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कोरोना काल में हुए शिक्षा के नुकसान की भरपाई करना है मुश्किल...


रविवारीय गपशप
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♦ आनंद शर्मा

                कोरोना महामारी के कारण जिस एक चीज़ ने समाज को सबसे ज़्यादा परेशान किया है , वो है बच्चों के स्कूल और कालेज का बन्द होना | छोटे से लेकर बड़े बच्चों तक सब का ये ऐसा नुक़सान है जिसकी भरपाई होना सम्भव नहीं है | छोटे बच्चों के लिए बड़े अरमान से ख़रीदे गए स्कूल बेग , छोटे छोटे टिफ़िन , रंग बिरंगे बस्ते सब अलमारियों में क़ैद रह गए हैं और साथ ही क़ैद रह गए हैं बच्चों और उनकी मम्मियों के ख़्वाब | बड़े बच्चे , ख़ासकर वे , जो इसी समय कालेज जाने के अरमान संजो कर जींस और टी शर्ट पहनने , मिडी और स्कर्ट पहनने के सपने पाले हुए थे , बरमूडा और बनियान पहने ऑनलाइन क्लास पढ़ रहे हैं | पढ़ाई और स्कूल कालेज की मस्ती के साथ , परीक्षा की होने वाली धुकधुकी भी नदारद है | अब तो ओपन बुक एग्ज़ाम का समय आ गया है | प्रातः काल में हमारे साथ घूमने वाले प्रोफ़ेसर उमेश श्रीवास्तव जी ने बताया की अब तो घर में आए प्रश्नपत्रों के जबाबों से कापी भरो और कालेज में जमा कर दो बस यही परीक्षा का रिवाज़ रह गया है | | ओपन बुक के इस फ़ार्मूले ने हमारी भी कुछ पुरानी यादें ताज़ा कर दीं हैं , तो इस रविवार इसकी ही चर्चा करते हैं |
                      स्कूल से पढ़ाई की समाप्ति के बाद मैंने जबलपुर के जी एस कालेज में दाख़िला लिया जो वाणिज्य विषय पढ़ने वालों के लिए उन दिनों सबसे अच्छा कालेज माना जाता था | कालेज आने पर ऐसा लगता है जैसे पंछी अचानक आज़ाद हो गया है , और हम तो कटनी शहर से जबलपुर पढ़ने आया करते थे तो आज़ादी का आलम ही दूसरा था | जब परीक्षाएँ हुईं तो मुझे ये देख कर बड़ा अजीब लगा की परीक्षा में लोग खुले आम नक़ल कर रहे हैं , खुलेआम यानी नक़ल पर्ची से नहीं बल्कि ओपन बुक से | डिसिलवा स्कूल में पढ़े और माडल हाई स्कूल में परीक्षा दिए छात्र के लिए तो ये आठवाँ अजूबा था | जैसे तैसे परीक्षा सम्पन्न हुई और रिज़ल्ट आया तो मुझे कुल मिलाकर उनसठ प्रतिशत अंक मिले थे यानी मेरी प्रथम श्रेणी एक प्रतिशत से चूक गयी थी | मुझे बड़ा बुरा लगा , सोचा नक़ल ही मार लेते तो ये कसर पूरी हो जाती | अगले बरस कसर पूरी करने का दृढ़ निश्चय कर जब परीक्षा में किताब लेकर गये तो कक्षा में घुसते साथ ही पकड़ लिए गए | सुरजीत सिंह नए नए एस पी बन कर आए थे और जबलपुर विश्वविद्यालय में नक़ल की कुरीति को रोकने का अभियान ज़िला प्रशासन और यूनिवर्सिटी ने सामूहिक रूप से चलाया था | इस प्रकार “ओपन बुक एग्ज़ाम” का थ्रिल शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गया | बड़ी मुश्किल से परीक्षाएँ दीं , साल भर ओपन बुक के सपनीले भरम ने पढ़ने तो दिया नहीं था तो जैसे तैसे ले दे कर पचास प्रतिशत प्राप्तांक आ पाए और अगले वर्ष फिर हाड़ तोड़ मेहनत करनी पड़ी |
                             इसके बाद दूसरी बार ओपन बुक का तजुर्बा हुआ नौकरी लगने के बाद | डिप्टी कलेक्टर बनने के बाद भी हमें कुछ परीक्षाएँ पास करनी होती थीं | लॉ ग्रेजुएट होने के नाते इनमे से सिविल प्रोसिजर कोड और सी आर पी सी की परीक्षा पास करने से तो मुझे छूट मिल गयी पर वित्त संहिता और राजस्व विषय की विभागीय परीक्षा पास करना आवश्यक था | राजस्व विषय की परीक्षा का एक पर्चा ओपन बुक एग्ज़ाम था | राजनांदगाँव ज़िले के प्रशिक्षु अधिकारी होने के नाते मुझे संभागीय मुख्यालय रायपुर में परीक्षा देने जाना होता था और अभी की तरह तब भी कमिश्नर कार्यालय ही इन परीक्षाओं को आयोजित करवाया करता था | बाक़ी विषयों की तैय्यारी तो मैंने कर रखी थी पर ओपन बुक एग्जामिनेशन की तैय्यारी क्या करना सोच कर किताबों का बण्डल बांध कर ले आए थे | ओपन बुक परीक्षा का नम्बर आया तो किताबों की गठरी लेकर परीक्षा हाल में पहुँच गये | उस दिन परीक्षक के रूप में एल एन सूर्यवंशी जी की ड्यूटी थी जो तब शायद उपायुक्त राजस्व हुआ करते थे | परीक्षा प्रारम्भ हुए कुछ ही क्षण हुए थे की वे कमरे में आये और सबकी किताबें ज़ब्त करने का हुकुम सुना दिया | हम सब हैरान उन्हें समझाने लगे की साहब ये तो पेपर ही विथ बुक्स है तो किताबें क्यों ज़ब्त कर रहे हैं | नियम क़ायदे को महीन छानने वाले सूर्यवंशी जी बोले , विथ बुक्स केवल “ बेयर ऐक्ट्स” की अनुमति है , आप सब तो ऐसी किताबें लेकर बैठे हैं जिनमें बक़ायदा क़ानून की व्याख्या भी है तो ये तो अनुमत नहीं है | हम सब सर पकड़ के बैठ गए , परीक्षा हॉल में परीक्षक से क्या बहस करते | बस इतनी मेहरबानी की गयी कि कमिश्नर कार्यालय से विभिन्न विषयों की निखालिस क़ानून की किताबें ला कर रख दी गयीं | वो तो भला हो , भाग्य अच्छा था जो ट्रेनिंग के दौरान इन सब किताबों को मैं थोड़ा बहुत पढ़ता रहा था , सो जैसे तैसे बेयर एक्ट पढ़कर ही परीक्षा दे दी और ग़नीमत कि इस पर्चे में उच्च श्रेणी से उत्तीर्णता हासिल भी हो गयी |

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