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सनातन धर्म पर हमले का राजनीतिक मर्म !


अजय बोकिल ,वरिष्ठ पत्रकार
तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन द्वारा 
                       सनातन धर्म की आड़ में भाजपा और आरएसएस पर ताजा हमला इस साल के शुरू  में राम चरित मानस की कुछ चौपाइयों को महिला व दलित विरोधी बताते हुए उन्हें हटाने की मांग से शुरू हुई हिंदुत्व विरोधी राजनीति अब नई शक्ल में है। पिछला दांव खाली गया तो अब सनातन धर्म‍ निशाने पर है। इंडिया के बैनर तले हो रही विपक्षी एकता ने इस हमले को व्यापक स्वरूप दे दिया है। यही कारण है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन के पुत्र और राज्य के खेल विकास मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने चेन्नई में एक प्रायोजित ‘सनातन उन्मूलन  परिसंवाद’ कार्यक्रम में कहा कि सनातन धर्म सामाजिक न्याय और समानता के खिलाफ है। कुछ चीजों का विरोध नहीं किया जा सकता, उन्हें ही खत्म किया जाना चाहिए। हम डेंगू, मच्छर, मलेरिया या कोरोना का विरोध नहीं कर सकते। इसी तरह हमें सनातन को खत्म करना है। उदयनिधि ने कहा कि सनातन नाम संस्कृत का है। यह सामाजिक न्याय और समानता के खिलाफ है। उदयनिधि ने दावा ‍किया कि वो यह बात सनातन धर्म से पीडि़त लोगों की अोर से कह रहे हैं। अपने भाषण में उदयनिधि ने जहां सनातन हिंदू धर्म की तुलना मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों से की तो दूसरी तरफ संस्कृत भाषा पर भी निशाना साधा। बावजूद इस सच्चाई के कि खुद उनका नाम उदयनिधि भी संस्कृत का ही शब्द है, जिसे उन्होंने नहीं बदला। उदयनिधि के इस बयान पर भाजपा की अोर तीखी प्रतिक्रिया आई। पार्टी के आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय ने ट्वीट किया कि उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म को मलेरिया और डेंगू से जोड़ा है। संक्षेप में वह सनातन धर्म का पालन करने वाली भारत की 80 प्रतिशत आबादी के नरसंहार का आवाह्न कर रहे हैं। हालांकि बाद में उदयनिधि ने सफाई दी ‍िक उन्होंने सनातन धर्म के खात्मे की बात की है, नरसंहार की नहीं। उधर तमिलनाडु भाजपा प्रमुख के. अन्नामलाई ने स्टालिन परिवार पर निशाना साधते हुए कहा कि उदयनिधि और उनके पिता के विचार ईसाई मिशनरियों से प्रभावित हैं। गौरतलब है कि उदयनिधि से दो साल पहले तमिलनाडु कांग्रेस नेता के.एस. अलागिरी ने कहा था कि राज्य में भाजपा चुनाव में हारेगी और सनातन धर्म का नाश होगा। तमिलनाडु की एक स्थानीय पार्टी विदुथलाई चिरूथाइगल कात्ची (वीसीके) के प्रमुख थिरूमावलावन ने तो यहां तक कह डाला कि भाजपा देश पर सनातन धर्म थोपना चाहती है। सनातन धर्म तो ‘अल्कोहल से भी बदतर’ है। थिरूमावलावन ने तो 2019 के लोकसभा चुनाव को ’सनातन धर्म के विरूद्ध युद्ध’ तक बता दिया था।  

                       उदयनिधि स्टालिन के बयान पर पहले तो विपक्षी दलों में कुछ असमंजस दिखाई दिया लेकिन जैसा कि रामचरित मानस वाले मामले में हुआ था, लेकिन जल्द ही इस मुद्दे के राजनीतिक लाभ के मद्देनजर कई दल हां में हां मिलाने लगे। सबसे आश्चर्यजनक समर्थन कांग्रेस के दो नेताअों का था। पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी. चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम ने उदयनिधि के बयान को सपोर्ट करते हुए कहा कि सनातन धर्म जातिगत भेदभाव पर आधारित समाज के लिए एक संहिता के अलावा और कुछ नहीं है। सनातन धर्म के पैरोकार पुराने दौर को वापस लाने की कोशिश में हैं। जाति भारत के लिए अभिशाप है। कर्नाटक सरकार में मंत्री व कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के पुत्र प्रियांक खड़गे ने कहा कि कोई भी धर्म जो समान अधिकार नहीं देता, वो बीमारी के समान है। हालांकि कांग्रेस के ही एक प्रवक्ता प्रमोद कृष्णम ने उदयनिधि के बयान को गलत बताया। 
                          जिस कार्यक्रम में उदयनिधि ने यह बात कही, जरा उसका एजेंडा देखें। ये हैं- सनातन धर्म का घातक इतिहास, सनातन और नारी, तमिल प्रतिमान और सनातन, जाति इतिहास तथा षड्यंत्र थ्योरी, तमिल संगीत और सनातन, सनातन को थोपना और मीडिया में प्रतिरोध, सनातन धर्म राजनीति और अध्यात्म से उबरने के उपाय, सनातन धर्म नष्ट करने के अस्त्र। इस परिषद के मुख्य वक्ता डीएमके, कम्युनिस्ट व कांग्रेस के नेता थे। कार्यक्रम का आयोजन तमिलनाडु प्रगतिशील लेखक एवं कलाकार एसोसिएशन ने किया था। 
जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात है तो इस देश में सभी को अपनी बात कहने का हक है। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। भाजपा और संघ की राजनीति से परेशान दूसरे दलों ने अब उसके मूल पर चोट करने की रणनीति बनाई है। उनका मानना है कि भाजपा और संघ हिंदुत्व के नाम पर ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं। वो स‍ंविधान को भी बदलना चाहते हैं। उनका समरसता का नारा भी ढकोसला है। इन आरोपों में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन विरोधी दलों के डर का असल कारण बहुसंख्य हिंदुअोंका हिंदुत्व की छतरी तले एक होना है। जहां भी ऐसा हुआ है, वहां विरोधी राजनीतिक दल और विचार के लिए स्पेस सिकुड़ता गया है। केवल दक्षिण के तीन राज्य इससे बचे हुए हैं। तमिलनाडु में भाजपा की एंट्री अभी कुछ समय पहले हुई है। ऐसे में द्रविड़वादी और नास्तिकता की राजनीति करने वाली डीएमके की चिंता समझी जा सकती है कि वहां भाजपा ने सनातनी प्रतीको के सहारे राजनीतिक हलचल मचानी शुरू कर दी है। हालांकि तमिलनाडु की ब्राह्मण और हिंदी विरोधी राजनीति में जमीन बनाने के लिए भाजपा को बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा अन्नाद्रमुक के साथ लड़ी थी और पहली बार चार सीटें जीती थी। उसे मात्र 2.6 प्रतिशत वोट मिले थे। लेकिन इस एंट्री से सत्तारूढ़ डीएमके के कान खड़े हो गए थे। कभी एनडीए हिस्सा रही और अब कांग्रेस के साथ गठबंधन में चल रही डीएमके ने भाजपा और संघ के आगे बढ़ने की राह कांटे बिछाने शुरू कर ‍दिए हैं। सनातन धर्म पर हमला इसी की शुरूआत है। 
                          सवाल यह है कि सनातन धर्म का मुद्दा अभी क्यों उठा?  इस देश की कुल आबादी में हिंदुअो की संख्या करीब 110 करोड़ है और इनमें भी 90 फीसदी लोग सनातन धर्म के अनुयायी हैं। जहां तक धार्मिकता की बात है तो दक्षिण के हिंदू उत्तर भारत की तुलना में ज्यादा कर्मकांडी हैं। क्या यह मोर्चा उन हिंदुअों के खिलाफ भी खोला गया है? डीएमके और प्रकारांतर से ‘इंडिया’ सनातनियों के खिलाफ मोर्चा खोल कर क्या संदेश देना चाहते हैं? इसमें दो राय नहीं कि हिंदू धर्म में कई बुराइयां हैं, जिनमें प्रमुख जाति व्यवस्था है। इसमे सुधार के आंदोलन भी समय समय पर होते रहे हैं।  अभी भी हो रहे हैं। आगे भी होते रहेंगे। लेकिन केवल एक इसी आधार पर समूचे सनातन धर्म को खारिज करना  क्या संदेश लिए हुए है?  
                        दक्षिण से हुए इस हमले ने ‘इंडिया’ महागठबंधन कुछ घटक दलों के सामने जरूर  मुश्किलें पैदा कर दी है। अगर कांग्रेस जैसी अखिल भारतीय पार्टी डीएमके सनातन धर्म के मुद्दे पर समर्थन जारी रखती है तो उसे सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर और पश्चिम भारत में होगा। खासकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जहां आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस के शीर्ष नेता खुद को भाजपाइयों से ज्यादा कट्टर सनातनी साबित करने की होड़ में लगे हैं। दूसरी दिक्कत शिवसेना जैसे उन घटक दलों के साथ है, जो बार-बार अपने हिंदुत्ववादी होने की दुहाई देते हैं और जिसने हाल में ही अपना ‘राजनीतिक धर्मातंरण’ किया है। उदयनिधि के बयान से परेशान शिवसेना (यू) के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने कहा कि वो इस मामले में सीएम एम.के.स्टालिन से बात करेंगे। लेकिन स्टालिन की लाइन स्पष्ट है, वो उद्धव से क्या बात करेंगे?  सनातन धर्म पर हमले के पीछे एक रणनीति द्रविडवाद, आर्य संस्कृति विरोध और तमिल भाषा व संस्कृति को महान बताने की भी है। लिहाजा भाजपा के राजनीतिक विस्तार में एक भय तमिल संस्कृति के संकुचन या उसे हाशिए पर ठेले जाने का भी है। लेकिन उसे बचाने का सही उपाय सनातन संस्कृति पर हमला तो नहीं ही है। वैसे भी ‘सनातन’ अपने आप में कोई धर्म नहीं है। सनातन संस्कृत का शब्द है और इसका अर्थ है शाश्वत। चूंकि हिंदू धर्म की जो मान्यताएं, परंपराएं और सामाजिक व्यवस्थाएं हैं, वो थोड़े बहुत बदलाव के साथ हजारों साल से चली आ रही है, इसलिए हिंदू धर्म सनातन है। यही ऋषियों से चला आ रहा आर्ष धर्म भी है। हालांकि आज के सनातन धर्म से तात्पर्य मुख्‍य रूप सगुण देवों की उपासना, धार्मिक-सामाजिक कर्मकांड और वर्ण व्यवस्‍था में आस्था रखने से है। हिंदू धर्म में भी कई मत, पंथ और सम्प्रदाय हैं। सबकी अपनी परंपराएं और रिवाज हैं। यहां मूर्तिपूजक भी हिंदू है और निराकारपंथी भी हिंदू है। आस्तिक भी हिंदू है और नास्तिक भी हिंदू है। बावजूद इन मत-मतांतरों के हिंदू धर्म की मुख्‍य धारा सनातनपंथी ही है। आलोचकों का आरोप है कि भाजपा और आरएसएस हिंदुत्व की आड़ में उसी सनातन धर्म को बढ़ावा दे रहे हैं, जो जाति विद्वेष, दलित उत्पीड़न और मनुष्य मनुष्य के बीच जन्म के आधार पर घृणित भेद को मान्य करता है। इसलिए इसका विरोध जरूरी है। 
                           जाति व्यवस्था खत्म हो, एक ही धर्म के अनुयायियों में जन्मगत आधार पर ‍िकसी तरह का भेद न हो, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। आखिर 21 वीं सदी में आप मध्य युग के पैमानों पर नहीं जी सकते। लेकिन यहां मूल चिंता समाज सुधार अथवा सामाजिक न्याय की कम और राजनीतिक ज्यादा है। असनातनी अथवा नास्तिक हिंदुअों की राजनीतिक परेशानी यह है कि भाजपा और संघ ने सगुण आराधना के रैपर में हिंदुअों की तमाम जातियों को एक करने का काफी हद तक सफल प्रयास किया है। इससे निकले नवनीत का वह भाजपा के रूप में सत्तासीन होकर उपभोग कर रही है। पहले राम मंदिर, फिर काशी, अब मथुरा और भी कई ऐसे तीर अभी उसके तरकस में हैं, जिनकी चकाचौंध में आम हिंदू अपने ही धर्म के अंतर्विरोधों और जातीय यातनाअों को भुलाए बैठा है। गैर भाजपा दलों व सनातन विरोधियों का मानना है कि जब तक इस वर्ग को उसके सामाजिक इतिहास का पुनर्बोध न कराया जाए, उन्हें अपनी राजनीतिक संजीवनी कायम रखना दूभर है।  
यह भी भारतीय राजनीति का बड़ा विरोधाभास है कि सामाजिक न्याय और सनातन धर्म विरोध के नाम पर जाति व्यवस्था खत्म करने की पैरवी की जाती है, दूसरी तरफ जातिवाद को कायम रखने का हर राजनीति पैंतरा चला जाता है। जाति व्यवस्था को खत्म करने जातिवाद को ‘लाइफ सेविंग ड्रग’ देते रहना भारतीय राजनीति का नया दुष्चक्र है। यानी ‍िक जाति व्यवस्था को तब तक कायम रखा जाएगा, जब तक जाति व्यवस्था खत्म नहीं हो जाती। बता दें कि सनातन धर्म का विरोध करने वाले उदयनिधि और उनके पिता स्टालिन ईसई वल्ललार जाति से आते हैं, जो तमिलनाडु में अोबीसी में आती है। यानी वो जातिगत आरक्षण के मामले में तो ‘सनातनता’ चाहते हैं, लेकिन आस्था और कर्मकांड के मामले में इसका नाश चाहते हैं।  

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