मैंने सादगी के आज भी जेवर नहीं बदले... मेरी सादगी के कायल तेरे स्वर नहीं बदले - जैन
रूपांतरण कक्ष, दशहरा मैदान पर डॉ. सखा पाहवा के आमंत्रण पर गजलांजलि साहित्यिक संस्था की काव्य-संगोष्ठी हुई। डॉ. श्रीकृष्ण जोशी की अध्यक्षता में संगोष्ठी का प्रारंभ करते हुए डॉ. अखिलेश चौरे ने जिंदगी हो गई है दास्तां फसानों की, रहती है तलाश जीने के नये बहानों की... गजल पढ़ी।
सत्यनारायण सत्येन्द्र द्वारा पर्यावरण दिवस पर रची गयी रचना वृक्ष देश की आन हैं, वृक्ष देश की शान हैं, वृक्ष प्रकृति का शृंगार हैं... पढ़ी गई। विनोद काबरा ने गोष्ठी को आध्यात्म की ओर ले जाते हुए अपनी रचना का पाठ- मोक्ष स्वर्ग की चाह नहीं, कर्मयोग से इनकार नहीं, तुम्हारे फैसले पर आखिर निर्भर हुआ हूं मैं... किया।
विजयसिंह साकित ने भी गजल उसने दिल में बसा लिया होता, अपना दिलबर बना लिया होता... पढ़ी। दिलीप जैन ने अपनी छोटी-छोटी रचनाओं से गोष्ठी को नया ही रंग दिया है, मैंने सादगी के आज भी जेवर नहीं बदले, मेरी सादगी के कायल तेरे स्वर नहीं बदले... एक बेहद खूबसूरत रचना भी पढ़ी।
अशोक रक्ताले ने हो रहा बेखुद बड़ा उसको हुआ है क्या, चढ़ गया कोई भयंकर-सा नशा है क्या... पढ़ी। अवधेश वर्मा नीर ने आज का युग हुआ भारत में, आतंरिक सुरक्षा का स्वर्णकाल... रचना पढ़ी। इस अवसर पर डॉ. विजय सुखवानी, शैलेश मिश्र आदि ने भी रचनाओं का पाठ किया। आभार डॉ. अखिलेश चौरे ने किया।