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छल, कपट और तृष्णाओं का तिरस्कार ही प्रभु मिलन का मार्ग है- पं. शुक्ल


उज्जैन। कृष्ण की बाल लीलाएं अद्भुत थीं, बचपन जिंदगी का सबसे अहमकाल है, बाल्यावस्था में बच्चे भगवान का ही स्वरूप होते हैं, निश्छल, छल कपट तृष्णाओं से परे बच्चों की मुस्कान, संसार के समस्त सुखों से ज्यादा सुकून देती है। मनुष्य को अपने मन की कोतलता और बचपन की सरलता क त्याग बुढ़ापा आने पर भी नहीं करना चाहिये। श्रीकृष्ण ने भी बाल लीलाओं के माध्यम से दुख के सागर को हंसते-हंसते पार करने का संदेश दिया है, आज व्यक्ति मोह की रस्सी से बंधकर जीवन के अंधकार की ओर ले जा रहा है, मोह की यही रस्सी जीवन के आनंद उल्लास का गला घौंट कर मनुष्य को ऐसे अंधेरे कुए में धकेल रही है जहां सिर्फ अंधकार ही अंधकार है। 

सेवाधाम आश्रम में कथा के 5वें दिन भागवताचार्य पं. गोपालकृष्ण शुक्ल ने श्री कृष्ण की जन्म लीलाओं के दर्शन शास्त्र को बताते हुए कहा आज दुख को निमंत्रण देकर बुलाया जा रहा है। कथा में गोवर्धन पर्वत प्रसंग पर आपने कहा कि विलासिता की मृगतृष्णा के आगे गोवर्धन पर्वत भी छोटा हो गया है, आधुनिकता ने मनुष्य को मशीन में बदल दिया है। समस्याएं बड़ी नहीं होती है बल्कि सोच छोटी होती जा रही है। सोचने समझने की क्षमता को लकवा मार गया है। श्रीकृष्ण ने प्रभु स्मरण कर एक अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया। उसी तरह यदि मनुष्य कठिन से कठिन कार्य भी प्रभु स्मरण कर शुरू करें तो मिनटों में हल निकल जाता है। भागवताचार्य ने श्री कृष्ण रूक्मणी विवाह की कथा भी सुनाई, विवाह गीतों पर सेवाधाम के दिव्यांग बच्चों, पुरूष, महिलाओं ने नृत्य किया। श्रीकृष्ण और रूक्मणी का स्वयंवर मंच पर प्रस्तुत किया गया। विवाह प्रसंग पर पं. शुक्ल ने कहा कि यह कोई साधारण विवाह नहीं था बल्कि परमात्मा का विवाह था। आपने कहा कि जब तक व्यक्ति में अहंकार रहता है तब तक आत्मा पवित्र नहीं होती, इसलिए अहंकार का त्याग ही परमात्मा के दर्शन हैं। 

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