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वक्त गुज़ारने के लिए कहीं जाने का की हर जमाने में अलग अलग जगहें हुआ करती हैं-आनंद शर्मा पूर्व वरिष्ठ आईएएस


रविवारीय गपशप ——————— वक्त गुज़ारने के लिए कहीं जाने का की हर जमाने में अलग अलग जगहें हुआ करती हैं । जब हम छोटे थे तो गर्मी की छुट्टियों में मामा के यहाँ गाँव जाया करते थे । शाम को सब इकट्ठे हों और बात चले कि कहीं चलें तो लोग कहते चलो मंदिर घूम के आते हैं । बच्चों की टोली हो कि नवजवानों के समूह या बुजुर्गों की पंचायत जिसे देखो शाम को सामूहिक भ्रमण पर मंदिर जाता दिखाई देता । वक्त गुजरा और हम बड़े होकर कॉलेज में पढ़ने लगे तो शाम को सब दोस्त इकट्ठा होते और कहते कहाँ चलें तो समवेत स्वर में आवाज आती चलो स्टेशन घूमने चलते हैं । कटनी में उन दिनों रेलवे स्टेशन ही हमारी शाम की तफ़रीह की पसंदीदा जगह हुआ करती थी । वहाँ जाते तो चाय तो मिल ही जाती , स्टेशन के अंदर के बुक्स्टाल से कभी प्रतियोगिता दर्पण तो कभी सी.सी.टाइम्स और कभी कहानी क़िस्सों की किताबें ख़रीदने को मिल जातीं । आजकल के बच्चों के घूमने फिरने की जगह पूछो तो एक ही बात कहते हैं “ चलो मॉल चलते हैं “ । पूना में हम अपने बेटे के पास पहुँचे तो सप्ताहांत के अवकाश में वो हमें घुमाने मॉल ले के जाया करता । वहीं खाते-पीते , वहीं फ़िल्म देखते और लगता तो ख़रीददारी भी कर लेते । पर जल्द ही हम इससे ऊब गये , और मैंने कहा क्या पूना में कोई और जगह घूमने के लिए नहीं है ? इसके बाद ही हम हलवाई डगडू सेठ हलवाई के गणपति मंदिर और आगा ख़ान पैलेस घूमने जा पाये । दगड़ू सेठ की पुणे में हलवाई की दुकान थी , और सेठ और उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई गणपति के अनन्य भक्त थे । अपनी दुकान के पास ही उन्होंने भगवान गणपति की प्रतिमा स्थापित की और आज तीन पीढ़ी बाद पुणे का यह प्रसिद्ध मंदिर अपने भक्त के नाम से ही जाना जाता है । भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की महत्वपूर्ण घटनाओं की साक्षी आगाख़ान पैलेस नाम की इस इस विशालकाय भव्य इमारत का निर्माण सन् 1892 में पाँच साल में पूरा हुआ था । मूला नदी के किनारे कुल उन्नीस एकड़ में बने इस महल को कहते हैं अकाल के दौरान पुणे के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों की सहायता के लिए सुल्तान मुहम्मद शाह तृतीय ने बनवाया था जो आगाख़ान पैलेस के नाम पर जाना जाता है और अब “ गांधी स्मृति राष्ट्रीय सोसायटी “ द्वारा इसकी देखरेख की जाती है ।1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी को गिरफ़्तार कर यहीं नज़रबंद किया गया था । ये स्थान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के कई महत्वपूर्ण निर्णयों का साक्षी भी रहा है । 9 अगस्त 1942 से 6 मई 1944 तक लगभग दो बरस गांधी को यहाँ गिरफ़्तारी के बाद रखा गया था , सरोजिनी नायडू भी यहाँ गिरफ़्तार कर रखी गयीं थीं । कस्तूरबा गांधी भी गाँधी जी के साथ गिरफ़्तार कर यहीं रहीं थीं और दुर्भाग्य वश यहीं आगा ख़ान पैलेस में उनकी मृत्यु हुई थी । आगख़ान पैलेस में ही “बा” की समाधी है । यहीं गाँधी के सचिव रहे महादेव भाई देसाई की भी मृत्यु हुई थी और उनकी समाधि भी यहीं है जहाँ समाधि में उनकी स्मृति अवशेष के रूप में भस्म रखी गई है । बा और महादेव भाई के स्मृति स्थल के पास ही गांधी जी का भी समाधि स्थल है जहाँ उनकी भी स्मृति अवशेष रखी गई है । उन्नीस एकड़ के क्षेत्रफल में कुल सात एकड़ में निर्मित यह भवन इण्डो-इस्लामिक आर्किटेक्ट की कलाकृति का बेजोड़ नमूना है , जिसे अब महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूज़ियम के रूप में जाना जाता है । इस म्यूज़ियम में छह खण्ड हैं और विविध चित्रों और श्रव्य दृश्य स्मृतियों के माध्यम से उस काल खण्ड को बड़े खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत किया गया है । महात्मा गांधी और बा के कमरों में उनके द्वारा दैनिक उपयोग में प्रयुक्त की गई वस्तुओं को सम्हाल कर रखा गया है । कुछ चित्र आपके लिये प्रस्तुत हैं ।

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