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बच्चों में बाल्य काल से ही सामाजिक कला बोध जागृत करें-सुभाष अरोड़ा (वरिष्ठ पत्रकार)


बच्चों में  बाल्य काल से ही सामाजिक कला बोध जागृत करें 

कलाएं सभ्यता और संस्कृति की प्राण वायु

 सूरत,सीरत जुदा-जुदा/काया,माया अजब गजब/बावन-खड़ी का विस्तृत संसार/ रच डाले विविध विचार/लय,गतिमय कंपन विस्फोट/ सृजन-विसर्जन मारे चोट/ तोड़ें-मोड़ें,हो विस्फोट/ प्रकृति का अद्भुत वरदान/रच डाला नवरस विधान/ सात सुरों का सहज कमाल/ कोमल,मध्यम,तीव्र सुरताल/साधें साधो,उससे मिला दे/ बिगड़े बोल,बबाल मचा दे/ बंधा,बंधा सा जगदर्शन/ चक्कर-चक्कर गुरुत्वाकर्षण....
                        - सुभाष
कला मानव जीवन का हृदय क्षेत्र है और सभ्यता तथा संस्कृति की प्राणवायु। भाव,विभाव और अनुभव जन्य संचारी प्रकटन अर्थात मानवीय अभिव्यक्ति व सृजन  सभ्यता और संस्कृति के विकास क्रम का अभिन्न अंग हैं। जीवन के हर स्तर पर बेहतरी में कलाओं का अभूतपूर्व योगदान है।

 मानवीय आवश्यकताओं की भौतिक आपूर्ति करने वाली समस्त कलाओं को उपयोगी कलाओं की संज्ञा दी गई है। वहीं नेत्रऐंद्रीय और श्रवणऐंद्रिय द्वारा मानसिक तृप्ति देने वाली  लोक कलाएं तथा ललित कलाएं  सत्यम, शिवम,सुंदरम  द्वारा सत्-चित्-आनंद प्राप्ति  का मार्ग प्रशस्त करती हैं। 

मानव जाति ने अस्तित्व में आने के उपरांत निरंतर ही अपनी अभिव्यक्ति को सटीक बनाने की दिशा में शैल चित्रों से  प्रारंभ इस यात्रा में प्रतीक और चिन्हों को बाखूबी अपनाया है।  विज्ञान और गणित जहां औपचारिक प्रतीक स्वीकृति के उदाहरण हैं वहीं समाज में  सर्वमान्य चिन्ह मसलन ट्रैफिक संबंधी निशान अथवा जनजीवन से जुड़े अन्य चिन्ह भी आज अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। इन सब से हटकर अनौपचारिक प्रतीक अकाट्कीकरण, कला और संवेदनाओं के भावपूर्ण चिन्ह जिनके माध्यम से प्रदर्शनकारी कलाओं के कलाकार हमारे हृदय को झंकृत कर देते हैं। दरअसल 'भाषा' सबसे विकसित अभिव्यंजना प्रणाली है, तभी तो शाब्दिक संकेतों से काव्य कला और विचारवान समर्थ वक्ता  श्रोताओं को न केवल आनंदित करता है अपितु क्रांतिकारी और रचनात्मक बदलाव का प्रणेता भी सिद्ध होता है।

प्रख्यात साहित्यकार और चिंतक सच्चिदानंद वात्स्यायन का मानना था कि हमारे देश का आम आदमी अब भी साहित्य की वाचिक परंपरा को छोड़कर अन्य कलाओं की उपलब्धियों से आज भी काफी हद तक वंचित है। 

नाट्य,संगीत,वाद्य निष्पादन कलाएं हैं जिनमें कलाकार  शरीर,मुखमंडल,और भाव- भंगिमाओं को प्रदर्शित कर कभी मौन और कभी संगीत की स्वर लहरियों के साथ दर्शकों के अंतरमन को छूता है। इस प्रकार कंठ अथवा वाद्य यंत्र उपकरण जनित संगीत कला का आधार या संवाहक "नाद" है। 
चाक्षुक कलाओं में "आधार" की अनिवार्यता होती है। आधार मसलन ईंट,पत्थर, मृदा,धातु,चित्रपट,रंग, ब्रश आदि-आदि। स्थापत्य, मूर्तिकला और चित्रकला ऐसी ही ललित कलाएं हैं।  मंदिर,किले, मीनार,महल, भवन इत्यादि स्थापत्य और सभ्यताओं के परिचायक हैं। मूर्ति कला से भी हम सब बाबस्ता हैं। देव प्रतिमाओं के साथ-साथ मूर्ति शिल्प का विस्तृत संसार हमारे चारों तरफ विद्यमान है,  जो  वर्तमान में हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। 
अगर हम चित्रकला की बात करें तो चित्रकार के पास स्थापत्य और मूर्ति कला की तुलना में बहुत कम मूर्त आधार  होता है फिर भी वह रेखाओं और रंगों से स्थूलता,लघुता,
नैकट्य और दूरी का प्रबलता से एहसास कराते हुए रूप-भेद, प्रमाण, भाव,लावण्य और सादृश्यता भरा सार्थक चित्रण करता है।

इस प्रकार लोक कलाओं तथा ललित कलाओं में वस्तु अनुभव, स्वप्न अनुभव और समकालीन चेतना रची बसी होती है। जिस कला में मूर्त आधार जितना कम होगा कला उतनी ही श्रेष्ठ होगी।    

भारतीय लोक कलाओं एवं ललित कलाओं का कला दर्शन,कौशल पूर्ण क्रिया अथवा मनोविनोद से ऊपर उठकर एक अस्पष्ट भावना पूर्ण, ठोस और अखंडित प्रतिबद्धता है। जागृत मानव समाज  लोक कलाओं तथा  ललित कलाओं में गहरी रुचि लेकर अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के साथ-साथ समाज को ऊर्जावान बनाता है। हमें इस दिशा में बाल्य काल से ही बच्चों को अभिप्रेरित करना चाहिए , ताकि उन में व्यापक सामाजिक कला बोध जागृत हो। 
जय हिंद। 
             - सुभाष अरोड़ा

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