127 वां संविधान संशोधन : गुड़ खाए गुलगुले से परहेज करें !
डॉ. चन्दर सोनाने
राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने लोकसभा और राज्यसभा से पारित 127 वें संविधान संशोधन विधेयक पर 18 अगस्त को हस्ताक्षर कर मंजूरी दे दी । इस प्रकार अब शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान कर सूची बनाने का अधिकार देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कानूनी रूप से मिल गया है । केंद्र सरकार ने इस विधेयक के द्वारा राज्यों को अधिकार देकर बड़ी ही चालाकी से अपने दायित्वों से मुँह मोड़ लिया है ! इस विधेयक द्वारा राज्य तो अपने - अपने राज्यों में पिछड़े वर्गों की सूची बनाएंगे , किन्तु केंद्र सरकार पिछड़े वर्गों की सूची नहीं बनाएँगी ! यह सर्वविदित सत्य है कि अनुसूचित जाति , जनजाति और पिछड़े वर्गों की पहचान कर केंद्र सरकार अपनी सूची बनाता है । इसी प्रकार राज्य भी अपने - अपने राज्यों की सूची बनाते हैं । केंद्र सरकार अपनी सूची और राज्य सरकार अपनी सूची के आधार पर ही इन वर्गों के आरक्षण की घोषणा करता है !
मोदी सरकार अपनी सरकार को पिछले कुछ सालों से सुनिश्चित तरीके से पिछड़े वर्गों की हितेषी सिद्ध करने में लगी हुई है । इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण भी है । वर्ष 2014 और 2019 में भाजपा की ऐतिहासिक जीत मिलने में पिछड़े वर्गों का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है । भाजपा जब भी मौका मिलता है , तब वह यह बताने में हमेशा आगे रहती है कि आज देश के प्रधानमंत्री पद पर पिछड़े वर्ग का ही एक व्यक्ति श्री नरेन्द्र मोदी बैठा हुआ है ! अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अयोध्या में राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो गया है । और जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद मोदी सरकार के पास अब हाल फिलहाल कोई विशेष मुद्दा बचा नहीं है , जिस पर मतदाताओं को आसानी से आकर्षित कर सकें ! इसलिए सोची विचारी रणनीति के तहत भाजपा पिछड़े वर्गों का सबसे बड़ा हितैषी बनने की राह पर चल पड़ा है ! उसे लगता है कि अब आगामी 2024 के लोकसभा चुनावों की वैतरणी पिछड़े वर्गों के सहारे ही पार की आ सकती है । किंतु भाजपा की राह इतनी आसान नहीं है । मंडल आयोग की सिफारिशों को मानने के बाद देश की राजनीति में तेजी से परिवर्तन हुए और राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ । सपा ने उत्तर प्रदेश और आरजेडी एवं जेडीयू ने बिहार में अपनी जड़ें जमा ली । इन सभी दलों ने पिछड़े वर्गों की समस्याओं को मजबूती के साथ उठाया और उनका समर्थन पाने में सफल भी हुए । वास्तव में पिछड़े वर्गों के मतदाता ही क्षेत्रीय दलों के खास समर्थक बन गए । ये ही अब इन दलों की सबसे बड़ी ताकत भी है ।
मोदी सरकार ने संविधान संशोधन विधेयक के द्वारा राज्यों को पिछड़े वर्गों की सूची बनाने का वैधानिक अधिकार भले ही दे दिया हो , किन्तु राज्यों के पास पिछड़े वर्गों की संख्या की कोई भी आधिकारिक रूप से जानकारी नहीं होने के कारण वे ठोस रूप से कुछ कर पाने की स्थिति में कदापि नहीं है ! केंद्र सरकार ने इस संविधान संशोधन के पारित होने के साथ ही यह भी एलान कर दिया है कि आगामी जनगणना जातिवार नहीं की जाएगी ! केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्री श्री वीरेंद्र कुमार ने एक बार फिर से यह स्पष्ट कर दिया है कि " जनगणना में केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की ही गणना जातिवार की जाती है । भारत सरकार ने स्वतंत्रता के बाद एक नीति के रूप में अनुसूचित जाति और जनजाति को छोड़कर जाति की गणना नहीं कराने का निर्णय लिया है । केंद्र सरकार जाति के आधार पर जनगणना नहीं कराएगी । " इसे आप क्या कहेंगे ? एक पुरानी कहावत याद आ रही है ' गुड़ खाए गुलगुले से परहेज करें ' !
अब यहाँ सहज ही यह सवाल उठता है कि भाजपा को पहले की तुलना में पिछले दो लोकसभा चुनावों में पिछड़े वर्गों का उल्लेखनीय समर्थन मिलने के बावजूद वह आगामी जनगणना जातिवार कराने के लिए क्यों नहीं तैयार है ? क्या वह उसके परिणाम से डर रही है ? सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज ( सीएडीएस ) के प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार श्री संजय कुमार का यह कहना है कि भाजपा का जातिगत गणना से कतराने का मुख्य कारण यह डर है कि अगर जातिगत गणना हो जाती है तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में ओबीसी कोटे में बदलाव के लिए केंद्र सरकार पर दबाव डालने का मौका मिल जाएगा । बहुत हद तक संभव है कि ओबीसी की संख्या उन्हें केंद्र की नौकरियों में मिल रहे मौजूदा आरक्षण से कहीं अधिक हो सकती है । यह मंडल - 2 जैसी स्थिति उत्पन्न कर सकती है और भाजपा को चुनौती देने का एजेंडा तलाश रही क्षेत्रीय दलों को नया जीवन भी । यह डर भी है कि ओबीसी की संख्या भानुमति का पिटारा खोल सकती है , जिसे संभालना मुश्किल हो जाएगा । ऐसा लगता है कि श्री संजय कुमार की उक्त बातों में दम भी है । आपको क्या लगता है ? जरा आप भी इस बारे में सोचिए !
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