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गरीबों के लिए वरदान सरकारी अस्पतालों को निजी हाथो में देने की तैयारी


डॉ. चन्दर सोनाने
                    नीति आयोग के 1 जनवरी 2020 के प्रस्ताव के आधार पर मध्यप्रदेश सरकार सरकारी अस्पतालों के निजीकरण की कोशिश कर रही है। उस समय भी इस निर्णय का विरोध हुआ था। विरोध के कारण सरकार ने इस निर्णय के क्रियान्वयन में रोक लगा दी थी। किन्तु अब फिर से सरकारी अस्पतालों को निजी हाथ में देने की गतिविधि शुरू हो गई है। डॉक्टरों के संगठनों द्वारा इसका विरोध करना शुरू कर दिया गया है। 
              उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में 51 सिविल अस्पताल है। 348 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं। इनमें से प्रथम चरण में राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने पीपीपी मोड पर 10 जिला अस्पतालों में निजी मेडिकल कॉलेज बनाने का फैसला कर लिया है। ये 10 जिला अस्पताल हैं- खरगोन, धार, बैतूल, टीकमगढ़, बालाघाट, कटनी, सीधी, भिंड, मुरैना आदि।
              डॉक्टरों के विभिन्न संगठनों का कहना है कि सरकार द्वारा गुपचुप तरीके से इन सरकारी अस्पतालों को निजी हाथों में देने का फैसला लिया गया है। यह निर्णय आमजन के स्वास्थ्य सेवाओं के विपरीत भी है। पिछले दिनों भोपाल में विभिन्न स्वास्थ्य संगठनों ने प्रेसवार्ता आयोजित कर खुलकर सरकार की नीतियों का विरोध भी किया है। विरोध करने वाले प्रमुख संगठनों में एमपीएमटीए के अध्यक्ष डॉ. राजेश मालवीया, स्वायत्तशासी चिकित्सा अधिकारी संघ के डॉ. माधव हासानी, ईएसआई के संयुक्त सचिव डॉ. गजेन्द्रनाथ कौशल, चिकित्सा अधिकारी चिकित्सा शिक्षा के राज्य अध्यक्ष डॉ. महेश कुमार, मध्यप्रदेश जूनियर डॉ. एसोसिएशन के डॉ. सिद्धार्थ कीमती, मध्यप्रदेश नर्सिंग ऑफिसर एसोसिएशन की मनोरमा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकार अभियान के श्री राजकुमार सिन्हा आदि हैं।
          स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय दिल्ली की पूर्व स्वास्थ्य सचिव के सुजाता राव ने इस संबंध में स्पष्ट रूप से कहा है कि स्वास्थ्य सेवाओं का व्यवसायीकरण आपदा का कारण बन सकता है। इसका मतलब यह भी है कि मध्यप्रदेश सरकार अपने लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं देने में सक्षम नहीं है। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के स्वास्थ्य संस्थान निजी हाथों में सौंपकर लोगों के स्वास्थ्य से समझौता किया कर रही है। हम इसका विरोध करते हैं। 
           मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं की हालत यूं भी ठीक नहीं है। सरकार इसे ठीक करने का ईमानदारी से ठोस प्रयास भी नहीं कर रही है। प्रदेश की 8.5 करोड़ की आबादी के लिए सिर्फ 24 हजार सरकारी डॉक्टर हैं। और इनमें से भी हर साल 800 से 1000 डॉक्टर नौकरी छोड़कर चले जाते हैं। इसके साथ ही कैंसर और हाई रिस्क की गंभीर बीमारियों का उचित इलाज भी प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त रूप से नहीं है, जिस कारण से उन्हें ईलाज कराने के लिए प्रदेश के बाहर जाना पड़ता है। 
                इसका उदाहरण है, पिछले 7 साल में मध्यप्रदेश सरकार ने आयुष्मान योजना के अन्तर्गत मध्यप्रदेश के लाभार्थियों के लिए दूसरे राज्य को 1085 करोड़ रूपए दे दिए हैं। मध्यप्रदेश के अस्पतालों को सिर्फ 220 करोड़ रूपए ही मिल पाए हैं। मध्यप्रदेश से बड़ी संख्या में मरीज ईलाज के लिए मजबूर होकर दूसरे राज्यों की ओर रूख कर रहे हैं। यह हकीकत आयुष्मान भारत योजना के लाभार्थियों के आंकड़ों की पड़ताल में सामने आई है। सन 2018 में जहां मात्र 399 मरीजों का ही ईलाज बाहरी राज्यों में होता था, वहीं 2024 में अब तक यह आंकड़ा 35,327 तक पहुंच गया है। इस योजना के तहत पिछले 7 साल में 1.32 लाख मरीज दूसरे राज्यों में ईलाज करा चुके हैं। इसके बदले में मध्यप्रदेश के खाते से 1085 करोड़ रूपए दिए जा चुके हैं। इसी अवधि में दूसरे राज्यों से ईलाज कराने के लिए 8,747 मरीज ही मध्यप्रदेश आए हैं। इस कारण मध्यप्रदेश के अस्पतालों को सिर्फ 220 करोड़ रूपए ही मिले हैं।
                इसकी बड़ी वजह राज्य में डॉक्टरों की भारी कमी है। सरकारी अस्पतालों में विशेषज्ञों के 2374 पद बरसों से खाली पड़े है। यह कुल स्वीकृत पदों का 63.73 प्रतिशत है। चिकित्सा अधिकारियों के 1054 पद खाली पड़े है। यह स्वीकृत पदों का 55.97 प्रतिशत ही है। दन्त चिकित्सकों के 314 पद खाली पड़े है। जिला अस्पतालों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में पर्याप्त स्त्रीरोग विशेषज्ञ और आवश्यक सहायक कर्मचारी नहीं है। उक्त आंकड़ों को देखकर ऐसा लगता है सरकार बरसों से खाली पड़े पद भरना ही नहीं चाहती ! 
                 मध्यप्रदेश के गरीबों के लिए बीमार होने पर एक मात्र सहारा सरकारी जिला अस्पताल और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र ही हैं। इन सरकारी अस्पतालों का भी निजीकरण कर दिया जाएगा तो गरीब अपना इलाज कराने कहाँ जायेगा ? सामान्य बात है कि अभी सरकारी अस्पतालों में गरीबों का निःशुल्क ईलाज ही नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें दवाईयाँ आदि भी निःशुल्क दी जाती है। मरीजों के भर्ती होने पर सभी चिकित्सा सुविधाएं भी उन्हें निःशुल्क उपलब्ध कराई जाती है। 
                  गरीबों का एक मात्र आसरा इन सरकारी अस्पतालों के निजीकरण किए जाने पर निजी संस्थान सेवा कार्य नहीं करेंगे बल्कि, उसका व्यवसायीकरण करेंगे ! तब गरीब अपने ईलाज के लिए कहाँ जाएगा ? किसी भी राज्य या केन्द्र सरकार के लिए अपने नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना उसका मूलभूत कर्तव्य है। संविधान में भी आमजन को चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराना राज्य की जिम्मेदारी माना गया है। यदि इन्हीं सरकारी अस्पतालों का निजीकरण कर दिया जायेगा तो संविधान का भी उल्लंघन होगा ! प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव से अपेक्षा है कि वे सरकारी अस्पतालों के निजीकरण पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाएँ अन्यथा गरीबों को अपने ईलाज के लिए दर-दर भटकना पड़ेगा !
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