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त्रिवेणी हिल्स के निवासी अशोक कुमार दुबे का कौवों से अलग ही नाता है


भारतीय हिंदी फिल्मो में कोवो को बड़ा अपसकुन बताया है वही पुराने बुजुर्ग कोवो के बहुत कुछ बताते  है भारत में अगर सबसे ज्यादा किसी पक्षी को नापसंद किया जाता है तो वह है कौवा। कौवों को अक्सर लोग मौत या अशुभ घटनाओं से जोड़ते हैं। घर के बाहर कौवों का बोलना अपशकुन माना जाता है, पर आखिर वह भी एक पक्षी ही है और इंसानों ने अपनी सोच के हिसाब से उसे अच्छा या बुरा बना दिया है। इन सब बातों के बीच त्रिवेणी हिल्स के निवासी अशोक कुमार दुबे का कौवों से अलग ही नाता है।शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त अशोक कुमार दुबे का कौवों से दोस्ती का नाता है और दोस्ती भी कोई नई-नवेली नहीं, बल्कि इसे करीब 7-8 बरस होने को हैं। कृष्ण विहार कॉलोनी में एक बरगद के नीचे प्रतिदिन सुबह- शाम को कौवें जमा हो जाते है। दुबे कुछ समय पहले सुबह-शाम भ्रमण के लिए कृष्ण विहार कॉलोनी की तरफ जाते तो,साथ पक्षियों के लिए कुछ दाने भी लेकर जाना नहीं भूलते और बरगद के वृक्ष के नीचे डाल देते थे।


प्रारंभ में अधिक पक्षी तो नहीं आए, लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीता दाना खाने वाले पक्षियों की संख्या बढऩे लगी। इनमें कौवों की संख्या सबसे अधिक रहती है। सुबह- शाम के समय कौवों को दाना देने का यह सिलसिला बरसों से चल रहा है। अशोक कुमार दुबे और उनके मित्र शंकरराव जागले मिलकर करीब 600 रु. यानी महीने का करीब 18000 रु. पक्षियों के दाने पर खर्च कर देते है। खास बात यह कि इस काम में वही के एक मजदूर विजय भी इनका सहयोग करते है।

पितृपक्ष में होता है कौवों का विशेष महत्व
 श्राद्ध पक्ष में कौवे का विशेष महत्व माना जाता है। मान्यता है कि कौवे पितरों के संदेश वाहक होते हैं। इन्हें कराया गया भोजन सूक्ष्म रूप से पितरों तक पहुंचता है और उन्हें संतुष्टि मिलती है। उन्होंने कहा कि शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि कौवा यमदूत है। मुंडेरों पर कौवे न दिखाई देने के पीछे पर्यावरण का ह्रास होना मुख्य कारण माना जा रहा है। पितृपक्ष में कौवे का महत्व अचानक बढ़ जाता है। निवाला खिलाने के लिए कौवों की तलाश शुरू हो जाती है। लेकिन, बिगड़ रहे पर्यावरण के चलते लगातार कौओं की संख्या में कमी आ रही है। पितृ पक्ष में गाय, कौवे और कुत्ते को निवाला खिलाने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। कौवों को पितरों का प्रतिनिधि माना गया है।

धीरे-धीरे कौवे विलुप्त होते जा रहे

अब धीरे-धीरे कौवे विलुप्त होते जा रहे हैं। पितृपक्ष में कौवों का विशेष महत्व होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से गिद्ध के बाद कौवे प्रकृति में दूसरी श्रेणी का सफाई मित्र माना गया है। कौवे किसानों का सच्चा मित्र है। महाभारत एवं पंचतंत्र के कथा में ही कौआ का उल्लेख है। पशुपालक भी कौवे को अपना मित्र समझते है। यदि समय रहते इनके संरक्षण के लिए कदम नही उठाया गया तो गिद्ध व चील की तरह यह भी विलुप्त हो जायेगा तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए खतरा उत्पन्न कर सकता है। जानकारों के अनुसार कौवे घने वृक्षों पर घोसला बनाते हैं। वृक्षों की संख्या घट रही है। कौवे के घोसले नहीं बनने से प्रजनन कम होता है, जिससे कौवों की संख्या घट रही है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़, प्रदूषण, वृक्षों की कटाई, मोबाइल टॉवरों की बढ़ती संख्या से कौवे की प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है।

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