राजेश बादल ने बताया- मीडिया को किस तरह की मिल रहीं चुनौतियां, कैसे निकलेगा रास्ता?
लंबे समय तक राज्यसभा टीवी का नेतृत्व करने वाले वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल देश के ऐसे चुनिंदा पत्रकारों में हैं, जिन्हें प्रिंट,टीवी और रेडियो तीनों ही माध्यमों में महारथ हासिल है। देश के कई प्रतिष्ठित और ख्यातनाम संस्थानों के साथ काम कर चुके राजेश बादल इकतालीस साल से अधिक अनुभव रखते हैं। वर्तमान में पत्रकारिता के दौर और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव सहित कई अहम मुद्दों पर उन्होंने समाचार4मीडिया के संपादकीय प्रभारी अभिषेक मेहरोत्रा के सभी सवालों का बेबाकी से जवाब दिया-
2018 के दौर में हिंदी मीडिया संकट में ज्यादा दिख रही है, आप इसे किस तौर पर देखते हैं
2018 के दौर में हिंदी मीडिया के लिए मैं संकट शब्द का इस्तेमाल तो नहीं करुंगा, लेकिन यह एक चुनौती तो है। चुनौती इसलिए क्योंकि मीडिया का बाजार बहुत बड़ा है। हिंदी मीडिया का विस्तार हुआ है, प्रसार हुआ है और कारोबार बढ़ा है, लेकिन इससे जो चुनौतियां पैदा हुई हैं वो कम नहीं हैं और ये संकट न होकर चुनौतियां हैं। चुनौतियां मौजूदा दौर की हैं, जोकि अस्थाई है। मुझे लगता है हम उनसे उबर पाएंगे। यहां जिन चुनौतियों की बात मैं करना चाहता हूं उसमें पहली तो ये है कि हमारे पास संपादकों और पत्रकारों की जो पीढ़ी आ रही है उसमें वैचारिक मज़बूती की कमी है। पेशेवर यानी प्रोफेशनलिज़्म के दबावों के चलते कहीं न कहीं यह रीढ़ कमजोर हो गई है।
आज हिंदी पत्रकारिता को बड़े पैमाने पर रीढ़वान पत्रकार और विचारवान संपादक चाहिए। सोच और विचार करने वाले चिंतक-विचारक चाहिए। अब सवाल है कि अगर मीडिया संस्थान ऐसे संपादक-पत्रकार लाते हैं तो फिर बाजार क्या होगा? जो लोग चैनल-अखबार चला रहे हैं, जो लोग रेडियो चला रहे हैं, जो लोग सोशल मीडिया के नियंता हैं, तो कहीं न कहीं उनके भी तो हित हैं। तो क्या विचार और बाज़ार के बीच टकराव की स्थिति नहीं बनेगी। मगर मेरा कहना है कि विचार भिन्नता की स्थिति तो हमेशा रही है लेकिन हर बार इसका रास्ता भी निकलता रहा है।
मान लीजिए हम बात करें 1960 से 90 के दौर की या फिर नई सदी की बात करें तो कब ऐसा था कि जिसमें किसी अखबार वाले ने धर्मखाते के लिए कोई अखबार निकाला हो, किसी चैनल ने बिना कमाई चाहे चैनल निकाला हो , जिसमें मालिक का कारोबारी हित न हो, कोई रेडियो चैनल ऐसा है क्या जिसमें मुनाफे का इरादा न हो तो ऐसा न कोई चैनल है, न अखबार और न ही कोई रेडियो। क्या ऐसा कभी हो सकता है, कि किसी मीडिया संस्थान में कोई मैनेजमेंट न हो और मैनेजमेंट है तो यक़ीनन उनके अपने हित भी होंगे । कहना ये चाहता हूं कि पहले भी मैनेजमेंट के हित होते थे लेकिन तब मूल्यों, आदर्शों और पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों और उस बाजार की व्यवस्थाओं के बीच एक संतुलन होता था। मेरे विचार से हमने 2004-05 तक शायद इस संतुलन को बनाए रखा है। तमाम दबाब मे भी संतुलन बना रहा है। 2007 में जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मंदी आई थी, तो उस कारण मैंने पहली बार भारत की हिंदी पत्रकारिता को उन चुनौतियों के सामने बिखरते हुए देखा था। अब वो दौर बेहद धीमी गति से ठीक हो रहा है और थोड़ा सा नहीं भी हुआ है, लेकिन जो उसके साइड इफैक्ट हैं, या उनका असर है, वो अब तक बना हुआ है।
पिछले कई वर्षों में कोई भी नया चैनल-अखबार टिक नहीं पाया, अंतत: बंद हो गया। तो क्या मीडिया में नए के लिए स्कोप नही है या फिर जो चुनिंदा 5-10 चैनल-अखबार हैं वहीं चलेंगे। ऐसा क्यों है
दरअसल इसके पीछे दूसरी बात है। भारत में 2001 में पहला चैनल आता है, जो स्वदेशी जमीन से प्रक्षेपित होता है। मुझे याद है कि हम उस चैनल की टीम में थे। जब चैनल शुरू हुआ तो एक साल के अंदर यह घर-घर तक लोकप्रिय हो गया। तब से वह शिखर पर है और कमोबेश अब तक पहले पायदान पर ही है। जहां तक मेरी जानकारी है इस चैनल के लिए जो कर्ज लिया गया था (मेरा मानना है कि मैनेजमेंट इस मामले में बेहतर बता सकता है कि कर्ज कितना था) जो कुछ वर्षों में चुकाया जाना था, लेकिन उसे बहुत ही जल्दी और आसानी से चुका दिया गया था। इसी की देखा-देखी और नए चैनल आ गए। होड़ हुई और 2005 आते-आते पूरी चैनल इंडस्ट्री खड़ी हो गई और वह भी सिर्फ़ पांच साल में। दरअसल, उस दौरान वह पहला चैनल था, माध्यम नया था लेकिन मैनेजमेंट पुराना था और मैनेजमेंट की रगों में मीडिया का खून बह रहा था। मीडिया का कल्चर था उसमें, इसलिए वह टिक पाया। लेकिन देखा-देखी में जो चैनल आए, वो बाजार में टिक नहीं पाए। इसकी वजह है यह कि जैसे लोहे का उद्योग हज़ार साल पुराना है, कपड़ा उद्योग भी बहुत साल पुराना है, यानी कोई इंडस्ट्री खड़ी होती है तो उसे लंबा समय लगता हैं, लेकिन मीडिया सिर्फ चार-पांच साल में इंडस्ट्री बन बैठी। दुनिया में सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाली कोई मीडिया इंडस्ट्री है तो वो भारत की है और अगर हम ये इंडस्ट्री बनाकर बैठे हैं तो इसका अर्थ ये है कि हमने दुनिया को दिखा दिया कि भारत में इतने चैनल, अखबार और रेडियो चल सकते हैं, लेकिन इसके जो आधार, जो जरूरी तत्व होते हैं, हमने उन पर ध्यान नहीं दिया। मैंने पहले भी कहा कि देखा-देखी के आधार पर जो चैनल चले उनके पास वो मीडिया की विरासत नहीं थी। परम्परा नहीं थी जो पहले चैनल (मैं आजतक की बात कर रहा हूं) के पास थी। वह एक मीडिया घराने इंडिया टुडे समूह का था, जो 1975 से चल रहा था। ऐसे ही टाइम्स नाउ अगर टाइम्स नाउ बन पाया तो उसके पीछे टाइम्स ऑफ इंडिया की परम्परा थी। एनडीटीवी की बात करें तो यह अपनी पहचान के साथ चल रहा है और इसके पीछे प्रणॉय रॉय की वह थाती है, वह पूंजी है जो उन्होंने 1985 से 2000 के बीच कमाई है। ठीक है उसके पीछे मीडिया की परम्परा नहीं थी, लेकिन कहीं न कहीं तो वे मीडिया की विरासत की रक्षा तो कर ही रहे थे। जी (Zee) अपने आप में एक समूह है और 1993-94 से चल रहा है, तो मीडिया की पच्चीस साल की परम्परा उनके साथ है । लेकिन 2005 के बाद हम भारत की मीडिया इंडस्ट्री में पाते हैं कि एक दूध बेचने वाला चैनल चला रहा है, कोई बिल्डर है तो वो चैनल चला रहा है, कोई राजनीतिक हितों की ख़ातिर चैनल चला रहा है,कोई अधकचरा धार्मिक चैनल चला रहा है।
इसी परिपेक्ष्य में बाबाओं के भी तो चैनल चल रहे हैं और नए आ भी रहे हैं, तो इसे आप किस नजरिए से देखेंगे
यह हमारा दुर्भाग्य है। मैं धर्म गुरुओं के धर्म के प्रति पूरी आस्था रखता हूं। मैं पूरी तरह से आस्तिक व्यक्ति हूं। लेकिन कहना चाहूंगा कि यह एक कारोबार है, एक इंडस्ट्री है। जब बाबा लोग इस इंडस्ट्री में उतरते हैं तो धार्मिक मूल्यों से, हमारी आस्थाओं से, हमारी आस्तिकताओं से समझौता करते हैं , खिलवाड़ करते हैं। यह बड़ा खतरनाक है, क्योंकि बाबाओं के चैनल में हम लोग धर्म की तमाम सारी बातों को टूटते हुए देखते हैं। मसलन,एक बाबा के चैनल पर बोला जाता है कि अमुक ताबीज लीजिए और इस ताबीज के बांधने से बच्चा या लड़का पैदा हो जाएगा। ये हनुमान जी का ताबीज है, इससे नौकरी लग जाएगी, ये ताबीज है इससे शादी हो जाएगी। ये ग़ैरकानूनी है। 1962 में एक एक्ट बना था और यह उस एक्ट के खिलाफ है। हमारे 2018 की पढ़ी-लिखी कम्प्यूटर जनरेशन है अगर वह एक ताबीज से शादी कर सकती है, नौकरी कर सकती है तो फिर मोदी जी को तो ढेर सारे ताबीज खरीद लेने चाहिए और सभी समस्याओं का निदान कर लेना चाहिए।
ऐसे शो तो बड़े मीडिया घरानों के चैनल भी चलाते हैं, जो जमे-जमाए चैनल है, जिनके पास अनुभवी लोगों की कमी नहीं है। इस पर आप क्या कहेंगे
ये चैनल तो ऐसे शो दबाब में चला रहे हैं। उसके पीछे मुनाफ़े का दबाव है। विज्ञापन की पूरी एक रोटी पहला चैनल 2001 में खा रहा था, अगर वो 100 रुपए के विज्ञापन की पूरी रोटी खा रहा था, तो 2005 आते-आते वो 20 -20 रुपए की पांच रोटियों में तब्दील हो गई, यानी अलग-अलग चैनलों पर 20-20 रुपए के पांच विज्ञापन। तो हुआ यूं कि उन्होंने अपने तमाम तरह के ऐड पैकेज शुरू किए क्योंकि वे अपना ख़र्च कम नहीं कर सकते थे। उन्हें सौ रुपए तो चाहिए, लिहाजा उन्होंने फिर इस ढर्रे पर चलना शुरू कर दिया।
बाबाओं का चैनल यदि दुर्भाग्य है तो बाबाओं के प्रतिष्ठित चैनलों पर जो स्पॉन्सर शो हैं, उस पर आप क्या कहेंगे
जब ये चैनल इंडस्ट्री इस देश में आई थी, तब बाबा अपना आधा घंटे का टाइम स्लॉट खरीदते थे और पैसे देते थे। लेकिन एक दौर ऐसा भी आया कि चैनल बाबाओं को पैसा देकर बुलाने लगे। ये एकदम शुरुआती दौर की बात है। मिस्टर बाबा (नाम नहीं लूंगा) ने चैनल पर आधा घंटे के लिए टाइम खरीदा कि मैं इस पर अपने प्रवचन चलाउंगा और इसके लिए उन्होंने डेढ़ लाख रुपए दिए। इसके बाद एक समय ऐसा भी आया कि जब चैनलों को लगा कि बाबा लोग टीआरपी भी लाते हैं, तो अपने स्टूडिओ में बैठाकर शो हिट कराया जाए (हालांकि मैं इसे गलत मानता हूं)। चैनलों ने बाबाओं की दाढ़ में खून लगा दिया। जब बाबा के शो रेटिंग्स लाने लगे, तो फिर चैनल उन्हें पैसे देने लगे।
पिछले पांच साल में एक साध्वी आईं जो नाचती भी हैं। देश के बड़े चैनल उनका एक्सक्लूसिव इंटरव्यू कराते हैं और उनका नाच भी दिखाते हैं। और यह सब पाखंड है और हर कोई जानता है, चूंकि वह टीआरपी दिलाती हैं। तो आपको क्या लगता है कि अब न्यूज चैनल एंटरटेनमेंट चैनल में तब्दील हो गए हैं
साध्वी ही क्यों, एक बाबा भी तो मंच पर नाचते थे, जो अब जेल में है। वे अपने आप को कृष्ण का अवतार बताते थे। एक और साध्वी हैं, जिनको गोद में उठाने का एक रेट तय है।अब ये बाबा ,संत,महंत,भारत की आध्यात्मिक परंपरा और उसके दर्शन के जानकार नहीं हैं ,लेकिन भीड़ जुटा लेते हैं। देखिए, यहां भारत के मध्यमवर्गीय अर्थशास्त्र का सिद्धान्त आपको देखना पड़ेगा। हो सकता है कि हम लोग अपने घरों में दो या तीन टेलिविजन सेट अफोर्ड कर सकते हैं। लेकिन औसतन मध्यमवर्गीय परिवार के पास एक ही टीवी होता है और एक ही टीवी में वो सब कुछ चाहते हैं। क्योंकि जेब अनुमति नहीं देती कि घर के हर सदस्य के लिए अलग अलग टीवी हो। यह बात इन चैनलों ने समझ ली। अब न्यूज़ चैनलों ने अपने को बदल दिया। अब एक ही चैनल में उन्हें न्यूज भी मिल जाती है , एंटरटेनमेंट भी मिल रहा है , तमाशा और प्रोपेगेंडा भी मिल जाता है। यानी एक स्क्रीन पर सब कुछ। एक तरह से मिक्स वेज परोसने की जो परम्परा चल पड़ी है वो हमको नुकसान पहुंचा रही है।
सोशल मीडिया का क्या मीडिया के लिए खतरा है पहला यहां फेक न्यूज एक बड़ी समस्या है और दूसरा तब जब लोग कहते हैं कि टीवी-अखबार की जरूरत नहीं, सोशल मीडिया ही सबकुछ बता देता है।
देखिए, मैं इससे सहमत नहीं हूं। सोशल मीडिया टीवी और अखबार के लिए कोई खतरा नहीं है। जब हम लोगों ने करियर की शुरुआत की तो उस समय केवल अखबार था, लेकिन जब टेलिविजन आया तो कहा गया कि टेलिविजन अखबारों को खा जाएगा। अखबारों की हत्या हो जाएगी, लेकिन आज देखिए। जो सर्कुलेशन अखबारों का 1980-82 और 1990 में था, आज उससे कई गुना अधिक है। हर अखबार के प्रादेशिक संस्करण शुरू हो गए हैं, क्षेत्रीय संस्करण शुरू हो गए हैं, जिला स्तर के संस्करण शुरू हो गए हैं। एक-एक अखबार के 40-50 संस्करण बिक रहे हैं। टेलिविजन जब आया तो पहले दूरदर्शन ही था, जिससे खतरा महसूस होता था। अब प्राइवेट चैनल आ गए हैं। इनके रीजनल चैनल भी आ गए हैं, उनका प्रसार बढ़ रहा है, व्युअरशिप बढ़ रही है, फिर भी अखबारों के पाठकों की संख्या कम नहीं हुई है।
सोशल मीडिया के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि वह हमारे समाज का अंग है। कोई भी आम आदमी इसका उपयोग या दुरूपयोग कर सकता है ऐसा लगता है कि हमने बंदर के हाथ में उस्तरा दे दिया है। अब हर आदमी के पास हथियार है, जो गुस्से के साथ, अपने अंदर की तमाम भावनाओं के साथ ,गुबार के साथ,भड़ास के साथ उसका इस्तेमाल कर सकता है। यहां पहले सोशल मीडिया की मानसिकता को समझिए। हम बचपन से पढ़ते आए हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहता है। आज 2018 का समाज हमने भारत और दुनिया में जो बना दिया है उसमें हमने अपने आप को काट दिया है। हम पड़ोसियों- मोहल्ले और गांव वालों से संपर्क नहीं रखते हैं और ये बीमारी सबसे पहले पश्चिम और यूरोप के देशों में आई थी। सोशल मीडिया की जरूरत वहां, समाज को जोड़ने में थी। इसलिए वहां से सोशल मीडिया की शुरुआत हुई, लेकिन भारत में सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर आम आदमी भी है और उसके लिए आपको मीडिया की पढ़ाई नहीं चाहिए ।ऐसे में इस मंच का इस्तेमाल राजनीतिक हितों के लिए भी हो रहा है। भारतीय इतिहास के गलत तथ्यों का एक्सपर्ट बन गया है आम आदमी। उसको यह बताया जा रहा है। राजनीतिक हितों की खातिर। इसके खतरे बहुत हैं। यह वरदान भी है और अभिशाप भी।
तमाम वरिष्ठ पत्रकार (टीवी-प्रिंट दोनों के) अमूमन ये कहते नजर आते हैं कि वे टीवी नहीं देखते हैं, क्या एक पत्रकार होने के नाते ऐसा कहना उचित है
मैं आपकी बात से सहमत हूं। लेकिन इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। हमने अपनी बात शुरू की थी विचारहीन संपादक और रीढविहीन पत्रकारिता की पीढ़ी से। जब हमने समर्पण कर दिया तो ये धारणा भी बना ली गई कि दर्शक यही देखना चाहता है। अगर यह सच है तो फिर आप जो दिखाते हैं वे आपके घर के बच्चे या श्रीमती जी क्यों नहीं देखना चाहती। आप घर पर अपना चैनल क्यों नहीं देखते। अपना ही चैनल क्यों बंद कर देते हैं। खबर जानने-देखने के लिए वे अपना न्यूज चैनल नहीं देखते, बल्कि ड्यूटी की तरह उन्हें ये चैनल भी देखना पड़ता है। आज से 15 साल पहले 2003-04 में जब मेरे बच्चे छोटे थे तो मैं उनसे कहता था कि बच्चे न्यूज चैनल देख लो, तुम्हारा आईक्यू ठीक होगा। तब ठीक-ठाठ खबरें आती थीं, लेकिन 2015 आते-आते अब कहते हैं कि न्यूज चैनल छोड़कर डिस्कवरी लगा लो, या कोई भी अन्य चैनल लगा लो। तो इसके लिए दर्शक जिम्मेदार नहीं हैं। परिवर्तन दर्शक के अंदर नहीं बल्कि हमारे अंदर आ गया है।
आप के कार्यकाल में राज्यसभा टीवी में जो शोज दिखाए जाते थे, ऐसे शोज प्राइवेज टेलिविजन चैनलों पर यह कहकर नहीं दिखाए जाते कि उनकी टीआरपी नहीं है, दर्शकगण नहीं हैं, जबकि आपके शोज की लोकप्रियता तो सोशल मीडिया पर दिखती थी। फिर ऐसा क्यों?
सोशल मीडिया तो आधुनिकतम अवतार है। यदि सोशल मीडिया पर उसकी लोकप्रियता दिखती है तो इसका मतलब है कि कुछ तो देखा जा रहा है। आपको बता दूं कि हमने आठ से दस शो बारीकी के साथ शुरू किए, बल्कि यूं कहूं की भारत के दर्शकों की मानसिकता को पढ़ा, हमने उसको जांचना चाहा कि आखिर दर्शक चाहता क्या है, तो उसका निष्कर्ष निकल कर आया कि जो हमारी जिंदगी से गायब है वो दर्शक पहले पसंद करते हैं, जैसे कि किताबें पढ़ना, विरासत के बारे में जानना, अपने समाज के अनछुए पहलुओं को जानना इत्यादि। तो हमने किताबें पढ़ने की आदत को प्रोत्साहन देने के लिए एक शो शुरू किया। भारत में करीब बारह करोड़ आदिवासी हैं लेकिन उन पर किसी चैनल में नियमित बात नहीं होती। हमने शुरू किया। संसद के भीतर आम भारतीय को लेकर क्या चिंताएं होती हैं ,वो दिखाए। एक अनुभव और। 2001 के बाद जब नई शताब्दी में हम दाखिल हुए हैं, जिस तरह से सामाजिक बिखराव हुआ है, एकल परिवार बने हैं यानी संयुक्त परिवार की परम्परा खत्म हुई है तो ऐसे में जो आज नहीं है वो हम मिस करते हैं। इसीलिए इन सब चीजों को देखते हुए हमने एक बहुत अच्छा शो शुरू किया था विरासत जिसे मैं खुद करता था। विरासत के बहाने हिन्दुस्तान के अपने सफर की कहानी होती थी, जिसमें एक किरदार हम चुनते थे, फिर वह किसी भी क्षेत्र का ऑइकॉन हो सकता था, इस शो पर हम उसकी कहानी दिखाते थे। यू-ट्यूब पर इस शो के लाखों दर्शक हैं। राज्यपालों के बारे में पहली बार मैंने अपना शो शुरू किया था – महामहिम राज्यपाल
राज्यसभा टीवी के बाद अब हम राजेश बादल को किस-किस फील्ड में क्या-क्या नया करते हुए देखेंगे
जिंदगी बहुत छोटी सी है, काम बहुत बड़े हैं। मुझे बहुत सारा काम करना है और मेरी नियति ने मुझे रेडियो में खूब काम करने का मौका दिया। रेडियो में एक-एक तकनीक से लेकर, उसकी एक-एक विधा पर काम किया है। अखबार में भी मैंने काम किया है। पांच साल तक जिला रिपोर्टर के तौर पर काम किया है। पांच साल मैंनें देश के नंबर-एक और राजेन्द्र माथुर के बनाए अखबार नई दुनिया में काम किया है। उसके बाद लंबे समय तक देश के सबसे बड़े मीडिया समूह के नवभारत टाइम्स में काम किया,जो उस समय लोगों का सपना होता था। देश के पहले चैनल में दस साल तक काम किया। अनेक चैनलों में हेड रहा। और सोशल मीडिया में भी काम करने का खूब मौका मिला। अब फिर कुछ नए प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया है। जल्द ही आप सभी को सूचना मिलेगी।
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर नवोदित पत्रकारों के लिए आपका क्या संदेश देना चाहते हैं
देखिए, पत्रकारिता भले ही हिंदी में करें, लेकिन हिंदी के अलावा अंग्रेजी भी पढ़ें। पढ़ाई खूब करें। क्योंकि हिंदी पत्रकारों में पढ़ने की आदत कम हुई है। भले ही हिंदी में काम करें, लेकिन अंग्रेजी जरूर सीखें। 1947 के बाद राजेंद्र माथुर सबसे बड़े पत्रकार थे और वे मूलत: अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। तो हिंदी पत्रकारिता करने के लिए हिंदी के साथ-साथ बाकी भाषाओं की जानकारी भी जरूरी है। दूसरी चीज यह कि सरोकारों को कभी न भूलो, अपनी जमीन कभी न छोड़ें और इन दोनों को आपने छोड़ दिया तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। आप परिवार का पेट तो पाल लेंगे लेकिन पत्रकारिता का आनंद नहीं ले पाएंगे। मैं तो आज भी इसे रोज़गार का जरिया नहीं मानता। मेरे लिए यह जीवन शैली है।
साभार - समाचार4मीडिया.कॉम से