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क्या यह टीवी न्यूज एंकरों से ‘शुतुरमुर्गी असहयोग’ नहीं है?


अजय बोकिल,वरिष्ठ पत्रकार

विपक्षी इंडिया गठबंधन द्वारा देश के प्रमुख टीवी चैनलों के 14 एंकरों के बहिष्कार का मुद्दा गरमाता जा रहा है। ‘इंडिया’ के मुताबिक यह फैसला सम्बन्धित एंकरों द्वारा समाज में नफरत फैलाने के कारण लिया गया है।  मीडिया ने इस फैसले की आलोचना की है तो सत्तारूढ़ भाजपा ने इसे मीडिया को टारगेट करने का नाजीवादी तरीका बताया है।

कांग्रेस नेता पवन वर्मा इसे मीडिया द्वारा नफरत फैलाने के खिलाफ विपक्ष का असहयोग आंदोलन बताते हैं। लेकिन जो फैसला लिया गया है वह कैंसर के मरीज को खांसी की दवा देने जैसा है। उन दो- चार एंकरों को छोड़ दें, जो एंकरिंग करने के साथ- साथ अपने चैनलों के मालिक भी हैं बाकी एंकर तो केवल हुक्मबरदारी ही कर रहे हैं। वो वही कर रहे हैं, जो उनके करने के लिए कहा जा रहा है अथवा मीडिया संस्थानों के मालिकों को अपेक्षित है। यानी बात यहीं से शुरू होती है।

 
‘इंडिया’ गठबंधन ने बड़ी चतुराई से मीडिया घरानों के बजाए एंकरों यानी टीवी पत्रकारों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है, जोकि सही नहीं है। इससे कुछ हासिल भी होने वाला नहीं है, जब तक कि इस बात पर गौर न किया जाए कि एंकर ऐसा क्यों कर रहे हैं? किन परिस्थितियों अथवा दबाव में कर रहे हैं? ऐसा करके उन्हे क्या लाभ हो रहा है और वो किस कीमत पर ऐसा कर रहे हैं? अगर यह विपक्ष का न्यूज एंकरों से ‘असहयोग’ है तो इसे ‘शुतुरमुर्गी असहयोग’ ही कहा जाएगा।

यह बात पहले भी उठती रही है कि अब देश में सत्ताधीशों को प्रतिबद्ध मीडिया की अपेक्षा है। पचास साल पहले इमर्जेंसी के दौर में तो प्रिंट मीडिया पर सीधे सेंसरशिप ही लागू कर दी गई थी। अखबारों में वही लिखा और छापा जा सकता था, जो सत्ताधीशों को सुहाता था। जबकि समाज के एक वर्ग का मानना है कि मीडिया को हमेशा ‘विपक्ष’ की भूमिका में रहना चाहिए।

हालांकि ऐसी बात करने वाले साम्यवादी देशों में मीडिया की हालत को नजरअंदाज करते हैं। दूसरी तरफ जो सत्ता पर काबिज हैं, वो चाहते हैं कि टीवी चैनलो और अन्य मीडिया में भी वही दिखाया, लिखा और गुना जाए जो सत्ता को पसंद है, उसके अनुकूल और सुविधाजनक है।

 

दूसरे शब्दों में कहें तो मीडिया को सरकारों की खामियां दिखाने के बजाए उसे सरकार की इमेज बिल्डिंग में हरावल दस्ते की भूमिका निभाना चाहिए। ताकि जनता में ‘सही’ संदेश जाए।

इसी परिप्रेक्ष्य में बीते एक दशक में तकरीबन हर न्यूज चैनल में टीवी बहसों की बाढ़ सी आ गई है। अमूमन इसमें उन्हीं लोगों को बुलाया जाता है, जो गाली- गलौज में माहिर हैं या फिर सार्वजनिक रूप से ऐसी बात कहने में सक्षम हैं, जिस पर बवाल मचे।

न्यूज एंकरों पर एक गंभीर आरोप यह भी है कि वह अमूमन ऐसे विषय चुनते हैं, जिसका अंतिम लाभ सत्तापक्ष को मिलता है। अगर बहस विपरीत दिशा में जा रही हो या प्रतिपक्ष का पलडा भारी महसूस होता हो तो बहस को वापस उसी दिशा में मोड़ दिया जाता है, जिसका राजनीतिक लाभांश देश में सत्तारूढ़ दल को हो।

लिहाजा इस तरह की टीवी बहसों में गंभीर तर्क-  वितर्क की जगह कुतर्कों और व्यक्तिगत छीछालेदार की भरमार होती जा रही है। ऐसे- ऐसे चेहरे बहस के लिए बुलाए  जाते हैं, जिन्हें सामान्य स्थिति में कोई बगल में बिठाना भी पसंद न करे।
 
आजकल लगभग सभी टीवी न्यूज चैनलों की आंखे दो अलग- अलग निशानों पर होती हैं। एक आंख सत्ताधीशों की कृपा पर तो दूसरी आंख टीआरपी पर। सत्ता की कृपा से पद, प्रतिष्ठा के लाभ है तो बेहूदा बहस कराने में जो जितना कामयाब होगा, उसकी टीआरपी उतनी ही तेजी से बढ़ेगी।

इसका सीधा लाभ विज्ञापनों में मिलता है और टीवी चैनल की जेबें भरती हैं। वैसे भी गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा में कोई टीवी चैनल सफलता से चलाना चुनौती भरा है। अलबत्ता न्यूज चैनलों की इस ‘क्रूर बहस’ में बलि उस दर्शक की चढ़ती है, जो सिर्फ मन मसोसने के लिए अलावा कुछ नहीं कर सकता।

उधर ‘बहिष्कृत’ टीवी एंकरों का मानना है कि ‘इंडिया’ की यह सूची वास्तव में उन्हें ‘टारगेट’ करने का प्लान है। कुछ उसी तरह कि जैसे टीवी बहस के दौरान कुछ वक्ताओं को ‘टारगेट’ किया जाता है। यानी चहेते वक्ताओं से तीखे सवाल नहीं किए जाते और ‘टारगेटेड’ वक्ता से टेढ़े और कई बार असुविधाजनक सवालों की झड़ी लगा दी जाती है।

कांग्रेस नेता पवन वर्मा का ‘इंडिया’ के फैसले का समर्थन इस आधार पर कर रहे हैं कि ‘हम इन एंकरों के नफरत फैलाने का हिस्सा नहीं बनना चाहते। उन्हें जब भी अपनी गलती का अहसास होगा, हम चैनलों पर जाना शुरू कर देंगे। यह बहिष्कार नहीं, असहयोग आंदोलन है।‘

विपक्ष का यह भी आरोप है कि मीडिया के एक वर्ग पर भाजपा ने कब्जा कर लिया है, लिहाजा वो टीवी बहसों की एंकरिंग उसी अंदाज में करते हैं, जिससे भाजपा को राजनीतिक लाभ हो। जबकि हकीकत यह है कि हर सरकार अपने ’हितैषी’ पत्रकारों, जिनमें न्यूज एंकर  भी शामिल हैं, को यथा संभव संवर्द्धन करती है। विपक्ष द्वारा राजनीतिक लाभ के आरोप में सचाई हो सकती है, लेकिन सिर्फ इस कारण से तस्वीर का दूसरा पहलू रखने से बचना सही रणनीति नहीं है।
 
‘इंडिया’ गठबंधन के प्रवक्ताओं की गैरमौजूदगी से टीवी बहसें रुक जाएंगी, ऐसा तो नहीं है। वैसे भी किसी राजनीतिक दल के प्रवक्ता द्वारा  चैनल की बहस में जाना अथवा न जाने का फैसला कोई नया नहीं है। कई बार राजनीतिक पार्टियां सीधे सवालों से बचने के लिए न्यूज चैनलों पर अपने प्रतिनिधि नहीं भेजती। ऐसा अमूमन तब होता है, जब किसी संवेदनशील मुद्दे पर पार्टी की कोई स्पष्ट राय नहीं होती या फिर वो उसके राजनीतिक लाभ- हानि का त्वरित आकलन नहीं कर पाती। लेकिन यह बहस से स्वेच्छा से खुद को अलग रखना है, कोई घोषित बहिष्कार नहीं।

बहरहाल, यह कड़वी सच्चाई है कि विपक्ष के इस बहिष्कार आह्वान में सीधे तौर पर टीवी न्यूज चैनलों से पंगा लेने से बचा गया है। इसमे इस हकीकत को नजरअंदाज करने की चाल है कि वे टीवी चैनलों की बहसों में मालिकों की भी कोई जिम्मेदारी है। सारा ठीकरा न्यूज एंकरों पर फोड़ने की कोशिश है। गोया न्यूज चैनलों में न्यूज एंकरों की कोई अलग स्वायत्त सत्ता हो।  
न्यूज चैनलों की दुनिया के जानकारों को पता है कि कैसे खबरों पर ‘खेला’ जाता है और किसी भी मुद्दे का नरेटिव सेट करने के पीछे कौन सा तंत्र काम करता है। इस पूरे तंत्र में एंकर की भूमिका वास्तव में ‘मोहरे’ भर की होती है। चेहरा और जबान उसकी होती है, प्राॅम्प्टिंग कहीं और से होती है।

दरअसल, इसका कारण बहुत साफ है कि टीवी चैनल मालिकों के अपने आर्थिक और राजनीतिक हित है, जिस पर आंच आना वो गवारा नहीं कर सकते। वो दौर गया, जब मीडिया मालिक पत्रकारीय मूल्यों और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए सत्ता से किसी भी हद तक टकरा सकते थे। नए पूंजीवादी मीडियाकर्म में पत्रकारों की भी आर्थिक सेहत सुधरी है, लेकिन बोलने और लिखने की आजादी की कीमत पर। 

विपक्षी गठबंधन ने ऐसा क्यों किया, इस पर भी विचार जरूरी है, लेकिन यह प्रवृत्ति मीडिया की दृष्टि से घातक है, क्योंकि इसका एक संदेश यह भी जा रहा है कि विपक्ष भी अपने लिए वैसा ही ‘अनुकूल’ मीडिया चाहता है, जिसके लिए आज वह सत्तापक्ष की आलोचना कर रहा है।
 
लोकतंत्र की दृष्टि से देखें तो उस मीडिया की तारीफ तो की जाती है, जो ‘प्रतिरोध’ की बात करता है, लेकिन जनता अमूमन उस मीडिया के साथ खुलकर खड़ी नहीं होती, जो अपने वजूद को दांव पर लगा कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल्य को बचाने की कोशिश कर रहा होता है। यहां जनता की भूमिका केवल मूक दर्शक की या शाब्दिक सहानुभूति जताने की ज्यादा होती है।

इस मायने में अमेरिका, ब्रिटेन और कुछ अन्य लोकतांत्रिक देशों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती, जहां बोलने की आजादी पर िकसी भी प्रकार के अंकुश के विरोध में जनता सड़क पर उतर आती है।

इजराइल में हम देख ही रहे हैं कि न्यायपालिका के पर कतरने की सरकार की कोशिशों का नागरिक लगातार विरोध कर रहे हैं। जिस दिन भारत में भी मीडिया की निष्पक्षता और प्रामाणिकता के पक्ष में जनमत सड़क पर उतरने लगेगा तब न तो मीडिया समूहों को एंकरों का ‘गाइड’ करना पड़ेगा और न ही सत्ता पक्ष मीडिया को चाकर की भूमिका में लाने का दुस्साहस कर पाएगा। 

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