तीन कृषि कानूनों में संशोधन की राजनीति एवं विश्लेषण
डॉ. हीरालाल त्रिवेदी सेवानिवृत्त आईएएस एवं पूर्व सूचना आयुक्त ( लेखक स्वयं एक किसान है )
भारत एक कृषि अर्थव्यवस्था वाला देश है। इस देश की अर्थव्यवस्था कृषि क्षेत्र के उत्पादन एवं उनकी कीमतों पर निर्भर है। हम यह कह सकते हैं कि इस देश की कृषि व्यवस्था ही इस देश को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाती है। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें वोट की खातिर किसानों को खुश करने के लिए उन्होंने हमेशा कृषि व्यवस्था को अपग्रेड करने के बजाए उस व्यवस्था से छेड़छाड़ ही की है। अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने संसद में कृषि से जुड़े 3 कानूनों में संशोधन किए गए। इनमें सत्ताधारी भाजपा एवं उनके समर्थकों का मत है कि किसान मंडी से बाहर भी अनाज भेज सकेंगे और इस प्रकार उन्हें बिचौलियों के चंगुल से आजादी मिलेगी। उनका यह भी कहना है कि किसान की उत्पादन और मूल्य जोखिम दोनों में उसे राहत मिलेगी। इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) समाप्त नहीं हुआ है यह जारी रहेगा। किसान की फसल बीमा योजना भी जारी रहेगी।
- विपक्षी दल यह भ्रम फैला रहे हैं कि एमएसपी समाप्त होने जा रही है। यह कि किसानों को इन संशोधनों से कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि कारपोरेट जगत को इसका फायदा होगा।
केंद्र सरकार और भाजपा तो अपना छुपा एजेंडा कभी बाहर नहीं बताते, वे केवल लोक लुभावनी बातों का ही प्रचार प्रसार करते हैं; परंतु विपक्ष भी इन संशोधनों की कमियां सामने लाने में और असफल रहा है। ऐसे समय में जनता को इन संशोधनों से होने वाले प्रभाव से संबंधित कुछ तथ्य जानना जरूरी है। - भाजपा के केंद्र में आते ही उन्होंने कृषि उत्पादों के आयात लाइसेंस जारी करना शुरू कर दिया। पाम आयल आयात होने से जो सोयाबीन, सरसों, आदि तिलहन फसलें 2014 के पूर्व के पिछले 5 सालों से जिस भाव पर बिक रही थी उनके भाव अचानक 1000 से 1500 रुपए प्रति कुंटल तक टूट गए और आज भी 2014 के स्तर तक नहीं पहुंच पाए। क्योंकि पाम ऑयल आयात का कार्य भाजपा के निकट के कारपोरेट जगत के कुछ चुनिंदा व्यापारी करते हैं। जब भी बड़े दाल मिलो एवं दाल के बड़े व्यापारियों को दालों के भाव थोड़े भी ज्यादा लगे तब मसूर, चना, मटर आदि दलहन फसलों के केंद्र सरकार ने आयात लाइसेंस दिए। यहां तक की मक्का का उपयोग करने वाली फैक्ट्रियों की पूर्ति के लिए बड़े कारपोरेट घरानों को मक्का आयात के लाइसेंस भी दे दिए, भले ही इससे आदिवासी किसान को मक्का का मूल्य नहीं मिल रहा हो। आज मक्का भी करीब 500 से ₹1000 कुंटल घाटे के साथ 1500 के भीतर बिक रही है। डालर चना के भी आयात लाइसेंस दिए जा रहे हैं। इस प्रकार इन कृषि उत्पाद के आयात से किसानों को पिछले 6 साल से उनकी फसलों का सही मूल्य नहीं मिल रहा है।
- कृषि आयात को देश में पैदा होने वाली फसलों के समर्थन मूल्य या लागत मूल्य से भी नहीं जोड़ा गया है। यही कारण है कि जब जब समर्थन मूल्य बढ़ता है किसान की फसल मार्केट में एकदम उसके निचले भाव में चली जाती है। वर्तमान में संसद में किए गए इन संशोधनों में भी इस समस्या का कोई निदान नहीं किया गया है। किसान को कहीं भी बेचने की सुविधा देने मात्र से उसे उसकी फसल का पूरा मूल्य मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है। स्पष्ट है इसका फायदा कारपोरेट जगत को ही मिलेगा।
- दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सरकार जिन बिचौलियों की बात कर रही है वे छोटे एवं मध्यम व्यापारी हैं जो फसलों के राष्ट्रीय स्तर के भाव के आधार पर किसानों की फसलों को देश की छोटी-छोटी मंडियों से क्रय कर कुछ अपना मार्जिन कमा कर बड़ी मंडियों में, प्रोसेस उद्योगों में या निर्यात में अथवा बड़े कारपोरेट जगत तक माल पहुंचाते हैं। इस कार्य में भी लाखों लोग लगे हुए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए इनका रोजगार से लगे रहना भी आवश्यक है। इस अधिनियम से इन मध्यम और छोटे व्यापारियों का धीरे-धीरे रोजगार छिनेगा एवं इनकी आर्थिक स्थिति खराब होगी। इसके पूर्व भी चाहे नोटबंदी हो, जीएसटी हो, टैक्स कानूनों में सुधार हो या अन्य कोई कदम उठाए गए हो इन सब से देश के मध्यम एवं छोटे व्यापारियों तथा मध्यमवर्ग को ही नुकसान पहुंचा है, कारपोरेट जगत या बड़े व्यापारियों को नहीं। जबकि केंद्र सरकार की एवं राज्य सरकार की मुफ्त में लुटाने की बहुत सारी योजनाओं का भार भी यही वर्ग उठाता है ।
- इसे एक उदाहरण से समझिए। देश में खाद्य तेल आवश्यक खपत है। यदि कुछ कारपोरेट घराने सोयाबीन की खरीदी करें कुछ सरसों की करें और उन्हें अपने हिसाब से अपने भाव पर मूवमेंट करें तब ये बड़े कारपोरेट घराने तेल की कीमत अपने हिसाब से नियंत्रित कर सकेंगे। अर्थात भारत की कृषि व्यवस्था में भी अब पूंजीवाद का प्रवेश होगा। आगे चलकर कारपोरेट घराने अपने हिसाब से बीजों का चयन करेंगे एवं अपने हिसाब से फसलें की बोवनी कराएंगे। अपने हिसाब से फसलों के भाव नियंत्रित करेंगे अपने हिसाब से ही फसलों का आयात निर्यात प्रभावित करेंगे। इस प्रकार देश में फसलों का पैटर्न चेंज होगा। देश के बड़े शिक्षित एवं सक्षम किसान तो इसका लाभ उठा पाएंगे परन्तु ज्यादातर छोटे एवं सीमांत किसानों ( जो लगभग 75 प्रतिशत हैं ) के लिए खेती दिनों दिन घाटे का सौदा होगी। मैं आज यह भविष्यवाणी कर सकता हूं कि अगले कुछ सालों में खेती बड़े कारपोरेट घरानों की गुलाम होगी और 75 प्रतिशत किसानों की हालत आज से भी ज्यादा बदतर होगी। हमारे देश का किसान आज भी भगवान भरोसे और आगे भी भगवान भरोसे ही रहेगा।