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ऐसे चला भाजपा की प्रचंड जीत का सफर


कीर्ति राणा ,वरिष्ठ पत्रकार

•••• आरएसएस का गोरिल्ला वार, 
•••• मोदी की गारंटी पर अटूट भरोसा 
••••शिव की लाड़ली बहनों का उमड़ा प्यार 
••••इजराइल-हमास की जंग का असर 
कांग्रेस ऐतिहासिक जीत का भ्रम पाले रही, कमलनाथ के तेवर से प्रशासनिक मशीनरी भी दिग्भ्रमित रही, लेकिन मोदी की गारंटी और शिवराजसिंह की लाड़ली बहना का जो प्यार उमड़ा तो कमलनाथ के सपने बदरंग होने के साथ ही दिग्विजय सिंह, सुरेश पचोरी, अरुण यादव, डॉ. गोविंद सिंह, सज्जन वर्मा इन सबकी रणनीति भी ‘धूल का गुबार’ साबित हो गई। पांचवीं बार भाजपा सरकार का मतलब है... अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा का मप्र की 29 सीटों पर जीत को लेकर आश्वस्त होना। कांग्रेस आलाकमान को सीखना चाहिए कि भाजपा कैसे हर वक्त इलेक्शन मोड पर रहती है, मैदानी मुकाबले के लिए आरएसएस जैसा संगठन क्यों खड़ा नहीं कर पाई! अब कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर मंथन जरूरी है और सत्तर पार नेताओं को भाजपा की तरह मार्गदर्शक मंडल में भेजने के साथ युवा खून को कमान सौंपने पर विचार करना चाहिए।

जिन एग्जिट पोल को लेकर ज्यादातर लोग भरोसा करने को तैयार नहीं थे, कांग्रेस जिसे सेट एजेंडा मानते हुए पोलपट्टी कह रही थी... चुनाव परिणामों ने पोल करने वाली एजेंसियों को भी हैरत में डाल दिया है कि ऐसे पोल आॅफ पोल्स की कल्पना तो उन्होंने भी नहीं की थी! हिंदी बेल्ट वाले तीन राज्यों में तो कांग्रेस की हालत सांप सूंघने जैसी हो गई है। इनमें भी मध्यप्रदेश में भाजपा को मिली अपार सफलता ने यह भी साबित कर दिया है कि कांग्रेस कंबल ओढ़कर घी पीने से ही खुद को ‘सुपरमेन’ मान बैठी थी। मोदी की गारंटी का मैजिक, आरएसएस का मैदान पकड़ना... यदि मप्र में प्रचंड जीत का कारण माने जा रहे हैं तो शिवराजसिंह की मिट्टी पकड़ पहलवान जैसी सजगता को भी नकारा नहीं जा सकता। जीजा की जेब से पैसा निकालकर प्यारी बहना को देने वाली जिस लाड़ली बहना योजना को जो नेता अब भी गेम चेंजर मानने को तैयार नहीं, उन्हें इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिए कि केंद्रीय नेतृत्व शिवराजसिंह चौहान की मेहनत को एकदम खारिज कर देगा। सीएम के दावेदारों में फिलहाल तो आमजन की नजर में शिवराज ही योग्यतम सिद्ध हुए हैं। इस चुनाव में तीन मंत्रियों, सात सांसदों को विधानसभा लड़ाकर मोशाजी ने क्षेत्रीय स्तर पर कार्यकर्ताओं को एकजुट करने की जो चाल चली थी, उसने इन नेताओं में अगले सीएम का अतिविश्वास भले ही पैदा कर दिया हो, किंतु लोकसभा चुनाव तक तो केंद्रीय नेतृत्व भी शिवराजसिंह को डिस्टर्ब करना नहीं चाहेगा!

हिंदी बेल्ट वाले इन तीन राज्यों के चुनाव परिणामों ने अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए इंडिया गठबंधन की राह भी कंटीली कर दी है। दक्षिण में भाजपा का जनाधार भले ही मजबूत नहीं हो, किंतु हिंदी बेल्ट में मिली मजबूती राज्यसभा में उसे ताकत देगी।तीनों राज्यों में जिस तरह सनातन की पोथी को सिर पर उठाए भाजपा नेता सभाओं में घूमते रहे... उसने आम मतदाताओं में यह मानसिकता और मजबूत कर दी है कि भाजपा मतलब हिंदू, कांग्रेस मतलब मुसलमान! पनौती जैसे बचकाने बयान देने वाले राहुल गांधी को अब तो चिंतन कर ही लेना चाहिए कि पनौती कौन है! इन परिणामों से उत्साहित भाजपा ने फिलहाल तो मुहब्बत की दुकान के आगे अपनी गुमटी ठोक दी है। 

नगर निगम से लेकर राज्य के चुनाव स्थानीय मुद्दों के आधारित होना चाहिए, लेकिन जब मतदाता ही रेवड़ी लूटना अपना अधिकार मान लें, रोजमर्रा की अपनी समस्याओं को भुलाकर मंदिर दर्शन को ही हर मुश्किल का हल मानने लग जाएं तो आसमान में प्रचंड जीत की आतिशबाजी का उजाला फैलेगा ही!
राजस्थान के उदयपुर में कन्हैयालाल की हत्या, छत्तीसगढ़ में रोजगार के बदले युवाओं को गोबर बिक्री का ऑफर तो मप्र में चुनाव घोषणा के तीन महीने पहले भैया का लाड़ली बहनों के प्रति उमड़ा प्यार अभूतपूर्व सफलता का तो आधार रहा ही है, इजराइल-हमास युद्ध ने भी इन चुनावों पर असर डाला है। महिलाओं के साथ हमास की निर्ममता वाले वॉयरल वीडियो ने भी मोदी की गारंटी पर भरोसा बढ़ाया और कांग्रेस का जाति जनगणना जैसा मुद्दा इसीलिए फैल साबित हुआ है। कर्नाटक, हिमाचल की तरह वह मप्र में भी ओल्ड पेंशन स्कीम को मास्टर स्ट्रोक मान बैठी थी, किंतु कर्मचारियों ने भी उसका साथ नहीं दिया।

कमलनाथ ने कांग्रेस के वचन-पत्र में नारी सम्मान निधि, सस्ता गैस सिलेंडर, बिजली बिल में माफी, किसानों की चिंता जैसी घोषणाएं की थीं... वो सारी योजनाएं अपने नाम कर भाजपा ने चुनाव से पहले ही कांग्रेस को शिकस्त दे दी थी। भाजपा का चुनाव व्यवस्थित था, स्टार प्रचारकों की फौज थी, मोशाजी ने संभागवार सभाएं लीं... इसके विपरीत कांग्रेस का प्रचार बिखरा हुआ, ऊपर से हम तो जीत ही रहे हैं जैसा ‘भ्रम’ भारी पड़ा, ले देकर खरगे, प्रियंका, राहुल स्टार प्रचारक और चुनाव के एक पखवाड़े पहले कुर्ता फाड़ राजनीति से जो रायता फैला, उसने कांग्रेस के लिए गड्ढे गहरे कर दिए। यही कारण रहा कि कांग्रेस प्रत्याशी अपने बलबूते पर ही लड़े, उसके बागी भी सीटों का आंकड़ा घटाने का कारण जरूर बने। यदि ये जीत भी जाते तो 10-12 सीट बढ़ जरूर जाती, लेकिन खिलता तो ‘कमल’ ही। 

मप्र के इस चुनाव में शिवराज मंत्रिमंडल के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा हों या अन्य 12 मंत्री... ये सब अपने कर्मों से हारे हैं! सिंधिया के क्षेत्र में भाजपा की सीटें बढ़ने के साथ 7 सिंधिया समर्थकों की हार खुद उनके लिए आत्ममंथन का विषय है। मालवा-निमाड़ की सीटों ने पिछली बार कांग्रेस की सरकार बनाई थी... इस बार इस क्षेत्र ने भाजपा पर भरोसा कर लिया। तब की अपेक्षा आरएसएस की भूमिका इस बार बेहद खास रही... इसेचुनाव लड़ने की अनिच्छा व्यक्त करने वाले महेंद्र हार्डिया को मिली जीत, पहली बार चुनाव लड़े गोलू शुक्ला को मिली सफलता से  समझा जा सकता है, जबकि यहां माना जा रहा था कि पूर्व मंत्री महेश जोशी के पुत्र दीपक जोशी पिंटू तो जीत जाएंगे, क्योंकि गोलू शुक्ला का टिकट एक पखवाड़े पहले ही फायनल हुआ जबकि पिंटू जोशी स्थानीय होने के साथ ही 10 साल से क्षेत्र में सक्रिय थे। संघ की ताकत न सिर्फ उनकी, वरन अन्य क्षेत्रों में भी मेहनत से जीत का आधार बनी है।

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