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महाराष्ट्र: असल मुकाबला दो सियासी चाणक्यों पवार व शाह के बीच -अजय बोकिल (वरिष्ठ पत्रकार)


महाराष्ट्र: असल मुकाबला दो सियासी चाणक्यों पवार व शाह के बीच 
अजय बोकिल (वरिष्ठ पत्रकार)  
महाराष्ट्र में भाजपानीत महायुति और कांग्रेसनीत महाविकास आघाडी के लिए इस बार का विधानसभा चुनाव जीतना राजनीतिक  जीवन मरण का प्रश्न बन गया है। भाजपा ने शुरू में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को महाराष्ट्र लाकर ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ के नारे का असर टेस्ट किया। लेकिन लगता है जल्द ही पार्टी को समझ आ गया कि इसका असर नकारात्मक भी हो सकता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उसकी जगह ‘एक हैं तो सेफ हैं’ को ज्यादा तवज्जो देना शुरू कर दिया है। हालांकि कुछ लोग मोदी द्वारा इस नारे में संशोधन को  योगी की बढ़ती लोकप्रियता पर लगाम लगाने की कोशिश के रूप में भी देख रहे हैं। लिहाजा सोमवार को महाराष्ट्र के मीडिया में दिए गए भाजपा के विज्ञापनों में भी ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ की जगह यही नारा दिखाई पड़ा। इसका अर्थ यही है कि ‘कटेंगे’ के सकारात्मक राजनीतिक असर को लेकर भाजपा पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। वैसे भी महाराष्ट्र का चुनाव हकीकत में दो सियासी चाणक्यों शरद पवार और अमित शाह के बीच परोक्ष मुकाबला है। जो भी जीतेगा, वह देश की भावी राजनीति की दिशा तय करेगा। हालांकि भाजपा का एक तबका मान कर चल रहा है कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का हिंदुअों पर  धीरे-धीरे असर हो रहा है और गहरे मानस मंथन के साथ वो भाजपा के पक्ष गोलबंद हो रहे हैं। लेकिन किस हद तक, इस सवाल का जवाब मिलना बाकी है। हरियाणा विस चुनाव में यह नारा कुछ हद तक चला। लेकिन महाराष्ट्र की राजनीतिक तासीर अलग है। यहां तीन दशकों से कोई भी सियासी पार्टी अपने दम पर बहुमत नहीं पा सकी है। ऐसे में कोई भी दांव कब निशाने पर जा लगे या फिर उलटा पड़ जाए, कहना मुश्किल है। उधर राज्य में  कांग्रेस और महाविकास आघाडी लगातार ‘संविधान बचाने’ ,जातिगत जनगणना और आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा करने के साथ साथ स्थानीय मुद्दे जैसे सोयाबीन उत्पादक किसान को हुए नुकसान भी उठा रही है। मआवि का मानना है कि महायुति सरकार के खिलाफ आम जनता में नाराजी है और वो सत्ता परिवर्तन के पक्ष में वोट करेगी। उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी तो प्रतिशोध की भावना से चुनाव लड़ रही है। उनकी और अजित पवार की पार्टी के लिए यह चुनाव राजनीतिक अस्तित्व का सवाल भी है। ऐसे में भाजपा को डर है कि हिंदू एकता के नारे पर कहीं लोकसभा की तरह ‘दलित मुस्लिम’ एकता भारी न पड़ जाए। इसके अलावा मराठा आरक्षण के लिए कई सालों से आंदोलन कर रहे मनोज जरांगे का फैक्टर भी अहम है। जरांगे ने ऐन वक्त पर विस चुनाव न लड़ने का फैसला कर के महायुति को तगड़ा झटका दिया है। इसके पीछे सलाह किसकी होगी, यह समझा जा सकता है। भाजपा जरांगे के प्रभाव क्षेत्र मराठवाडा में मराठो के खिलाफ अोबीसी को लामबंद करने की कोशिश कर रही है। इसमें कितनी सफलता मिलती है, यह देखने की बात है। ऐसे में महिलाअोंको सीधे आर्थिक लाभ पहुंचाने वाली ‘लाडकी बहिण योजना और बूथ मैनेजमेंट पर ही भाजपा की जीत का काफी दारोमदार है। दूसरे, राहुल गांधी के संविधान बचाअो अभियान पर पलटवार करते हुए केन्द्रीय मंत्री अमित शाह ने राहुल के हाथों में लाल किताब को ‘कोरी किताब’ कहा था। इसका दलितों में कैसा संदेश गया है, कहना मुश्किल है। हालांकि भाजपा और संघ के कुछ नेताअोंका मानना है कि ‘कटेंगे तो... और लाडकी बहिण’ योजना का धमाका नतीजों में दिखेगा। लोगों को इसका अंदाज नहीं है। वैसे इस चुनाव में मतदाताअोंका एक तबका ऐसा भी है, जो सभी पार्टियों के रवैए से निराश है। ऐसे में वोटिंग प्रतिशत अगर घटा तो नुकसान सबसे ज्यादा महायुति को होगा। हालांकि भाजपा इस खतरे को लोकसभा चुनाव के बाद से समझ चुकी है। उसके वोट गिरें, इसकी पुरजोर कोशिश होगी।
इस बीच राजनीतिक प्रेक्षक इस बात का गहराई से अध्ययन कर रहे हैं कि योगी के ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारे का महाराष्ट्र में बहुसंख्‍यक हिंदू समुदाय के मानस पर कितना असर हो रहा है और इसकी राजनीतिक परिणति क्या होगी? क्या योगी का यह नारा ‍राज्य में फिर से हिंदू समाज को महायुति के पक्ष में एकजुट कर पाएगा, खासकर वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक के विरोध में मुस्लिम समाज में हो रही आक्रामकता एकता के संदर्भ में।
वैसे योगी के जिस ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारे को हिंदू एकजुटता के परिप्रेक्ष्य में रामबाण उपाय के रूप में देखा जा रहा था, वह महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव प्रचार के शबाब पर आते आते शंका के घेरे में जरूर आ गया है। जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस नारे का खुलकर समर्थन किया था। लेकिन महाराष्ट्र में इस मुद्दे पर खुद महायुति और राष्ट्रीय स्तर एनडीए भी बंटता नजर आ रहा है। कांग्रेस तो पहले ही इसे नकारात्मक और साम्प्रदायिक सोच का नतीजा बता रही है, जबकि योगी और भाजपा इसे बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुअोंपर हो रहे अत्याचार की मिसाल देकर सही ठहरा रहे हैं। इसमें यह चेतावनी भी छिपी है कि अगर जनसांख्यिकीय बदलाव यूं ही होते रहे तो भारत में भी बहुसंख्यक हिंदुअों की वैसी ही  हालत होने में देर नहीं लगेगी। इसीलिए झारखंड और अब मुंबई में भी मुसलमानों की बढ़ती आबादी, उसकी वजह से हो रहे जनसांख्यिकीय बदलाव तथा उसकी राजनीतिक परिणति को लेकर भी भाजपा नेता लगातार आगाह कर रहे हैं।
इसमें शक नहीं कि योगी के ‘कटेंगे तो बंटेगे’ नारे ने विपक्षी खेमे में खलबली मचा दी है। इस नारे की गूंज कनाडा के ब्रैम्पटन में भी सुनाई दी, जहां खालिस्तानी सिखों ने हिंदू मंदिर पर हमला किया था। ‘कटेंगे तो’ नारे को  खारिज करने के लिए अलग अलग प्रति नारे गढ़े जा रहे हैं। यूपी में नौ सीटों पर हो रहे विधानसभा उपचुनाव के मद्देनजर समाजवादी पार्टी ने इन नारे में निहित खतरे को भांपा और इसके जवाबी नारे गढ़ने की कोशिश की। शुरू में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि इस नारे को ध्यान में रखकर पीडीए समीकरण को एकजुट रहना चाहिए और उपचुनाव में भाजपा को सबक सिखाना चाहिए। लेकिन लगता है कि उससे बात नहीं और योगी के नारे के जवाब में ‘ जीतेंगे तो जुड़ेंगे’ और जैसे नारे गढ़े गए। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भाजपा पर जवाबी हमला करते हुए कहा कि ‘तुम ही कटोगे और तुम ही बंटोगे।‘ महाराष्ट्र में विपक्षी महाविकास आघाडी के घटक शिवसेना (उद्धव) के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने चुनौती के स्वर में कहा कि हम महाराष्ट्र में किसी को न तो लूटने देंगे और न ही लुटने देंगे। लेकिन महाराष्ट्र में इस पर सत्तासीन महायुति के घटक राकांपा नेता अजित पवार ने भाजपा से अलग लाइन लेते हुए इस नारे को यह कहकर खारिज किया कि महाराष्ट्र का स्वभाव इस तरह बांटने का नहीं है। इसी झारखंड में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने नया नारा दिया ‘डरोगे तो मरोगे‘ तो भीम आर्मी पार्टी के चंद्रशेखर रावण ने कहा कि ‘पढ़ेंगे तो बढ़ेंगे।     
अगर योगी के नारे का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो इसकी पहली पंक्ति ‘बंटेंगे तो कटेंगे भले ही नकारात्मक लगे, लेकिन दूसरी पंक्ति ‘एक रहेंगे तो नेक रहेंगे’ पूरी तरह सकारात्मक है। योगी ने यह नारा‍ ‍िकस सोच और गणित के साथ दिया या फिर यह उनके मुंह से निकली परिस्थितिजन्य सहज अभिव्यक्ति थी, कहना मुश्किल है। लेकिन अगर वो चाहते तो दूसरी पंक्ति को पहले स्थान पर और पहली पंक्ति को दूसरे स्थान पर रख सकते थे। इससे वो राजनीतिक खलबली नहीं मचती, जो उनके इस नारे से  हुई है। वैसे भी आंदोलनो और संघर्षो का इतिहास देखें तो नकारात्मक कहलाने वाले नारे ही  लोगों को संगठित करने में ज्यादा असरकारी साबित होते हैं। इसका कारण इसमें जनमानस में छिपे भय और आक्रोश का राजनीतिक सामाजिक दोहन होता है। भले ही उसका अंतिम परिणाम कुछ भी हो। 
वरिष्ठ संपादक 
'राइट क्लिक '
( 'सुबह सवेरे' में दि. 13 नवंबर  2024 को प्रकाशित)

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