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दो पत्रकारों को शांति का नोबेल : देश के पत्रकारों को लेनी चाहिए सीख !


 डॉ. चन्दर सोनाने

               वर्ष 2021 का शांति का नोबेल पुरस्कार इस बार दो पत्रकारों को संयुक्त रूप से दिया गया है । नोबेल समिति ने रूस के पत्रकार 59 वर्षीय दिमित्री मुरातोव और फिलीपींस की 58 वर्षीय मारिया रेसा को इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को देने की घोषणा की । इस पुरस्कार के लिए 329 दावेदार थे । आठ दशक से भी अधिक समय के लंबे इंतजार के बाद किन्हीं  पत्रकारों को यह पुरस्कार मिला है ।
               इस बार नोबेल समिति ने जान की बाजी लगाकर अभिव्यक्ति की आजादी , गलत सूचनाओं से मुकाबला और निरंकुश सरकारों को जिम्मेदार ठहराने के लिए संघर्ष कर रहे इन दो पत्रकारों को शांति के पुरस्कार के लिए चुना है । नोबेल समिति ने इस संबंध में कहा है कि " इन दोनों ने बोलने की आजादी की रक्षा की पुरजोर कोशिश की है । यह लोकतंत्र और शांति के लिए जरूरी शर्त है । ये दुनिया के उन  पत्रकारों के प्रतिनिधि हैं , जो अपनी - अपनी जगहों पर विपरीत हालातों में संघर्ष करते हुए लोकतंत्र और प्रेस की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे  हैं । " कुल 86 साल बाद किसी पत्रकार को शांति का नोबेल पुरस्कार मिला है । इससे पहले 1935 में जर्मन पत्रकार कार्ल वॉन ओस्सिएट्जकी को पुनःशस्त्रीकरण के खुलासे के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था ।
                126 साल के इतिहास में मारिया 18 वीं महिला है , जिन्हें शांति का पुरस्कार मिला है । मारिया फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुर्तेते को उनके फैसलों और गलत  सूचनाओं के लिए लगातार  जिम्मेदार ठहराती रही हैं । उन्हें 2018 में टाइम मैग्जीन ने ' पर्सन ऑफ द ईयर ' नामित किया था ।  मारिया ने 2012 में पोर्टल शुरू किया और दुर्तेते की सरकार से लोहा लेती रहीं । अपने पोर्टल के जरिए वे लगातार सरकारी भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करती रहीं। मारिया और उनकी टीम ने देश के बड़े नेताओं की आर्थिक हितों के संभावित संघर्षों का लगातार खुलासा किया । इसने दुर्तेते सरकार के नशे के खिलाफ कार्रवाई के अभियान के कई सच उजागर किए । मारिया ने देश में तानाशाही और सत्ता के दुरुपयोग का लगातार खुलासा किया । वे 'नशे के विरुद्ध युद्ध' में मानवाधिकार हनन और हत्याओं को सामने लाई । उन्होंने बताया कि सरकार ने सोशल मीडिया से फर्जी खबरें फैलाई , विरोधियों को परेशान किया और सार्वजनिक विमर्श अपने मुताबिक करने के लिए खेल किया । उनका कहना है कि पत्रकारिता कभी उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही , जितनी आज है । 
                दूसरी ओर , दिमित्री 1993 में स्थापित स्वतंत्र समाचार पत्र नोवाया गजेटा के संस्थापकों में से एक हैं । सरकारी उत्पीड़न , धमकियों , हिंसा और पत्रकारों की हत्याओं के बावजूद दिमित्री 1995 से इस समाचार पत्र के प्रधान संपादक हैं   और लगातार सच उजागर करते रहे हैं । दिमित्री के अखबार नोवाया गजेटा के अब तक छह पत्रकारों की हत्या हो चुकी है । इस अखबार की पेशेवर प्रतिबद्धता और ईमानदारी ऐसी है कि वह रूस में सूचना का भरोसेमंद जरिया है । दिमित्री के बारे में नोबेल समिति कहती है कि 28 साल में छह पत्रकारों की हत्या और धमकियों के बावजूद दिमित्री ने अपने अखबार की स्वतंत्र नीति छोड़ने से इनकार कर दिया । उन्होंने पत्रकारिता के पेशेवर और नैतिक मानकों का पालन करते हुए अपने पत्रकारों के कुछ भी लिख सकने के अधिकार का हमेशा बचाव किया। 
                उक्त दोनों पत्रकारों के जनहित में किये गए साहसिक कार्यों को मान्यता देते हुए नोबेल समिति ने इस वर्ष का शांति का नोबेल पुरस्कार देते हुए दुनिया के उन सब पत्रकारों का अभिनंदन किया है जो अपनी जान जोखिम में डाल कर अपने पाठकों को सही खबर देते रहे हैं । इन दोनों पत्रकारों का अभिनन्दन और सलाम ! इस मौके पर हम अपने देश के पत्रकारों की वर्तमान पत्रकारिता धर्म की बात करें तो कुछ अपवादों को छोड़कर हमें शर्मिंदा ही होना पड़ेगा ! देश में आपातकाल के समय यह जुमला खूब चर्चा में रहा था कि             " पत्रकारों को जब झुकने के लिए कहा तो वे रेंगने लगे " आज की हालत भी लगभग वैसी ही है। उस समय घोषित आपातकाल था और इस समय लगभग अघोषित आपातकाल है ! मोदी सरकार के खिलाफ सोशल मीडिया पर हो या प्रिंट मीडिया या इलेट्रॉनिक मीडिया पर कुछ भी लिखने पर तुरन्त मोदी अंध भक्तों द्वारा देशद्रोही करार दे दिए जाते हैं ! उन्होंने एक नई परिभाषा ही गढ़ दी है ! वह यह कि जो भी मोदी जी के साथ हैं ,  वे सब देशभक्त ! और जो भी विरोधी विचारधारा के हैं , वे सब देशद्रोही ! इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा !  किन्तु देश में यही हो रहा है ! यही नहीं उनके द्वारा संबंधित के खिलाफ तुरंत ही राजद्रोह का मामला भी दर्ज करा दिया जाता है ! और पुलिस भी सभी नियमों को बलाए ताक में रखते हुए तुरंत की उसके विरुद्ध मामला दर्ज कर भी लेती है और उसे जेल में डाल देती है ! ऐसे प्रकरण देश में दुर्भाग्य से एक नहीं दर्जनों सबके सामने हैं ! तो क्या अब अपने देश के पत्रकार गोदी मीडिया की अपनी छवि से बाहर आएगी ? उक्त दो पत्रकारों को मिले नोबेल पुरस्कार से क्या ऐसे पत्रकारों की आत्मा उन्हें झकझोड़ेगी ? क्या वे अपने स्वतंत्र पत्रकारिता के धर्म को वापस अपनाएंगे ? ऐसा भी नहीं है कि देश के सभी पत्रकारों ने अपनी आत्मा गिरवी रख दी है ! अभी भी ऐसे माहौल में भी उम्मीद की किरण बाकी है ! देश में अभी भी पत्रकारिता को धर्म मानते हुए अपने नैतिक कर्तव्यों और पत्रकारिता के मूल्यों की पत्रकारिता करने वाले बाकी हैं ! उन्हीं से उम्मीद बाकी है ! भले ही वे संख्या में कम हो । वे अपवाद स्वरूप ही हो ! किन्तु उम्मीद बाकी है ! बस देश के बाकी पत्रकारों को भी नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उक्त दोनों पत्रकारों से सीखने की है जरूरत ! ! !
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