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छत पर पड़ते धूप के कुछ जल्दी ही पांव, घरों में कैद रहता सारा गांव...


उज्जैन | गजलांजलि साहित्यिक संस्था की संगोष्ठी रविवार को दशहरा मैदान स्थित रूपांतरण हॉल में हुई। इसमें अशोक रक्ताले ने ग्रीष्म के दोहे सुनाए। छत पर पड़ते धूप के कुछ जल्दी ही पांव, और घरों में कैद फिर रहता सारा गांव... यह पंक्तियां पढ़कर सभी के मन में गांव की याद को ताजा कर दिया। इससे पूर्व संगोष्ठी का प्रारंभ सरस्वती पूजन से किया गया।

संगोष्ठी में डॉ. विजय सुखवानी ने कई नज्में और एक गजल साथ मेरे रही उम्रभर जिंदगी, आज भी पहेली मगर जिंदगी... पढ़ी। अवधेश वर्मा ने शिक्षण काल में लिखी रचना प्रेम पथ का राही सदा से, छोड़ता आया है यह मही... कविता पढ़ी वहीं शायर आशीष अश्क ने गजल चलती रहती है माला मेरे अंदर, इतना उसके नाम को दुहरा रखा है.. पढ़ी। शायर विजयसिंह साकित ने सीने में आरजू के यूं तार-तार बिखरे, आंधी में ज्यों चमन के सब लालाजार बिखरे... गजल पढ़ी। विनोद काबरा ने मौन में जिह्वा के विचारों का खजाना है... कविता पढ़ी। दिलीप जैन ने रिश्तों पर आधारित व्यंग्य रचना पढ़ी। शायर आरिफ अफजल ने जरूरत क्या जिद्दी हवा से डरने की, हिम्मत रखिए आंधियों से लड़ने की... गजल पढ़ी। डॉ. अखिलेश चौरे ने गजल जख्म उल्फत के तेरे अब हमसे तो सिलते नहीं, दर्द हैं सब दफ्न दिल में अश्क बन ढलते नहीं...सुनाई। अंत में श्रीकृष्ण जोशी ने भी अपनी कविता का पाठ किया।

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