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कश्मीर अब- 2 अब आप श्रीनगर के ‘लाल चौक’ में बेखौफ घूम सकते हैं...


अजय बोकिल ,वरिष्ठ पत्रकार
                 बारह साल पहले जब कश्मीर गया था तो श्रीनगर के ह्रदय स्थल ‘लाल चौक’ देखने की इच्छा जताने पर हमारे साथ मौजूद सुरक्षा कर्मियों ने सलाह दी थी कि आप कहीं भी अपनी मर्जी से न जाएं। पहले हमे बताएं और सुरक्षा घेरे में ही चलें। क्योंकि कहीं  भी अनहोनी हो सकती है। लाल चौक तो उन दिनो पत्थरबाजों का ‘स्वर्ग’ बना हुआ था। इसके आसपास की बस्तियों को अलगाववादियों का अड्डा माना जाता था।  लिहाजा हमने सुरक्षाकर्मियों के साथ ही लाल चौक देखा। तब भी बाजार खुला था, लेकिन लाल चौक के  घंटाघर पर कोई झंडा नहीं था। आवाजाही थी, लेकिन माहौल में तनाव साफ महसूस किया जा सकता था। लाल चौक दरअसल एक चौक है, जहां घंटाघर बना है। यह करीब एक सदी से कश्मीर में राजनीतिक और व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। इस घंटाघर को लाल चौक नाम 1917 में रूस में हुई साम्यवादी क्रांति के बाद वामपंथियों ने ‍िदया था। ये वामपंथी और स्थानीय लोकतंत्र समर्थक तत्कालीन महाराजा हरिसिंह की राजशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे। 
                  इस लाल चौक को अलग महत्व तब मिला जब 1947 में भारत की आजादी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यहां पहली बार तिरंगा फहराया। उसके बाद कश्मीर के कई बड़े नेता जिनमे पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला भी शामिल हैं, यहां तिरंगा फहराते रहे। 1980 में इस चौक पर घंटाघर का निर्माण किया गया। लेकिन 1990 में कश्मीर में अलगाववादी ताकतों के उभार के बाद यह लाल चौक कश्मीर में आतंक और आजादी के समर्थक तत्वों का अड्डा बन गया। सुरक्षा कर्मियों और गैर कश्मीरियों पर यहां हमले होने लगे। लाल चौक में तिरंगा फहराना असंभव हो गया और पत्थरबाजी आम हो गई। इस बीच 1992 में भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने अपनी एकता यात्रा का समापन भारी सुरक्षा के बीच तिरंगा फहराकर इसी लाल चौक पर किया था। जबकि इस साल 29 जनवरी को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का समापन लाल चौक में तिरंगा फहराकर किया था। इस दौरान वहां माहौल सामान्य था।
                    बीते चार साल में बड़ा फर्क यह देखने को मिला कि इसी घंटाघर के ऊपर तिरंगा अब स्थायी रूप से लहराने लगा है। इसे पिछले साल ही स्थापित ‍िकया गया है। स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत पूरे घंटाघर का नवीनीकरण और चौक का सौंदर्यीकरण किया जा रहा है। यहां फव्वारे और लोगों के बैठने के लिए बेंचें लगा दी गई है। अब वहां पहले की तरह ज्यादा सुरक्षाकर्मी नहीं दिखते। यहां शहर का मुख्य बाजार भी है, इसलिए लोग आम दिनों की तरह आते- जाते, खरीदारी करते दिखे। श्रीनगर आने वाले सभी पर्यटक लाल चौक आते और तस्वीरें जरूर खिंचवाते हैं। कोकरनाग के आतंकी हमले में शहीद हुए वीरों को यहां आयोजित शोक सभा में लोगों ने श्रद्धांजलि भी दी।  
                     लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कश्मीर सब कुछ एकदम सामान्य है। वहां सुरक्षा बलो की भारी तैनाती से हालात को काबू में रखा हुआ है। लेकिन जब तब आतंकी हमले, घुसपैठ और कश्मीर में अलगाववाद भड़काने की कोशिश बदस्तूर जारी हैं। बीती 14 सितंबर को जब कश्मीर के कोकरनाग में बड़ा आंतकी हमला हुआ और इसमें सेना के दो और जम्मू कश्मीर पुलिस का एक वरिष्ठ अधिकारी सहित कुछ जवान भी शहीद हुए  तो जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यीमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूख अब्दुल्ला ने सवाल उठाया था कि कौन कहता है कि कश्मीर में शांति बहाल हो गई है? फारूख का कहना इस मायने में सही था कि धारा 370 हटने के बाद भी कश्मीर घाटी में आतंकी हमले थमे नहीं हैं, तुलनात्मक रूप से उसमें कमी जरूर आई है। क्योंकि सुरक्षा बल आतंकियों के एक षड्यंत्र को नाकाम करते हैं तो वो दूसरा नया तरीका ढूंढ लेते हैं। कई लोगों ने 2019 के पुलवामा हमले पर सवाल उठाए थे। इस आत्मघाती हमले में सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हुए थे। इस हमले में भी आतंकियों ने नए तरीके का इस्तेमाल किया था। 14 फरवरी 2019 को यह हमला पुलवामा जिले के लेथपुरा गांव के बीचोबीच हुआ था। हालांकि विस्फोट के कारण बना भारी गड्ढा अब भर ‍दिया गया है, लेकिन  यह जगह अब पर्यटकों की जिज्ञासा का केन्द्र बन गई है। लेथपुरा अपने केसर व ड्राट फ्रूट मार्केट के लिए जाना जाता है। स्थानीय लोग बताते हैं कि इस हमले में आतंकी ने ढलान पर बने गांव के एक हिस्से को जम्मू- श्रीनगर राजमार्ग से जोड़ने वाली एक सड़क का इस्तेमाल किया था। वह ढलान से विस्फोटक भरी प्राइवेट कार में ऊपर आया और राजमार्ग से गुजर रहे सीआरपीएफ के काफिले से टकरा गया। इससे भयानक विस्फोट हुआ और सुरक्षाकर्मी कुछ समझ पाते, तब तक चालीस जवान मौत की नींद सो चुके थे। इस हमले से सबक लेकर अब सेना और पुलिस के काॅन्वाय ( काफिले) जब निकलते हैं तो पूरे ट्राफिक को आधा किमी पहले ही रोक दिया जाता है और पूरा काफिला निकल जाने के बाद ही सामान्य ‍नागरिकों को निकलने की अनुमति दी जाती है। इससे लोगों को असुविधा जरूर होती है, लेकिन पुलवामा जैसे हमलो को रोकने के लिए सुरक्षा बलों को यह कदम उठाना पड़ा है। कश्मीर में राजमार्ग की सुरक्षा का मुख्य जिम्मा सीआरपीएफ के पास है। श्रीनगर में भी सेना और सीआरपीएफ के हथियारबंद जवान  जगह- जगह तैनात रहते हैं। स्थानीय लोगों को इसकी आदत हो गई है। कोकरनाग में भी आतंकियों ने अब एक तरीके का इस्तेमाल किया, जिसे ध्वस्त करने के लिए सेना को अपने आधुनिक हथियारों का प्रयोग करना पड़ रहा है। अब आंतकी ऊंची पहाडि़यों और जंगलों के रास्ते से हमला  कर रहे हैं। अब सीधे शहरों में घुसकर हमला करने या टारगेट किलिंग की अपनी पुरानी रणनीति को उन्होंने बदल दिया है। 
                     कश्मीर का मुद्दा जिंदा रखने के लिए पाकिस्तान और दूसरी अलगाववादी ताकतें हरदम सक्रिय रहती हैं। सरकार की सख्ती से अलगाववादियों की विदेशी फंडिंग पर काफी अंकुश लगा है। यह साफ हो चुका है कि पत्थरबाजी के ‍पीछे इन्हीं लोगों का हाथ था। पाकिस्तान की पैरवी करने वाले हुर्रियत के सभी नेता सलाखों के पीछे हैं। लेकिन एक बात साफ है कि बीते चार बरस में फरक यह आया है आतंकियों को स्थानीय लोगों का समर्थन अब पहले जितना नहीं रह गया है। इस वजह से भी आतंकियों ने अपनी रणनीति बदली है। दूसरे, सेना केवल बंदूक ही नहीं चलाती। ‘सद्भावना प्रोजेक्ट’ के तहत वो स्थानीय लोगों का दिल जीतने की भी पूरी कोशिश कर रही है। इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत आर्मी कश्मीर घाटी में 45 आर्मी गुडविल स्कूल संचालित कर रही है। जिनमें 15 हजार से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं। इन स्कूलों में ‍िशक्षक भी स्थानीय कश्मीरी ही होते हैं। ये सभी स्कूल सीबीएसई से सम्बद्ध है और इनमें प्रवेश पाने के लिए काफी होड़ मची रहती है। यही नहीं इन स्कूलों से निकलने वाले होनहार बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए सेना कोचिंग भी उपलब्ध कराती है। इसके अलावा सैनिक अस्पतालों में स्थानीय लोगों का इलाज भी ‍िकया  जाता है। एक और बड़ा कदम सेना ने सरेंडर करने वाले आतंकियों को रोजगार देने का भी किया है ताकि पैसे के लालच में वो फिर आतंकी रास्ते पर न लौटें। इन लोगों  को पूरी जांच- पड़ताल के बाद असैनिक कामों में लगाया जाता है। ऐसे कई लोग नई जिंदगी जी रहे हैं। इस बात को समझा जा सकता है कि पंजाब की तरह कश्मीर के लोग भी अब आतंक और खून खच्चर के उन पुराने  दिनों  में नहीं लौटना चाहते। लेकिन यह भी सही है कि वहां आतंकवाद का पूरी तरह खात्मा होने में बहुत वक्त लगेगा। 

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