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ट्रांसफर तो सरकारी जिंदगी का एक रूटीन है ।


रविवारीय गपशप ——————— सरकारी नौकरी में जो एक चीज़ अनिवार्य है , वो है ट्राँसफ़र ।अफ़सर का स्थानांतरण हुआ कि ढेर सारी प्रतिक्रियाएँ घूमने लगती हैं ।अरे ये कैसे हो गया ? ये ठीक नहीं हुआ , या ये कि अरे वाह जमा लिया बढ़िया ।जबकि असल बात ये है कि ट्रांसफर तो सरकारी जिंदगी का एक रूटीन है , ये और बात है कि ये रूटीन सरकारी नौकरी में असामान्य तरीके से लिया जाता है । दिलचस्प बात यह है कि जिसका ट्रांसफर होता है , उसे छोड़ बाक़ी सबको पता होता है कि वो जा रहा है। वो तो बस बेचारा वही नहीं जानता और जब हो जाता है तो स्थानांतरण के बाद हतप्रभ घूमता है , अरे ये कैसे हो गया ? दूसरा ये कि जिसका भी ट्रांसफर होता है उसका ट्रांसफ़र होते ही , उसके सारे छुपे गुण सामने आ जाते हैं। लोग बातें करते हैं कि अरे इस मामले में बड़ा अच्छा था और उस मामले में बड़ा बढ़िया था, नाराज जरूर होता था पर नुकसान नहीं करता था , न जाने नया आने वाला कैसा हो ? ये जैसा भी था पर ऐसा तो नहीं था ..आदि आदि । तीसरा ये कि नए के आते ही उसके गुण और पुराने के अवगुण तुरंत खुल जाते हैं । अरे भाई ये तो बड़ा तेज़ है , पुराने को तो ये आता ही नहीं था और कैसा बौड़म था भाई देखो इसने तो कसावट ला दी ...आदि आदि । अक्सर नया आने वाला अफसर सोचता है कि पुराना सब कुछ अव्यवस्थित था और उसे ही सब ठीक करना होगा और जाने वाला सोचता है कि इतना देख संभाल के रखा था ना जाने अब कैसा होगा , देखता हूँ अब कैसे चलेगा ? और फिर कुछ दिनों बाद बदलता शायद ही कुछ है लेकिन दोनों अपने अपने-अपने रंग में रंग जाते हैं । उज्जैन में एक कलेक्टर हुआ करते थे विवेक ढाँढ । उनका तबादला हुआ तो लोग धरने पर बैठ गये , कि तबादला निरस्त किया जाए । नतीजतन तबादला निरस्त हो गया पर ढाँढ साहब तो सबके लिए एक जैसे ही थे , थोड़े दिनों बाद वही लोग फिर भोपाल पहुँचे कि तबादला कर दो । आइ.ए.एस. में पदोन्नति के पूर्व इंडक्शन ट्रेनिंग में जब हम मैसूर गए तो एक पुराने मित्र भी मिल गए जो अभी कुछ महीने पहले ही कलेक्टरी से हटे थे , बात चली तो मैंने पूछा “यार आपका ट्रांसफर तो बड़ी जल्दी हो गया क्या कारण था ? “ वो बोले भाई साहब बस तभी से मै भी सोच रहा हूँ पर समझ नहीं आ रहा है ! तभी पास में खड़े जे. के. जैन साहब बोले “भाई मेरे इतने दिन ये सोचने में लगाने के कि हटे कैसे , ये सोचा होता कि अब फिर बनें कैसे तो बेहतर होता ! और हम सब ठहाका मार कर हंस पड़े | स्थानांतरण की इस प्रक्रिया में एक और अवस्था होती है और वो है रिलीव होने और ज्वाइन करने के बीच का समय । कलेक्टर राजगढ़ से जब मैं हटा तो एक विवाह समारोह में शिरकत करने भोपाल आया । शादी नूर-उस-सबा में थी , तो सोचा यहीं रुक जाते हैं | होटल पहुचने पर रिसेप्शन पर बैठे बन्दे ने कमरा तो दे दिया , पर कहने लगा सर परिचय पत्र दे दें | मैं सोचने लगा इसे क्या कहूँ , आई.डी. कार्ड पर लिखा है "कलेक्टर राजगढ़" जो अब मैं हूँ नहीं , जो बनने वाला जो हूँ , वो तब तक नहीं हो सकता जब तक ज्वाइन न कर लूँ । मैंने उसे पुराना आइ. डी. कार्ड देते हुए कहा कि भाई अभी मैं एक आत्मा हूँ , पुरानी देह छोड़ दी है , नया शरीर मिलना बाकी है , फ़िलहाल ये पुराने शरीर का फ़ोटो ले लो । एक शेर के साथ समाप्ति “कल तक रुके थे यहाँ , आज फिर सफर में हैं । खानाबदोश जिंदगी में ठौर हैं कई तुम चल सको तो साथ मेरे चलो हमनशीं , फ़िक्रे जहाँ में मुश्किलों के दौर हैं कई ॥” ......000........

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