‘जनसंख्या जिहाद’ का पलटवार या सियासी सत्ता संतुलन की प्री-प्लानिंग? -अजय बोकिल (वरिष्ठ पत्रकार)
‘जनसंख्या जिहाद’ का पलटवार या सियासी सत्ता संतुलन की प्री-प्लानिंग?
अजय बोकिल (वरिष्ठ पत्रकार)
देश के दक्षिणी राज्यों से आबादी बढ़ाने की जो आवाजें उठी हैं, क्या वो ‘जनसंख्या जिहाद’ का पलटवार है या भविष्य में राजनीतिक सत्ता सूत्र अपने हाथों में रखने की प्री प्लानिंग है अथवा देश में क्षेत्रवार आबादी के असंतुलन से होने वाले व्यापक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दुष्प्रभावों के मद्देजर ऐहतियाती उपाय अभी करने का आग्रह है, इसे हमे गहराई से समझना होगा। दक्षिणी राज्यों के दो मुख्यमंत्रियों ने हाल में अपने प्रदेश के लोगों से आबादी बढ़ाने की जो अपील की है, वो भारत में ‘जनसंख्या विस्फोट’ को रोकने के लिए अब तक चली आ रही ‘परिवार नियोजन’ थ्योरी के ठीक विपरीत है। तो क्या इन नेताअों को बेतहाशा बढ़ती आबादी से जुड़े खतरों का भान नहीं है या फिर वो सीमित परिवारों के आग्रह में छिपे आसन्न खतरों को भांप कर ऐसा कह रहे हैं? आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने हाल में कहा कि अब उनकी सरकार पुराने कानून में बुनियादी बदलाव कर उन्हीं लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति देगी, जिनके 2 से ज्यादा बच्चे हों। अभी तक दो से ज्यादा बच्चों वाले माता पिता स्थानीय निकाय चुनाव नहीं लड़ सकते थे। नायडू ने इस के पक्ष में दलील दी कि वृद्धावस्था की समस्या के संकेत दक्षिण भारत, खास तौर से आंध्र प्रदेश में दिखने लगे हैं। जापान, चीन और कुछ यूरोपीय देश पहले ही इस समस्या का सामना कर रहे हैं, जहां बुजुर्गों की संख्या अधिक है। दक्षिण भारत में यह समस्या और गंभीर है क्योंकि युवा रोजगार की तलाश में बाहर चले जाते हैं। परिणामस्वरूप कई गांवों में तो अब बुजुर्ग ही रह गए हैं। नायडू ने यह भी कहा कि दक्षिणी राज्यों में प्रजनन दर 1.6 तक गिर चुकी है, जो राष्ट्रीय औसत 2.1 से काफी कम है। अगर यह और घटती है, तो 2047 तक बुजुर्गों की संख्या अधिक होगी, जो कि वांछनीय नहीं है। चंद्रबाबू के बयान के दूसरे ही दिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने भी लगभग उसी बात को दोहराया। हालांकि उनका उद्देश्य स्पष्ट रूप से राजनीतिक था। हिंदू धार्मिक मामलों के विभाग के तत्वावधान में आयोजित एक सामूहिक विवाह समारोह में मुख्यमंत्री ने कहा कि संसदीय परिसीमन प्रक्रिया से दंपतियों को अधिक बच्चे पैदा करने और छोटा परिवार का विचार छोड़ने के लिए प्रोत्साहन मिल सकता है। उन्होंने कहा कि अतीत में, बुजुर्ग नवविवाहित जोड़ों को 16 बच्चों का नहीं बल्कि 16 तरह की संपत्ति अर्जित करने और खुशहाल जीवन जीने का आशीर्वाद देते थे। अब उन्हें सचमुच 16 बच्चे पैदा करने चाहिए, न कि एक छोटा और खुशहाल परिवार रखना चाहिए।''
वैसे नायडू के कथन में सच्चाई है कि बेशक आज भारत सबसे ज्यादा युवाअों का देश है। वर्ल्ड पापुलेशन प्राॅस्पेक्टस की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 65 फीसदी 35 साल के नीचे की है। लेकिन तीस साल बाद यही आबादी 65 वर्ष की होगी। यानी भारत में हर पांचवा शख्स बुजुर्ग होगा। यह आबादी करीब 35 करोड़ होगी। यह वो आबादी होगी, जो सेवानिवृत्त अथवा कम कार्यक्षम लोगों की होगी।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां आबादी का अर्थ जनशक्ति से ज्यादा ‘वोट’ हो चुका है, वहां जनसांख्यिकीय संतुलन का अर्थ राजनीतिक सत्ता को कायम रखना अथवा बदलने की ताकत से है। जब से देश में धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति हावी हुई है, तब से यह जनसंख्या संतुलन के प्रति यह नजरिया और उग्र हुआ है। यह भावना तेजी से गहरा रही है कि किसी विशेष धर्म, जाति अथवा समुदाय की संख्या से ही सियासी शक्ति से अर्जित किया जा सकता है और उस पर पकड़ बनाई रखी जा सकती है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के विधायक महबूब अली ने खुले तौर पर घोषणा कर दी कि राज्य में मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। हम यूपी पर राज करेंगे। इसमे सच्चाई कितनी है, यह अलग बात है। लेकिन भावनात्मक स्तर पर यह भी एक तरह का ‘जनसंख्या जिहाद’ ही है। प्रकारांतर से आबादी को बढ़ाना सत्ता में रहने का रामबाण नुस्खा है। याद करें, उस नारे को जिसमें यह आह्वान किया गया है ‘ जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।‘ इसका सीधा अर्थ यही है कि न केवल सत्ता बल्कि सामाजिक और आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण और वर्चस्व के लिए जरूरी है कि आपकी संख्या अन्य से ज्यादा हो। वरना आप की स्थिति दोयम दर्जे की हो सकती है। संभव है कि आप कहीं भी निर्णायक स्थिति में रहें। ये डर केवल काल्पनिक है, ऐसा भी नहीं है। देश में जहां जहां धार्मिक आधार पर जनसांख्यिकी बदली है, वहां अलगाववाद और विभाजन की दरारें गहराने लगी हैं। और यह केवल भारत में ही नहीं हो रहा है, लोकतंत्र और व्यक्ति और अभिव्यक्त स्वातंत्र्य के घोर समर्थक यूरोपीय देशों में भी हो रहा है।
हालांकि कुछ लोग इसे केवल मिथक मानते हैं, लेकिन देश में बहुसंख्य हिंदुअों की आबादी वृद्धि दर में गिरावट को लेकर आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के.सी. सुदर्शन ने 2000 में ही इस मुद्दे को उठाया था। 8 साल पहले संघ प्रमुख डाॅ.मोहन भागवत ने भी कहा था कि बहुसंख्य हिंदुअोंकी घटती आबादी चिंता का विषय है। उन्होंने युवा दंपतियों से आग्रह किया था कि वो दो से ज्यादा बच्चे पैदा करें। लगभग यही बात हाल में निरंजनी अखाड़े के महामंडलेश्वर प्रेमानंद पुरी ने भी कही। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में उसी का राज चलता है, जिसकी जितनी ज्यादा संख्या होती है। इसी तरह और भी हिंदू साधु संत इस तरह के आह्वान करते रहते हैं। ऐसी बातों का प्रजनन योग्य युवाअों पर कितना असर होता है, यह स्वतंत्र अध्ययन का विषय है, क्योंकि नेताअो, संतो के आग्रह में यह कहीं स्पष्ट नहीं होता कि ज्यादा बच्चे पैदा करने के बाद उनके समुचित पालन पोषण की जिम्मेदारी कौन लेगा? इसके लिए जरूरी संसाधन कहां से आएंगे? बच्चों की अच्छी परिवरिश में होने वाले कष्टों में हिस्सेदारी कौन और कैसे करेगा? या केवल आबादी बढ़ाने के चक्कर में वो ऐहिक जीवन दांव पर लगा दें?
वैसे भी जो नेता, सामाजिक संगठनों के प्रभावी पुरूष और साधु संत ऐसे आह्वान करते रहते हैं, उनका लोगो और खासकर हिंदुअोंकी आबादी बढ़ाने में निजी स्तर पर कोई खास योगदान नहीं है। या तो वे इसकी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते या फिर अपने संसाधनो को बंटने नहीं देना चाहते। खुद चंद्रबाबू नायडू का एक बेटा है और स्टालिन की सिर्फ दो संतानें हैं। प्रचारक और साधु संतों के परिवार ही नहीं होते। इनमें केवल राजद नेता लालू प्रसाद को अपवाद माना जा सकता है, जिन्होंने अपनी तमाम राजनीतिक सक्रियता के बावजूद परिवार विस्तार के मोर्चे को कमजोर नहीं होने दिया और 9 संतानों के िपता बने। हालांकि लालू ने कभी दूसरों को ऐसा करने की सार्वजनिक सलाह नहीं दी।
एक समय था, जब देश की आबादी आज से भी आधी थी और चौतरफा हम दो हमारे दो’का शोर था। कहा जा रहा था कि एक गरीब देश भारी आबादी के बोझ को सह नहीं सकता। लेकिन हमने इतनी तरक्की तो कर ली है कि देश आज 145 करोड़ की आबादी को भी खिला रहा है। तो फिर और आबादी बढ़ाने की बात क्यो की जा रही है? इसके कई पहलू हैं। पहला तो राजनीतिक है। 2026 में देश में लोकसभा और विधानसभा सीटों का आबादी के अनुसार नए सिरे से परिसीमन होना है। इसका क्या फार्मूला होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन अगर आबादी को ही आधार माना गया तो लोकसभा की वर्तमान सीटें 543 से बढ़कर 888 होने वाली हैं। इनमें सर्वाधिक सीटे सबसे ज्यादा आबादी वाले यूपी में बढ़ेंगी, जो वर्तमान की 80 से बढ़कर 147 हो जाएंगी। इसके बाद महाराष्ट्र, बिहार, पं.बंगाल और मप्र का नंबर है। ये सभी उत्तर और पश्चिमी भारत के राज्य हैं। ऐसे कुल 18 राज्यों में वर्तमान में लोस की फिलहाल 382 सीटें हैं, जो परिसीमन के बाद 688 हो सकती हैं, जबकि दक्षिण के पांच राज्यों में वर्तमान में 129 सीटें हैं, जो बढ़कर 184 ही होंगी। इसी तरह पूर्वोत्तर के राज्यों की सीटों में भी मामूली बढ़ोतरी ही होगी, क्योंकि उनकी आबादी वृद्धि दर बहुत कम है।
तो क्या आबादी का ज्यादा न बढ़ना, खुशहाली की गारंटी भले हो, लेकिन राजनीतिक सत्ता संतुलन में एक नकारात्मक फैक्टर है? दक्षिण के राज्यों का यह सवाल वाजिब है कि अगर उन्होंने जनसंख्या वृद्धि को काबू में रखकर आर्थिक मोर्चे पर तेजी से तरक्की की तो क्या यह उनका अपराध है, बनिस्बत उन उत्तर और राज्यों के जहां आबादी तेजी से बढ़ रही है, लेकिन विकास की दौड़ में वो दक्षिणी राज्यों से अभी भी पीछे हैं। डर ये है कि नए परिसीमन के बाद कम आबादी के कारण केन्द्रीय सत्ता में दक्षिणी राज्यों की भागीदारी कम होती जाएगी, जो एक संघ राज्य के लिए ठीक नहीं होगा। राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में न्यून भागीदारी अलगाववाद की भावना को बढ़ा सकती है और एक राष्ट्र राज्य की अवधारणा इससे खंडित हो सकती है। ये डर इसलिए भी है कि बीजेपी जैसी कोई पार्टी केवल उत्तर पश्चिमी राज्यों से ही इतनी सीटें जीत लेगी कि सत्ता हासिल करने के लिए उसे दक्षिणी राज्यों की जरूरत ही न पड़े। दूसरे, आबादी के असंतुलन का सामाजिक ,सांस्कृतिक और आर्थिक परिणाम भी होगा। न केवल विभिन्न धार्मिक समुदायों में बल्कि खुद हिंदू समाज में भी।
यहां प्रश्न यह भी है कि लोग कितने बच्चे पैदा करें, या न करें, कैसे करें, इसमें सरकारों को दखल देना चाहिए या नहीं? चीन का उदाहरण सामने है। उसे जनसंख्या और लैंगिक असंतुलन के चलते अपनी 35 साल पुरानी ‘एक परिवार, एक बच्चा’ नीति बदलनी पड़ी और दो बच्चों की अनुमति देनी पड़ी। इसके बाद भी वहां युवा दंपति बच्चे पैदा करने में ज्यादा रूचि नहीं दिखा रहे हैं तो इसके पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारण हैं। भारत में भी स्थिति काफी कुछ वैसी ही बनती जा रही है, क्योंकि अब बच्चा पैदा करना केवल मर्दानगी अथवा मातृत्व क्षमता का सवाल भर नहीं है, बच्चों की परवरिश कैसे करें, यह प्रश्न भी पहाड़ जैसा है।
वरिष्ठ संपादक
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( 'सुबह सवेरे' में दि. 23 अक्टूबर 2024 को प्रकाशित)
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