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विश्‍वकर्मा पूजा : व्‍यवसाय-रोजगार में तरक्‍की के लिए इस विधि से करे भगवान विश्‍वकर्मा की पूजा


16 सितंबर को इस वर्ष विश्वकर्मा पूजा होगी। इस ​दिन भगवान विश्वकर्मा की पूजा करने की धार्मिक मान्यता है। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा की पूजा करने से बिजनेस और रोजगार में सफलता प्राप्त होती है। भगवान विश्वकर्मा को दुनिया ​का वास्तुकार एवं इंजीनियर माना जाता है। उन्होंने ही इस सृष्टि की रचना करने में परम पिता ब्रह्मा जी की सहायता की थी। भगवान विश्वकर्मा ने भी सबसे पहले संसार का मानचित्र बनाया था। आइए जानते हैं कैसे की जाती है विश्वकर्मा पूजा और क्या है धार्मिक महत्व...

ये है पौराणिक महत्व
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार परम पिता परमेश्वर ब्रह्मा जी ने उनको इस सृष्टि का शिल्पीकार नियुक्त किया था। जिसके बाद से वह इस संसार में निर्मित होने वाली सभी चीजों के मूल में विद्यामान माने जाते हैं। उस कार्य के निर्विघ्न पूर्ण होने के लिए भगवान विश्वकर्मा की आराधना की जाती है। स्वर्ग का निर्माण हो या फिर द्वारिका नगरी की, सोने की लंका बनानी हो या फिर जगन्नाथ पुरी मंदिर की मूर्तियां, सदैव भगवान विश्वकर्मा वहां विद्यमान रहे। इस वजह से वे देवताओं के शिल्पी कहे जाते हैं।

ऐसे की जाती है भगवान विश्वकर्मा की पूजा
कन्या संक्रांति के दिन सुबह फैक्ट्री, वर्कशाप, आफिस, दुकान आदि के स्वामी और उनकी पत्नी स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर लें। उसके बाद पूजा स्थान पर आसन ग्रहण करें। सर्वप्रथम दोनों लोग हाथ में जल लेकर विश्वकर्मा पूजा का संकल्प करें। इसके बाद भगवान विष्णु का ध्यान करें। उसके बाद एक कलश में पंचपल्लव, सुपारी, दक्षिणा आदि डालें और उसमें कपड़ा लपेट दें। फिर एक मिट्टी के पात्र में अक्षत् रख लें और उसे कलश के मुंह पर रखें। उस पर भगवान विश्वकर्मा की मूर्ति या तस्वीर स्थापित कर दें।

इन मंत्रों का करें स्पष्ट उच्चारण
अब उनको अक्षत्, पुष्प, धूप, दीप, गंध, मिठाई आदि अर्पित करें। इसके बाद ओम आधार शक्तपे नम:, ओम कूमयि नम:, ओम अनन्तम नम:, पृथिव्यै नम: मंत्र का उच्चारण करें। उसके पश्चात औजार, मशीन आदि की भी पूजा कर लें। फिर भगवान विश्वकर्मा की कथा सुनें और अंत में आरती करें।

भगवान विश्वकर्मा की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, जब सृष्टिं अपने प्रारंभ अवस्था में थी तब भगवान विष्णु क्षीर सागर में शेषनाग की शय्या पर प्रकट हुए थे। उनकी नाभि से कमल निकला, जिस पर चार मुख वाले ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के पुत्र धर्म थे और उनके बेटे का नाम था वास्तुदेव। वास्तुदेव अपने पिता के सातवीं संतान थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक माने जाते थे। उनका विवाह अंगिरसी नामक कन्या से ​हुआ था, जिससे भगवान विश्वकर्मा का जन्म हुआ। अपने पिता के समान ही भगवान विश्वकर्मा वास्तुकला के महान विद्वान बने।

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