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प्रजा कोरोना महामारी के कारण राजा महाकाल की शाही सवारी के दर्शन नहीं कर सकेगी


द्वारकाधीश चौधरी

               उज्जैन। किसी देश का राजा अगर अपनी प्रजा की परवाह करने लगे तो वहां की प्रजा कभी दुःखित नहीं रह सकती हैं। प्रजा में हिन्दू , मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी धर्म के रहने वाले व्यक्ति होते हैं। वहां कभी अकाल, सूखा, भूखमरी जैसी नौबत नहीं आएंगी। राजाधिराज महाकाल पूरी पृथ्वी के पालक और अपनी प्रजा के रक्षक हैं। राजा जब शहर में अपनी प्रजा को देखने निकलते हैं तो प्रजा राजा के निकलने वाले मार्ग को दुल्हन की तरह सजाती है और उनके स्वागत के लिए पुष्प से पलक-पावड़े बिछा देती हैं तथा उनकी एक झलक देखने को आतुर रहती हैं किंतु कोरोना महामारी के कारण राजा महाकाल की सवारी शहर के प्रमुख मार्गों से नहीं निकलेगी और वह परिवर्तित मार्ग से निकलेगी जिसके कारण आम श्रद्धालुओं और शहर की प्रजा को राजा महाकाल की सवारी के दर्शन नहीं कर सकेंगे।    
                   पौराणिक मान्यता है कि राजा श्री महाकालेश्वर की सवारी सावन भादौ माह, कार्तिक माह, दशहरा एवं कृष्ण पक्ष की चौदस को हरिहर मिलन पर निकलती हैं, हरिहर मिलन को सवारी छत्रीचौक स्थित द्वारकाधीश मंदिर में रात्रि बारह बजे पहुंचती हैं, और वहां पर हरि (कृष्ण), हर (महादेव) मिलन होता हैं। राजा महाकालेश्वर की सवारी राजसी ठाट-बांट से निकलती है। पूर्व सिंधिंया राज में जब राजा श्री महाकालेश्वर की सवारी निकलती थी तब प्रत्येक सवारी के साथ प्रशासकीय अधिकारी, कर्मचारी, चपरासी अपनी-अपनी यूनिफार्म में सवारी के साथ पैदल चलते थे, साथ ही प्रत्येक सवारी में पचास से सौ, सफेद घोड़े या काले रंग के होते थे एवं सरकारी बैण्ड अपनी साज सज्जा के साथ होता था, किंतु अब उसमें कमी आई है। पूर्व में सवारी के साथ याने राजा की पालकी के आगे मशालची, ध्वज, चौपदार, नगाड़े एवं छत्र चलता था। किंतु अब आधुनिक युग आने के कारण मशालची, ध्वज नहीं चलते हैं, जबकि ‘ध्वज’ राजा की निशानी है। पहले सवारी का व्यापक स्वरूप नहीं होता था। प्रचार-प्रसार का अभाव था, श्रद्धालुओं की इतनी भीड़ नहीं उमड़ती थी और सीमित साधनों के कारण मात्र राजा की पालकी एवं सवारी मार्ग में अंधेरा होने के कारण गैस बत्ती में सवारी निकलती थी, तब शहर की जनता ही सवारी के दर्शन करती थी।
              ज्योतिर्लिंग श्री महाकाल पृथ्वी लोक के अधिपति अर्थात राजा हैं। देश के बारह ज्योतिर्लिंगां में श्री महाकाल एक मात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग हैं जिसकी प्रतिष्ठा पूरी पृथ्वी के राजा और मृत्यु के देवता श्री महाकाल के रूप में की गई हैं। महाकाल का अर्थ समय और मृत्यु के देवता दोनों रूपों में लिया जाता हैं। कालगणना में शंकु यंत्र का महत्व माना गया हैं। मान्यता है कि पृथ्वी के केन्द्र उज्जैन में उस शंकु यंत्र का स्थान श्री महाकालेश्वर का लिंग हैं। इसी स्थान से पूरी पृथ्वी की कालगणना होती रही। पृथ्वी के नाभी केन्द्र पर स्थित दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है जो दुनिया का एक मात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग माना जाता है। तंत्र की दृष्टि से भी इस दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग का बड़ा महत्व हैं। इन्हीं वैशिष्ठ्यों के कारण श्री महाकाल का वैदिक मंत्रों से जप-अनुष्ठान-अभिषेक करने पर त्वरित और निश्चित फल मिलता हैं। 
               महाकाल का आंगन 33 करोड़ देवता का घर हैं। घरती का प्रत्यक्ष वैकुंठ, साक्षात् शिवलोक, हनुमान, शिव, देवी, नवग्रह, शनि, राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नृसिंह, प्रहलाद, नागचंद्रेश्वर, औकारेंश्वर, गणेश आदि देवताओं के मंदिरों से विभूषित यह परिसर आध्यात्मिक अनुभूति का पावन आंगन हैं। विश्व में संभवतः श्री महाकाल मंदिर अकेला मंदिर है जिसके परिसर में इतने देवताओं के इतने मंदिर हैं। दो किलोमीटर क्षेत्र में फैला परिसर भारत में और किसी ज्योतिर्लिंग का नहीं हैं। 
           भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक उज्जयिनी में हैं। श्री महाकाल की नगरी में महाकाल के अतिरिक्त अनेक शिवलिंग है। एक तीर्थ के रूप में अनेक नगरियों की अपनी-अपनी मान्यता हैं, विश्वास है परंतु उज्जयिनी सहीं मायने में तीर्थों का तीर्थ हैं। महाकालेश्वर भगवान की प्राण प्रतिष्ठा यही हुई हैं। ऐसी भी मान्यता है कि महाप्रलय के बाद मानव सृष्टि का आंरभ इसी पावन भू-भाग से हुआ हैं। महाकाल तीर्थ क्षेत्र को केदारनाथ और काशी से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया हैं। सर्वाधिक पुण्यमय भूमि, पापनाशी, अलौकिक शांति और मनोवांछित फल देने में इस क्षेत्र की महत्ता मान्य हैं। उज्जयिनी धार्मिक, सांस्कृतिक नगरी एक आध्यात्म प्रधान नगर हैं। यहां द्वादश ज्योंतिर्लिंगों में से एक भगवान महाकाल का विशाल मंदिर, सिद्धपीठ हरसिद्धि, सिद्धवट, भर्तृहरि की अलौकिक गुफाएं, मंगलनाथ जहां से कर्क रेखा निकली आदि दर्शनीय स्थल हैं।   
सुदूर गौरवशाली अतीत में उज्जयिनी या अवन्तिका नगरी सांस्कृतिक चरमोत्कर्ष के शिखर पर प्रतिष्ठित थी। यह मालवांचल की चिरविख्यात एवं विशाल आर्यावर्त की पुण्यवर्त की पुण्यप्रदा नगरी ही नहीं गुरू गोरखनाथ उनके शिष्य राजा भर्तृहरी, राजा भोज, गोपीचन्द जैसे तपस्वियों की सिद्ध तपः स्थली भी रही है और तंत्र-साधन की सिद्धपीठ भी। वैष्ण्वों का प्रमुख तीर्थ है यहां पुष्टि मार्ग के प्रवर्तक आचार्य श्री वल्लभजी की 73 वीं बैठक भी हैं यह प्राचीन नगरी अपने आप में इस सौंदर्य को सजाए हुए है जिसने महाकवि कालिदास को पूर्णतः विमोहित कर लिया था। भगवान कृष्ण और सुदामा ने उज्जयिनी में महर्षि सांदिपनी के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण की थी।   
                  उज्जयिनी पांच हजार साल से भी अधिक पुरानी नगरी है। ईसा पूर्व पांचवी-छटी शताब्दी में सोलह जनपदों या राष्ट्रों में से एक अवंति जनपद का उल्लेख है। प्राचीन नाम अवंति, अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, नंदिनी, अमरावती, कनकश्रृंगा, पदमावती, कुमुद्वती, प्रतिकलपा, कुशस्थली और चूड़ामणि हैं। उज्जयिनी का अर्थ है उत्कर्ष के साथ जय घोष करने वाली नगरी तीर्थ भूमि भारत का हृदय स्थल है संसार का नाभि केन्द्र है जहां से कालागणना शुरू होती हैं। बारह ज्योतिंर्लिंगों में श्री महाकालेश्वर ज्यातिर्लिंग का बड़ा महत्व है किसी भी ज्योतिर्लिंग में प्रातः भस्मार्ती नहीं होती है। एक मात्र ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर मंदिर ही हैं जहां प्रातः भस्मार्ती होती है। पूर्व में मुर्दे की ताजी भस्म चड़ती थी किंतु सन् 1978 में मंदिर शासन के अधीन हुआ और उसके पश्चात प्रशासन ने मुर्दे की भस्म को बंद कराकर गाय के उपले की भस्मी तैयार कर प्रातः भस्मी चढाई जाती हैं। प्रातः स्मरणीय भोलेशंकर चौदह ब्रह्माण और मोक्ष के मालिक हैं, इनके प्रातः स्मरण करने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। 
                  भगवान श्री महाकालेश्वर की शाही सवारी निकलने के पूर्व महाकाल मंदिर में अपरान्ह तीन बजे श्री चंद्रमोलेश्वर बाण की पूजा श्री चंद्रमोलेश्वर मुखौटा के सामने रखकर षोडश मंत्रों से पूजा शासकीय पुजारी घनश्याम गुरू के द्वारा की जाती हैं। ध्यान, आव्हान, आसन, पाद्य, स्नान, पंचामृत, चंदन, अक्षत, अबीर, गुलाल, यज्ञोपवित, धूप, दीप, नैवेद्य, आरती, मंत्र, पुष्पांजलि, प्रसाद के साथ चाँदी की बनी हुई श्री चंद्रमोलेश्वर की आकृति में प्रतिष्ठा करा देने के पश्चात मुखौटे को पालकी में विराजमान करके शाही सवारी अपरान्ह चार बजे कड़ाबीन की आवाज एवं चौपदार के द्वारा राजा की सवारी के आगाह के साथ गुदरी, पानदरीबा, कहारवाड़ी होती हुई रामघाट पहुंचती थी, जहां रामघाट स्थित शिप्रा नदी के तट से शिप्रा के अमृतमयी जल से राजा महाकाल की पूजा की जाती है तथा दत्त अखाड़ा घाट से ही पूजा-अर्चना की जाती हैं, पश्चात सवारी दानीगेट, कार्तिक चौक, ढाबा रोड़, टंकी चौक, मिर्जा नईम बेग मार्ग, तेलीवाड़ा, कंठाल सराफा, छत्रीचौक, पटनी बाजार होती हुई महाकाल पहुंचती थी किंतु इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण प्रशासन एवं मंदिर समिति द्वारा जो सवारी 7 किलोमीटर शहर में निकलती थी और वह 2 किलोमीटर लंबी सवारी होती थी लेकिन श्रावण-भादौ मास में जो छह सवारियां निकली है और 17 अगस्त को शाही सवारी भी परिवर्तित मार्ग महाकाल मंदिर से बड़े गणेश, नृसिंह घाट मार्ग होती हुई रामघाट पहुंचेंगी और रामघाट पर पूजा अर्चना के बाद सवारी रामघाट से रामानुजकोट, हरसिद्धि पाल, हरसिद्धि मंदिर होती हुई महाकाल मंदिर पहुंचेगी। गत सवारियों में हरि और हर का मिलन गोपाल मंदिर पर होता था किंतु इस वर्ष सवारी शहर के प्रमुख मार्गों से नहीं निकल रही है, जिसके कारण सवारी हरसिद्धि मंदिर जहां हर और सिद्धि याने महादेव और पार्वतीजी का मिलन होता है। सवारी का हरसिद्धि मंदिर की ओर से शिव के दूल्हे स्वरूप में भव्य स्वागत किया जाता है और महाकाल मंदिर की ओर से माता हरसिद्धि को सुहाग की सामग्री भेंट की जाती है, जो दृश्य आकर्षण का केन्द्र बना रहता है।     
                सोमवार को निकलने वाली शाही सवारी अपरान्ह चार बजे षोडस मंत्रों से पूजा अर्चना के पश्चात राजा श्री चंद्रमोलेश्वर की आकृति में प्रतिष्ठा करा देने के पश्चात मुखौटे को चांदी की पालकी में विराजमान होते हैं, हाथी पर मनमहेश की प्रतिमा, रथ पर सवार गरूड़ की प्रतिमा के ऊपर शिव की तांडव करती प्रतिमा, रथ पर सवार नंदी पर विराजमान उमा महेश की प्रतिमा, रथ पर घटाटोप एवं अहिल्या का मुखौटे जो क्रम वश बढ़ते है वे इस वर्ष सवारी में शामिल नहीं हुए। सवारी के दिन दूर-दराज से लाखों श्रद्धालु अत्यधिक भीड़ के बावजूद पालकी में विराजमान राजाधिराज भगवान श्री महाकालेश्वर की एक झलक देखने को आतुर रहते हैं किंतु इस वर्ष श्रद्धालु और प्रजा राजा के दर्शन नहीं कर सकेंगी। 

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