस्त किया। तीसरा पुरुषार्थ है काम, जिसमें मन की समस्त कामनाएं शामिल हैं। मनुष्य को संतुलित, समयानुकूल और सकारात्मक स्वरूप में कार्य करना चाहिए। चौथा पुरुषार्थ है मोक्ष, अर्थात संतोष की परम स्थिति। यदि व्यक्ति संतोषी होगा तो वह समाज और राष्ट्र निर्माण का आधार बन सकता है। इन चार पुरुषार्थों की अवधारणा के अनुसार, यदि व्यक्ति और समाज को विकास के अवसर दिये जायें तो स्वावलंबी और समर्थ समाज का निर्माण किया जा सकता है। पंडित दीनदयाल जी ने राष्ट्र निर्माण और भविष्य की संकल्पना को लेकर गहन चिंतन किया, जिसमें भारतीय संस्कृति और परंपरा के अनुरूप राष्ट्र की चित्ति से विराट तक की कल्पना थी। उनके विकास का आधार एकात्म मानव दर्शन है। इसमें संपूर्ण जीवन की रचनात्मक दृष्टि समाहित है। उन्होंने विकास की दिशा को भारतीय संस्कृति के एकात्म मानवदर्शन के मूल में खोजा। हमारी संस्कृति संपूर्ण जीवन, संपूर्ण सृष्टि का समग्र विचार करती है। यही एकात्म भाव व्यष्टि से समष्टि की रचना करता है। यही पंडित दीनदयाल जी के विकास का व्यापक पक्ष है, सार्वभौम है, प्रासंगिक है। इसमें श्रीकृष्ण के वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा से लेकर आज के ग्लोबलाइज्ड युग का समावेश है।