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भाजपा नेतृत्व का यह रुख आत्मघाती तो नहीं....!


राज- काज
दिनेश निगम ‘त्यागी’,वरिष्ठ पत्रकार
                  विधानसभा का यह संभवत: पहला ऐसा चुनाव है जो भाजपा-कांग्रेस के लिए जीवन मरण का प्रश्न है, दोनों दलों के बीच कड़े मुकाबले के हालात हैं, बावजूद इसके भाजपा अपने उन वरिष्ठ नेताओं की परवाह नहीं कर रही, जिनके परिश्रम की बदौलत पार्टी यहां तक पहुंची। पहले रघुनंदन शर्मा का दर्द बाहर आया था, फिर उमा भारती की पीड़ा छलकी, इसके बाद ताई अर्थात सुमित्रा महाजन और अब कृष्ण मुरारी मोघे ने अपनी पीड़ा का इजहार किया। इन सभी ने पार्टी के पितृपुरुष कुशाभाऊ ठाकरे के साथ काम किया है और उमा भारती तो राजमाता विजयाराजे सिंधिया की प्रेरणा से भाजपा में आई थीं। सभी का एक ही दर्द है कि जन आशीर्वाद यात्राएं निकल रही हैं। चुनाव में जीत के लिए पार्टी हर संभव कोशिश करती दिख रही है लेकिन उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। ये सभी नेता भाजपा नेतृत्व को खरी-खरी सुना रहे हैं। कह रहे हैं कि भाजपा अब कुशाभाऊ ठाकरे की पार्टी नहीं रही, रास्ते से भटक रही है। ये चाहते हैं कि इनकी पूछपरख हो। इनका उपयोग किया जाए, लेकिन लगता है मौजूदा नेतृत्व ने इनसे किनारा कर इन्हें मार्गदर्शक मंडल में डालने का मन बना लिया है। तभी तो कोई इनसे बात तक करने तैयार नहीं है। चुनाव के दौरान नेतृत्व का यह रुख आत्मघाती साबित हो सकता है। 
भगदड़ ने खड़े किए ‘प्रबंधन कौशल’ पर सवाल....
                  भाजपा में जिस तरह केंद्रीय स्तर पर अमित शाह को प्रबंधन कौशल का महारथी और रणनीतिकार माना जाता है, मध्यप्रदेश में यह सोहरत नरेंद्र सिंह तोमर को प्राप्त है। शिवराज सिंह चौहान के साथ मिलकर तोमर दो चुनावों में अपने रणनीतिक कौशल का परिचय दे चुके हैं। उनकी इस क्षमता के कारण ही इस बार भी उन्हें प्रदेश भाजपा की चुनाव प्रबंधन समिति का प्रमुख बनाया गया है। आम धारणा है कि जिस तरह कांग्रेस में दिग्विजय सिंह रूठे नेताओं को मनाने और उन्हें एकजुट करने में माहिर हैं, भाजपा में यह कला तोमर के पास है। भाजपा में मानीटिरिंग के लिए अमित शाह हैं ही। फिर भी भाजपा में भगदड़ के हालात हैं। शुरूआत चंबल-ग्वालियर अंचल से हुई थी लेकिन अब हर अंचल के प्रमुख नेता भाजपा को छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम रहे हैं। क्या यह माना जाए कि इस बार तोमर प्रबंधन कौशल में फेल हो रहे हैं? या बाजी इतना हाथ से निकल गई, जिसे संभाल पाना मुश्किल है। दिलचस्प यह भी है कि भाजपा के बड़े-बड़े नेता पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में जा चुके हैं। कुछ ने जाने का ऐलान कर रखा है। लेकिन अब तक ऐसी कोई खबर नहीं आई कि पार्टी छोड़ने वाले नेताओं को मनाने की कोई कोशिश हो रही है। ऐसा ही नाराज वरिष्ठ नेताओं के मसले पर हो रहा है। भाजपा अति आत्मविश्वास का शिकार तो नहीं?
कमलनाथ-शिवराज में यह बेसिक फर्क तो है....!
                  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की विचारधारा अलग-अलग है, दोनों के अलग दल हैं, काम की शैली भी भिन्न हो सकती है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण होती है, मिलने की शैली। दोनों की मिलने की शैली में बेसिक फर्क है। शिवराज मिलते हैं तो गले लगकर, आत्मीयता से, जबकि कमलनाथ मुलाकात के समय औपचारिकता करते नजर आते हैं। यह सच है कि दोनों के पास मीडिया से मिलने का समय कम होता है लेकिन जब भी समय मिलता है, शिवराज दिल खोलकर मिलते नजर आते हैं। किसी काम के लिए कभी इंकार नहीं करते, जबकि काम तो दूर कमलनाथ से मिलने का समय लेना ही मुश्किल है। कमलनाथ भी पत्रकारों को भोजन पर बुला चुके हैं और शिवराज ने भी पत्रकार समागम किया। शिवराज ने समूची मीडिया का दिल जीत लिया। उन्होंने कोई लंबा चौड़ा भाषण नहीं दिया, सीधे पत्रकारों के लाभ से जुड़ी घोषणाएं कर डालीं। भले आप मुझे स्वार्थी कहें, लेकिन इसके लिए शिवराज की तारीफ तो बनती है। उनके ऐलान से साफ है कि वे आम पत्रकारों की पीड़ा समझते हैं। उनके द्वारा की गर्इं घोषणाएं इसका उदाहरण हैं। कमलनाथ को इस समागम और घोषणाओं पर कटाक्ष करने की बजाय कम से कम इस मसले पर तो शिवराज से कुछ सीखना चाहिए।
इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने की तैयारी में एक ‘जज’....!
                    चुनाव के लिहाज से चौकाने वाली खबर है। एक जज (न्यायाधीश) इस्तीफा देकर विधानसभा चुनाव चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं। ये सागर के रहने वाले हैं। इस समय इंदौर न्यायालय में पदस्थ हैं। ये न्यायाधीश भोपाल में भी पदस्थ रहे हैं और अपने कुछ निर्णयों के कारण खासे चर्चा में रहे हैं। जज साहब सीधे कांग्रेस नेता राहुल गांधी के संपर्क में हैं। इन्हें एक दो दिन में तय करना है कि चुनाव लड़ना है या नहीं। हालांकि खबर है कि इन्होंने चुनाव लड़ने का मन बना लिया है। न्यायाधीश के नजदीकी एक मित्र का कहना है कि वे छात्र संघ में रहे हैं और अच्छे वक्ता हैं। वे चुनाव जीत सकते हैं। पूछा गया कि यदि वे चुनाव हार गए तो क्या होगा? जवाब था, वकालत करेंगे और राजनीति में रहकर समाज की सेवा। उन्हें इस्तीफा देकर चुनाव लड़ना होगा। कई बार इसमें रुकावट भी आ जाती है। जैसे, राज्य प्रशासनिक सेवा की एक अफसर निशा बांगरे का इस्तीफा अटक गया है। उन्होंने पद से  इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया था। सरकार ने इस्तीफा स्वीकार नहीं किया तो वे हाईकोर्ट पहुंच गईं। हाईकोर्ट में सरकार ने बता दिया है कि निशा बांगरे का इस्तीफा अस्वीकार कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने उचित प्रक्रिया का पालन नहीं कया। अब निशा चुनाव की तैयारी कर रही हैं और उनका इस्तीफा अधर में है।
विधायक के बाद चर्चा में दो मंत्रियों से जुड़ी सीडी....
                    जैसा आमतौर पर होता है, चुनाव के दौरान गड़े मुर्दे उखड़ने लगते हैं, प्रदेश में इसकी शुरूआत हो चुकी है। पहले ग्वालियर अंचल के एक कांग्रेस विधायक की सीडी वायरल हुई थी। इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप पूरी तरह से थमे नहीं, अब दो मंत्रियों की सीडी की चर्चा फैल गई। इनमें एक मंत्री ग्वालियर-चंबल अंचल के हैं तो दूसरे मालवा के। ये दोनों केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए थे। दोनों की सीडियां अश्लील बताई जा रही हैंं। कांग्रेस के एक नेता का कहना था कि देखते जाइए, अभी हमारे पास बहुत सारे अस्त्र हैं। समय पर सब बाहर निकलेंगे। पार्टी के नए प्रदेश प्रभारी रणदीप सुरजेवाला पत्रकारों से बातचीत में पहले ही दावा कर चुके हैं कि 2018 में सरकार के 13 मंत्री चुनाव हारे थे, इस बार 31 मंत्रियों को पराजय का सामना करना पड़ेगा। सुरजेवाला के बयान को राजनीतिक मान लें तब भी मंत्रियों से जुड़ी अश्लील सीडियां उनके साथ भाजपा को भी धर्मसंकट में डाल सकती हैं। पहले से ही इस बात की चर्चा है कि सिंधिया के कई खास नेताओं के टिकट कटेंगे, सीडियों के कारण इन मंत्रियों का टिकट भी खतरे में पड़ सकता है। एक अन्य मंत्री सेल कंपनियों से जुड़ी आर्थिक मामलों की फाइलों के कारण संकट में हैं।  
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