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प्रधानमंत्री जी , किसानों की मन की बात भी सुनें !


डॉ. चन्दर सोनाने
                 और 3 दिसंबर को भी सरकार एवं किसानों की चौथे दौर की बातचीत बेनतीजा रही । सरकार किसानों की मन की बात अभी भी समझ नहीं पा रही है । समझती तो कड़ाके की ठंड में सड़क पर खुले आसमान के नीचे गत 26 नवंबर से यानी आठ दिनों से हजारों की संख्या में बैठे किसानों की बातें मान ली जाती। प्रधानमंत्री जी हर महीने अपने मन की बात देशवासियों को सुनाते हैं । कभी - कभी उन्हें किसानों की भी मन की बात को सुनना चाहिए...
किसानों को अन्नदाता कहा जाता है । उनके बारे में बड़ी - बड़ी बातें कही जाती है , किन्तु जब वे ही अपनी परेशानियों को सुनाने आते हैं तो उन्हें अनसुना कर दिया जाता है । ऐसा क्यों होता है ? क्योंकि सरकार किसानों की मन की बात सुनाती ही नहीं है ! और जब कभी सुनती भी है तो गुनती नहीं है । इसी कारण पंजाब और हरियाणा के हजारों किसान अपनी बात कहने और सुनाने को दिल्ली बार्डर पर आ डटे हैं । किंतु सरकार तो सरकार है । वह अपने आलीशान एयर कंडीशनर कक्ष से बाहर आकर इस ठण्ड में किसानों से मिलने कैसे आती ? किसान तो उनके पास दिल्ली ही आना चाहते थे ,  किंतु सरकार ने अपनी सारी शक्ति लगा दी । सड़क को खोद दिया । कड़ी ठण्ड में उन पर ठंडे पानी की तेज बौछारें की गई। और दिल्ली बार्डर पर बैरिकेड लगाकर उन्हें जबरन रोक दिया गया । जैसे वे आतंकवादी हो जिनके दिल्ली आ जाने से आसमान टूट पड़ता ! तो वे तो ठहरे ठण्ड, गर्मी और बारिश में कड़ी मेहनत करने वाले किसान ! सो वे वहीं दिल्ली की कुंडली बार्डर पर ही धरने पर बैठ गए ।  और पिछले आठ दिनों से बैठें हैं।वे साफ कहते हैं हम अपने साथ चार महीने का राशन पानी लेकर आये हैं !
               तो किसानों की मांगें है क्या ? वे सिर्फ ये चाहते हैं कि सरकार किसानों के लिए जो तीन कानून लाई है वे किसानों के हितों की नहीं होकर बड़े पूंजीपतियों के हितों की है । इसलिए इन्हें सरकार वापस लें । वे यह भी कहते हैं कि यदि तीनों कानूनों को सरकार वापस नही लेती है तो उसमें दो बातें जोड़ दी जाए । उन दो बातों में पहली है , देश भर में किसानों की हितों के लिए पिछले अनेक वर्षों से खड़ी कृषि उपज मंडियों को समाप्त नहीं किया जाएगा । और दूसरी महत्वपूर्ण बात , मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल लेने की अनिवार्यता खत्म नहीं हो । बस यही तो कहते हैं किसान ! इसमें  क्या बुराई  है ? और क्या गलत है ? 
                 किसानों का तो यह भी कहना है कि यदि इन कानूनों के माध्यम से बड़े पूंजीपतियों को जोड़ा भी जा रहा है तो उन्हें भी न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे फसल लेने से रोका जाए । यानी जैसे किसान मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अपनी फसल बेचता है , वैसे ही बड़े पूंजीपतियों की मंडियों में भी यह अनिवार्य कर दिया जाए । तब किसान के सामने विकल्प रहेगा कि वह जहाँ चाहे अपनी फसल बेच सके ।
किन्तु सरकार के नुमाइंदे मौखिक रूप से तो इस बात को मानते हैं किंतु न तो किसानों को लिख कर देना चाहते हैं और न ही नये तीन कानूनों में इसे शामिल करने के लिए तैयार हो रहे हैं । इसका साफ मतलब है कि उनकी बात में खोट है । यदि नहीं है तो भई लिख कर दे दो और उसे कानून में शालीन कर दो । बस ।
                 और सरकार यही नहीं कर रही है। तो किसान भी बैठे हुए हैं । उन्होंने भी ठान ली है कि वे यहाँ से अपनी मांगे मनवा कर ही जायेंगे , चाहे जितना समय लगे । मजेदार बात तो यह है कि दो माह पहले की किसानों ने अपने आंदोलन की घोषणा कर दी थी , लेकिन सरकार के कानों पर जूँ नहीं रेंगी। पिछले करीब पचास सालों से भाजपा की सहयोगी दल रहे अकाली दल ने भी तीन नये कानून के विरोध में सरकार को चेताया , किन्तु सरकार ने उनकी नहीं सुनी । तब अकाली दल ने अपने दल से केंद्रीय मंत्री बनी हरसिमरत कौर से  त्यागपत्र दिला दिया , तब भी सरकार को सुध नहीं आई । और अब किसान हजारों की तादात में कड़कड़ाती ठण्ड में भी सड़क पर आ बैठे तो सरकार को समझ आई ! किन्तु अभी भी सरकार किसानों की मन की बात पूरी तरह से समझ नहीं रही है और सरकार के प्रतिनिधि मंत्रीगण बस चर्चा ही कर रहे हैं । पता नहीं सरकार को कब समझ आयेगी और वे कब किसानों की शंका एवं शिकायतों को समझ कर उनका ठोस निराकरण करेंगी ? तब तक हम करते हैं इंतजार ! और आशा करते हैं कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी शीघ्र किसानों की मन की बात को समझेंगे और अन्नदाता को सही मायने में अन्नदाता समझ कर उनकी समस्याओं को स्थायी रूप से दूर करेंगे ! नही तो हजारों किसान धरने पर बैठे हैं ही ! ! !

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