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भारतीय न्यायव्यवस्था में मेक इन इण्डिया कब होगा सरकार



                                                                                                            - एड.संजय पांडे
इस ४ जनवरी से भारत के नए मुख्य न्यायाधीश के तौर पर जगदीश सिंह खेहर कार्यभार संभल लिया. लेकिन भारतीय न्यायाव्यवस्था के इतिहास के पन्नों में पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर हमेशा याद रहेंगे. आमतौर पर कई जज सत्ता के पास होने पर पदोन्नति आदि अनेक कारणों से सत्ताधारियों की नाराजी मोल नहीं लेते. सेवानिवृत्ति के बाद किसी आयोग, प्रकल्प, विभाग या अन्य मलाईदार पद पर नियुक्त के लिए सत्ता से मधुर सम्बन्ध बनाये रखते हैं. वहीँ भारत के इस पूर्व मुख्यन्यायाधीश ने वर्तमान केंद्र सरकार के अच्छे दिन के दावों की धज्जियाँ उडा के रख दीं. जस्टिस ठाकुर ने मेमोरंडम ऑफ़ प्रोसीजर के तहत सरकार द्वारा राष्ट्रिय सुरक्षा का हवाला देकर नाम ठुकराए जाने की भी आलोचना की थी.
आज पूर्व न्या.टी एस. ठाकुर के बयानों का राजनितिक लाभ उठाने का कोई भी अधिकार बहुतांश कल सत्ता में रही कांग्रेस को भी नहीं है. १९८७ ही लॉ कमीशन ने ४०,००० जजों के नियुक्ति की मांग की थी साथ ही ये भी कहा था कि ‘आज हमारे देश में हर दस लाख की आबादी पर केवल १० जज हैं लेकिन जरुरत ५० जज प्रति दस लाख की है. इसे बढ़ाये जाते हुए २००६ तक १०० जज प्रति १० लाख किये जाना चाहिए.’ परम्परानुसार सिफरिशों के अनुसार परिस्थितियाँ बदली नहीं. ३ मार्च २०१३ को आँध्रप्रदेश राज्य न्याय सेवा प्राधिकरण के कार्यक्रम में भारत के तब के चीफ जस्टिस अल्तमश कबीर ने भी इस मामले को उठाया था और कहा था की जिस तरह आबादी बढती जा रही है और जजों की संख्या जस की तस है इस हालत में केसेस का बढ़ते बोझ की तुलना ‘बिना सेफ्टी वाल्व के प्रेशर कूकर’ जैसा है. जस्टिस व्हीव्ही राव ने भी कहा इस विषय में बड़ी प्रसिद्द टिपण्णी की थी की ‘इस रफ्तार से सभी मुकदमों का निपटारा करने में ३२० साल लग जायेंगे.’ २०१३ में महिला सशक्तिकरण लिये नियुक्त कमिटी ने भी लिखा है की विकसित देशों में दस लाख की आबादी पर ५० और विकासशील देशों में ३५-४० जज हैं, कुछ देशों में तो ८०० स्थायी जज हैं जबकि जरुरत ७०० की ही है.
भारत में हर दस लाख की आबादी पर १८ जज हैं लेकिन विकास शील देशों में औसतन ४० जज हैं. मोदी जी जिन देशों के दौरे कर आये हैं उनमे से अधिकतर में भी जैसे अमेरिका में हर दस लाख लोगों पर १०७, स्वीडेन में १३०, चीन में १७०, बेल्जियम में २३०, जर्मनी में २५०, स्लोवेनिया में ३९०, कनाडा में ७५, इंग्लैण्ड में ५१, ऑस्ट्रेलिया में ४१. इसतरह भारत में आबादी के अनुपात में जजो की संख्या विकासशील देशों में सबसे कम से एक है. भारत अपनी न्याय व्यवस्था पर बजट का ०.५ प्रतिशत खर्च करता है लेकिन अमेरिका उससे दुगुना १ प्रतिशत से कुछ अधिक अधिक् का खर्च करता है. बीबीसी के अनुसार भारत में हर दस हजार पर ०.१४ जज और यूएस में १ जज हैं.
खुद लॉ कमीशन की जनवरी में दी गई जानकारी के अनुसार भारत के २४ हाई कोर्टों में १०४४ जजों की जरुरत है लेकिन केवल ६०१ जजों से कम चल रहा है, ४४३ पद भरे ही नहीं गए. इनमे सबसे ज्यादा मार इलाहाबाद है कोर्ट पर पड़ी हैं जहाँ ८६ जजों के पद (५२ प्रतिशत) रिक्त हैं, आंध्रप्रदेश में ६२ प्रतिशत, पंजाब और हरियाणा में ३९ (४६ प्रतिशत), मद्रास हाई कोर्ट में ३८ पद रिक्त हैं. इस तरह ८० प्रतिशत बैकलोंग यूपी, प.बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आँध्रप्रदेश-तेलंगाना, और कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों में ही है. आंध्र/ तेलंगाना, अलाहाबाद, पंजाब और हरियाणा, केरल, मध्यप्रदेश, मणिपुर, पटना और राजस्थान है कोर्ट्स बिना या प्रभारी चीफ जस्टिस के कम कर रहे हैं.

कनिष्ट न्यायालयों में भी हालत ख़राब है. वहां लगभग ५००० जजों की भरी कमी है. मोदीजी के गुजरात में १,९३९ में से ७६९ (४० प्रतिशत) जजों के पद रिक्त हैं. वहां १,९३९ कोर्ट रूम्स के बजाये १,१८६ कोर्ट रूम्स हैं. बिहार में १,७२७ में से ६६० और दिल्ली में ७९३ में से ३०३ निचले न्यायालयों के जजों के पद रिक्त हैं. उत्तरपूर्व के मेघालय में ५० प्रतिशत और त्रिपुरा के ३५ प्रतिशत पद रक्त हैं.

मुकदमों का प्रलंबन तेजी से बढ़ रहा है. भारत में फिलहाल ३.१० करोड़ मुकदमे चल रहे हैं. हर साल २ करोड़ नए मुकदमें दर्ज होते हैं लेकिन वरिष्ठ न्यायालयों में ४२ प्रतिशत जजों के पद रिक्त हैं. जुलाई २०१४ और जुलाई २०१५ के बीच कुल १५,५०० और १५,६०० जजों ने १८,६२५,०३८ मामलों का निपटाए जबकि उसी एक साल में उससे भी कुछ हजार ज्यादा नए मुकदमे दर्ज किये गए. लोकादालात जैसे मंचों के पास मुकदमें भेज कर ये भार कम किये जाने के आदेश-निर्देश और दबाव सरकार द्वारा विविध स्तरों पर जजों को दिया जाता है. लेकिन नए मुकदमें दर्ज करने से सरकार नहीं रोक सकती. जिससे हर साल जितने मुकदमों का निपटारा होता है, उससे कहीं ज्यादा नए मुकदमें दर्ज किये जाते हैं. अब तो ऐसी भी मांगे उठने लगीं हैं की अन्य सरकारी विभागों की तरह ही यहाँ भी पूर्व न्यायाधीशों को मानदेय के आधार पर नियुक्त किया जाए. 
वरिष्ठ आणि कनिष्ठ न्यायालयों के इन रिक्त पदों और प्रलंबन का सीधा परिणाम मुकदमे देर तक चलने के रूप में दीखता है. आम आदमी ‘न्याय देर से मिलना मतलब न्याय का नाकारा जाना’ इस प्रसिद्द क़ानूनी कहावत को लगाब्हत रोज झेलता है. वकीलों की फीस और काम के उत्पादक घर्न्तों का नुक्सान करने के कारण ‘समझदार आदमी को कोर्ट की सीढियां नहीं चढ़नी चाहिए’ ऐसा महसूस करने लगता है. वो किससे गुहार लगाए वही समझ नहीं आता.
 
मुकदमों और न्यायाधीशों की संख्या के बीच की खाई और देखना हो तो पिछले तीन दशकों भारत में जहाँ पिछले तीन दशकों में जजों की संख्या ६ गुना बढ़ के लगभग १५,६०८ हुई है वहीँ केसेस की संख्या १२ गुना बढ़ी है. देश के २४ उच्च न्यायालयों के ४४ प्रतिशत और निचले न्यायालयों के २३ प्रतिशत जजों के पद खाली पड़े हैं. भारत के जिला न्यायालयों में २.१५ करोड, उच्च न्यायालयों में ३८.७६ लाख मुकदमें दिसंबर २०१५ तक प्रलंबित थे. ३.१० करोड़ मामले विचाराधीन हैं. बढती साक्षरता और अधिकारों की जानकारी के कारण भी केसेस दर्ज करने के प्रमाण बाधा है. अगले तीन दशकों में केसेस १५ करोड़ तक पहुंच जायेंगे और तब ७५ हजार जजों की जरुरत होगी. सरकार के पास इस धोकादायक स्थिति से निबटने का कोई एक्शन प्लान है ऐसा नहीं लगता.
जस्टिस ठाकुर ने एक ज्युडिशियल अकादमी के उद्घाटन कार्यक्रम में एक दूसरा सवाल भी उठाया था. १६५ करोड़ रुपये खर्च करके बनाये गए उस प्रशिक्षण अकादमी में केवल १३५ न्यायिक अधिकारीयों की ट्रेनिंग को गलत ठहराते हुए उसे उन्होंने सार्वजनिक पैसे का अपव्यय बताया था और कहा की इस तरह की ट्रेनिंग गलत और आपराधिक प्रकार की है क्योंकि ये पैसा पेय जल, सड़कों, आरोग्य और स्वच्छता के खर्चों को कम करके किया गया है. ऎसी सुविधा का इस्तेमाल अन्य अधिकारियों, अर्धन्यायिक कार्यों, छात्र और जनता के लिए किया जाना चाहिए.
मई २०१६ को मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायलय के मुख्य नयाधीशों के संयुक्त सम्मलेन में सरकार को याद दिलाया कि ट्रिब्यूनल्स में जरुरी चीजों का आभाव है और वो खाली पड़ी हैं. मुझे मेरे रिटायर्ड सहकारी वहां भेजते हुए दुःख होता है. न्याय विशेषज्ञों के सामने जजों की संख्या २१,५४२ से ४० हजार तक किये जाने की मांग करते हुए भावुक हो गए थे, उन्होंने साफ़ कहा की कम से कम ७०,००० जज इन मामलों का निपटारा करने के लिए चाहिए होंगे. जस्टिस ठाकुर ने सर्वोच्च न्यायलय के कोलेगियम द्वारा सिफारिश किये गए नाम मान्य किये जाने के ९ महीनों के बाद भी ना भरे जाने और रिक्त पद ना भरे जाने के कारण भी अटोर्नी जनरल से पूछा. उन्होंने उस दिन के अपने भाषण में आल इण्डिया असोसिएशन वि यूनियन ऑफ़ इण्डिया के फैसले का उल्लेख किया जिसमे कहा गया था की जजों की संख्ह्या आगले ५ सालों में क्रमशः बढाते हुए ५० जज प्रती दस लाख आबादी जानी चाहिए. एक और महत्वपूर्ण फैसले ‘रामचंद्र राव वि. कर्नाटक राज्य’ के ११ वे पैराग्राफ में ये साफ कहा गया की मामलों के निपटारों में देरी का कारण ख़राब जज/आबादी अनुपात हैं. एक ही समय ज्युडिशियरी सबकी चिंता का विषय है और उसी समय वो किसी की भी चिंता का विषय नहीं है.
जून २०१४ से जब से एनडीए सरकार सत्ता में आई तब से रिक्त पदों की संख्या ३० प्रतिशत से बढ़ कर ४३ प्रतिशत हो चुकी है. ऐसे में इन ‘अच्छे दिनों’ में नोटबंदी संबंधी आयकर मामलों, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, बलात्कार, संबंधी क़ानूनी मामलों को ‘मैक्सिमम गवर्नंस’ की सरकार कैसे संभालेगी. पूर्व न्या.तिरथसिंह ठाकुर की भावुकता की गंभीरता को समझाने की मनस्थिति में भक्त मंडली नहीं हैं. उन्होंने अगले  हि दिन समाज माध्यमों में न्यायाधीशों का हि मजाक उड़ना शुरू कर दिया. विदेशी कम्पनियां न्याय व्यवस्था में निवेश करार करने वाले नहीं है इसलिए कदम सरकार को हि उठाने होंगे. कांग्रेस और भाजपा की न्यायव्यवस्था सम्बंधी नीतियों में कोई फर्क नहीं है, सरकार इसमें मेक इन इण्डिया करने के लिए तैयार है या इसपर अब तक सोचा भी नहीं गया है?
 

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