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भाजपा में चल सकतती है इंकार की आंधी


कीर्ति राणा ,वरिष्ठ पत्रकार
                          राजनीतिक दल हो, मीडिया संगठन हो या अन्य कोई संस्था ऐसा आदर्श बहुत कम देखने को मिलता है कि एक बार निर्वाचित हुआ पदाधिकारी अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले यह घोषणा कर दे कि वह अगला चुनाव नहीं लड़ेगा-यानी चुनाव लड़ने की हसरत रखने वाले अन्य लोगों के लिए रास्ता खाली कर रहा है।इसके विपरीत होता यह रहा है कि दूसरी, तीसरी बार भी अध्यक्ष-पदाधिकारी बने रहने के लिए संस्था के संविधान में अपने स्वार्थ मुताबिक संशोधन का रास्ता अपनाया जाता है। 

अब जब विधानसभा चुनाव सिर पर हैं तब भाजपा और कांग्रेस दोनों दल फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं।भाजपा में गहराते असंतोष का कारण यदि सरकार में बैठे लोगों द्वारा कार्यकर्ताओं की सतत उपेक्षा, अपनों से आगे नजर नहीं जाना, पं दीनदयाल के सूत्र अंतिम आदमी का भला करने को भुला देने जैसे कारण हैं तो कांग्रेस में असंतोष का कारण परिवारवाद, बड़े नेताओं के समूह का संगठन पर कब्जा और सरकार बनने की संभावना से हिलोरे मार रहा उत्साह भी है।दोनों दलों में उन नेताओं का प्रतिशत कम ही है जो त्याग की उदारता दिखा सकें। 

चेहरों से नफरत और उपेक्षा जैसे मूल मुद्दे को भांप चुके भाजपा के खुर्राट नेताओं ने जहां गुजरात मॉडल को अपना कर अधिकांश सीटों पर नए चेहरों को उतारने का प्रयोग शुरु किया है वहीं टिकट की लालसा रखने वाले एक ही सीट को अपनी पैतृक संपत्ति मान चुके विधायकों को यह आदेशात्मक इशारा भी कर दिया है कि पार्टी उनका टिकट काट कर बेइज्जती करे उससे पहले खुद ही चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दें। 

इसका विधिवत शुभारंभ करने का श्रेय पूर्व सीएम उमा भारती को जाता है।हालांकि उमा भारती ने विधानसभा चुनाव लड़ने की इच्छा तो जाहिर नहीं की, न ही किसी सीट से अपने लिए टिकट की मांग की।फिर भी मप्र में सीएम बनने का सपना देख रहे उन तमाम नेताओं को अपनी इस घोषणा से राहत पहुंचाई है कि वे मप्र में सीएम नहीं बनना चाहती।गत दिनों उमा भारती कह चुकी हैं अब मेरा सपना नहीं मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का और न ही मुझे मध्यप्रदेश में सियासी जमीन की तलाश है।मैं तो अब मुख्यमंत्री बनवाऊंगी। 

उमा भारती के सीएम बनने से इंकार के बाद सिंधिया घराने की-अभी खेल मंत्री यशोधरा राजे भी स्वास्थ्यगत कारणों का हवाला देकर अब चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान कर चुकी हैं।यशोधराराजे बीते वर्षों में लगातार कोरोना का शिकार रहीं हैं इसलिए उनका चुनाव मैदान से हटने का कारण समझा जा सकता है लेकिन जब सिंधिया परिवार के तीन सदस्यों की भाजपा राजनीति में सक्रियता देखें तो कुछ और मायने भी निकलते हैं। राजस्थान में उनकी बहन वसुंधरा ने भाजपा नेतृत्व की नाक में दम कर रखा है लेकिन नेताओं की मजबूरी है कि उन्हें नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। अभी जब प्रधानमंत्री मोदी राजस्थान दौरे पर गए और मंच पर वसुंधरा की मौजूदगी को जानबूझकर नजरअंदाज किया तो अगले ही दिन अमित शाह-जेपी नड्डा को डेमेज कंट्रोल के लिए दौड़ लगाना पड़ी थी।मप्र में भी यशोधरा राजे मंत्रिमंडल की बैठकों में अपने तेवरों के कारण कई बार मीडिया की सुर्खियों में रही हैं इसलिए उनका अब चुनाव लड़ने से इंकार सहज से अधिक ‘ऊपरी दबाव’ अधिक लगता है।भाजपा नेतृत्व अब मप्र में एक ही (ज्योतिरादित्य) सिंधिया को सिर-माथे बैठाए रखना चाहती है। परिवारवाद के गुस्से से जलेभुने कार्यकर्ताओं को  यह संदेश भी मिल जाएगा कि सिंधिया घराने के दबदबे से पार्टी मुक्त हो रही है। 

यशोधरा राजे का चुनाव लड़ने से ‘इंकार’ की हवा यदि आंधी में बदल जाए तो ताज्जुब नहीं। जो अन्य कद्दावर नेता-मंत्री कई कारणों से इन वर्षों में बेहद चर्चित हुए हैं, एक एक कर पार्टी नेतृत्व उनसे भी चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा करवा सकता है।ऐसे में उनका सम्मान भी बचा रहेगा और संबंधित क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं के गुस्से को भी ठंडा करने का रास्ता निकल जाएगा। 

पार्टी के इस सम्मान जनक इंकार वाले रास्ते के राही शिवराज सिंह, नरोत्तम मिश्रा, महेंद्र सिंह सिसोदिया, गोविंद राजपूत, तुलसी सिलावट आदि भी होंगे क्या? पार्टी में यह आशंका इसलिए भी है कि तीसरी सूचती तक इनमें से किसी का नाम और चुनाव क्षेत्र की घोषणा नहीं हुई है। दूसरी तरफ पार्टी में चल रही उठापटक का दर्द मुख्यमंत्री चौहान बुधनी में व्यक्त कर चुके हैं।उन्होंने यहां जब कहा 'मेरी बहना, ऐसा भैया मिलेगा नहीं, मैं चला जाऊंगा तब याद आऊंगा तुम्हें।’ उनके इस कथन को उनकी भावुकता माना जाए या भविष्य का संकेत इसे लेकर पार्टी में कई अर्थ इसलिए भी निकाले जा रहे हैं क्योंकि भाजपा यह चुनाव ना तो उनके चेहरे पर लड़ रही है और न ही प्रत्याशियों के चयन में उनका पिछली बार की तरह दखल है, सारे सूत्र मोशा जी के हाथ में हैं और अपने जासूसों (मंत्रियों) को मप्र में काम पर भी लगा रखा है।

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