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संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत ने संविधान की ही की है पैरवी


डॉ. चन्दर सोनाने

               आरएसएस प्रमुख श्री मोहन भागवत ने हाल ही में नागपुर में कहा है कि जब तक भेदभाव है, तब तक आरक्षण जारी रहना चाहिए। भले ही यह दिखाई नहीं देता हो, लेकिन समाज में भेदभाव कायम है। आप इसे तर्क से समझोगे तो कभी नहीं समझ सकते। इसे परस्पर संवेदना और सद्भाव से समझना होगा। एक तरह से संघ प्रमुख श्री भागवत ने संविधान में आरक्षण के प्रावधान की ही पैरवी की है। संघ प्रमुख का यह बयान एक नई क्रान्ति का संदेश माना जा रहा है।
               आरएसएस प्रमुख श्री भागवत ने नागपुर में कहा कि 2000 वर्षों से हमने जिस वर्ग को पशु बनाकर रखा, अगर उसके लिए 200 साल आरक्षण देकर कष्ट सहना पड़े तो क्या गलत है ? हालांकि संघ प्रमुख का यह बयान संघ के आरक्षण को लेकर अब तक की अवधारणा से बिल्कुल अलग है। उनका हाल ही में दिया गया बयान उन्हीं के वर्ष 2015 में बिहार के तीसरे चरण के चुनाव के पहले आरक्षण खत्म करने की पैरवी करने वाले बयान से ठीक उल्टा है। संघ प्रमुख ने यह भी कहा कि एक वर्ग का जीवन पशुवत हो गया, लेकिन हमने चिंता नहीं की। लिहाजा आरक्षण तब तक जारी रहना चाहिए, जब तक भेदभाव पूरी तरह से खत्म नहीं होता।
               संघ प्रमुख के इस बयान से राजनैतिक विश्लेषक चुनाव के कुछ माह पहले दिए इस बयान के निहित अर्थ खोज रहे हैं। क्या इससे दलित और पिछड़े वर्ग के समाज का भाजपा के प्रति रवैया बदलेगा ? या दीर्घकालिन आरक्षण की वकालत से भाजपा का कोर वोटर नाराज होगा ? जो भी हो, संघ प्रमुख ने समाज को एक आईना तो जरूर दिखाया है। अब सोचना यह है कि संघ प्रमुख 2000 साल से जारी शोषणकारी जाति व्यवस्था के खिलाफ बोल रहे हैं तो इसे भारतीय जनता पार्टी कैसे लेगी ?
              आइये, अब हम देखते है कि संविधान में आरक्षण के संबंध में क्या प्रावधान किए गए हैं ? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इसके लिए शर्त यह है कि उस खास वर्ग को साबित करना होगा कि वह अन्य वर्गों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हुआ है। कानूनन देश में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती है। अभी देश में 49.5 फीसदी आरक्षण है। ओबीसी को 27 प्रतिशत, अनुसूचित जातियों (एससी) को 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) को 7.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। इनके अलावा आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। देश के राज्यों ने अपने यहाँ कि सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति के आधार पर अलग-अलग आरक्षण दे रखा है।
                 अनुच्छेद 330 और 332 क्रमशः संसद और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण के माध्यम से विशिष्ट प्रतिनिधित्व प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 243 क् प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण प्रदान करता है।
                 भारत में आरक्षण नीति का विचार मूल रूप से विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले द्वारा वर्ष 1882 में विकसित किया गया था। आरक्षण के पीछे मूल सिद्धांत भारत में जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता की कुप्रथा थी। देश में सबसे पहले कोल्हापुर रियासत के महाराजा छत्रपति शाहू ने गैर-ब्राह्मण और पिछड़े वर्गों के पक्ष में आरक्षण की शुरुआत की, जो 1902 में लागू हुआ। उन्होंने सभी को मुफ्त शिक्षा प्रदान की और उनके लिए इसे आसान बनाने के लिए कई छात्रावास खोले।
                  भारत ही नहीं विदेश में भी आरक्षण का प्रावधान है। अमेरिका, चीन, जापान, ब्राजील जैसे देशों में भी आरक्षण है। अमेरिका में आरक्षण को अफरर्मेटिव एक्शन कहते हैं। आरक्षण के तहत वहाँ नस्लीय रूप से भेदभाव झेलने वाले अश्वेतों को कई जगह बराबर प्रतिनिधित्व के लिए अतिरिक्त नंबर दिए जाते हैं।
                  अभी वर्तमान में देश में निम्नानुसार आरक्षण की व्यवस्था है- अनुसूचित जाति 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 7.5 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्ग 27 प्रतिशत, कुल आरक्षण 49.5 प्रतिशत। संविधान में किए गए संशोधन के अनुसार आर्थिक वर्ग से कमजोर वर्ग के लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की भी व्यवस्था की गई है। संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि राज्य को कानून के सामने सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए और साथ ही कानून की समान सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए।
              संघ प्रमुख ने वंचितों की पैरवी करते हुए एक तरह से संविधान में उन्हें दिए गए आरक्षण की ही पैरवी की है। सर्वत्र संघ प्रमुख के इस बयान की सराहना की जा रही है, किन्तु भारतीय जनता पार्टी उसे किस रूप में लेती है ? यह देखना दिलचस्प रहेगा !
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