जनकल्याण के लिये गुरू सान्दीपनि ने गुरूकुल की स्थापना की थी उज्जयिनी में-पं.रूपम व्यास
उज्जैन | द्वापर युग के पूर्व महर्षि सांदीपनि अपनी पत्नी गुरुमाता सुश्रुसाजी के साथ काशी छोड़कर अपने मृत पुत्रो के वियोग में अवंतिका नगरी उज्जैन में आकर बस गए थे। उस समय यह सूखा और अकाल पड़ा हुआ था ,जनता बड़ी त्रस्त थी सभी ने गुरु सांदीपनि से आग्रह किया कि महाराज आप कुछ करें हमारे बच्चे भूखे मृत हो रहे है, महर्षि सांदीपनिजी ने आश्रम परिसर स्थित श्री सर्वेश्वर महादेव पर एक बेल पत्र रखकर तपस्या की। तपस्या के फलस्वरूप भगवान भोलेनाथ प्रकट हुए और महर्षि सांदीपनि जी को वरदान दिया कि जब तक इस नगरी में महाकाल का स्थान रहेगा तब तक कभी सूखा और अकाल नही पड़ेगा और आज से इस अंचल का नाम मालवा के नाम से प्रसिद्ध होगा।
जनकल्याण के लिए किए गए कार्य से प्रसन्न होकर भगवान ने गुरु सांदीपनि को वरदान दिया कि तुम अपने नाम से एक गुरुकुल की स्थापना करो, द्वापर युग मे दो छात्र ऐसे आएंगे जो तुम्हे तुम्हारा मृत पुत्र गुरुदक्षिणा में जीवित भेंट देकर जाएंगे। महर्षि ने आश्रम की स्थापना की। द्वापर युग मे कंस का वध करने के पश्यात भगवान श्री कृष्ण और बलरामजी अध्ययन के लिए आश्रम में पधारे। 64 दिन भगवान यहां रुके 64 दिनों में 64 कलाए और 14 विद्याओ का ज्ञान महर्षि से प्राप्त किया। श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता भी इसी आश्रम में हुई थी। आश्रम परिसर में गोमती कुंड है, जिसे भगवान श्री कृष्ण ने गुरु सांदीपनि जी के लिए बाण के द्वारा स्थापित किया गया था ।इसी कुंड में महर्षि सांदीपनि स्नान किया करते थे। स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के चरण पद आज भी गोमती कुंड में देखने को मिलते है। इसी कारण से इस क्षेत्र का प्राचीन नाम अंक पाद क्षेत्र पड़ा था।
एक किवदंती के अनुसार भगवान कृष्ण अपनी स्लैट इस कुंड के जल से साफ किया करते थे। यह ऐसी मान्यता है कि भगवान के अंक रूपी अक्षर इस पूरे क्षेत्र में फैले होने के कारण आज इस पूरे क्षेत्र को अंकपात क्षेत्र के नाम से जाना जाता है । आश्रम में स्तिथ चौरासी महादेव में से चालीसवे नंबर के श्री कुंडेश्वर महादेव का भी स्थान है यहां पर खड़े नंदी की अदभुत प्रतिमा है जो कि संसार मे संभवतः एक ही है। मूल स्थान भगवान श्री कृष्ण की पाठशाला है यहां पर गुरु सांदीपनि जी एवं श्री कृष्ण,, बलराम जी,,एवं सुदामा जी की बैठी हुई प्रतिमा है। भगवान कृष्ण की बैठी हुई प्रतिमा पूरे भारतवर्ष में कहीं और देखने को नहीं मिलती है ।सभी जगह भगवान खड़े और बांसुरी बजाते नजर आते है। शिक्षा दीक्षा सम्पन्न होने के पश्चात भगवान श्री कृष्ण और बलराम शंखासुर नामक राक्षस का वध करके और पांचजन्य शंख को प्राप्त करके ,यमराज से गुरु पुत्र का पार्थिव शरीर लेकर आये ,,और गुरुजी के द्वारा सिखाई गई संजीवनी विद्या का पान कराकर जीवित करके गुरुमाता सुश्रुसा जी को भेंट किया था।