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नहीं बचेगी ज्ञानोदय ------------------------


मैं हिंदी ,ठेठ हिंदी,ख़ून हिंदी,ज़ात हिंदी हूँ
यही मज़हब,यही फ़िरक़ा,यही है खानदां मेरा 
तक़लीफ़ हो रही है । ज्ञानपीठ के ज्ञानोदय को इस तरह तिल तिल कर मरते हुए देखना । आज़ादी के बाद 1949 से ज्ञान की यह मशाल जल रही है । शब्द सत्ता को स्थापित करते हुए मुझ जैसे लाखों पाठकों के दिलों में धड़क रही है । ज्ञानपीठ सम्मान हमारे लिए हिंदुस्तान के नोबेल सम्मान से कम नहीं है । एक पत्रिका जो हिंदी साहित्य में आंदोलन बन चुकी हो ,वो लाख रुपए महीने के लिए मोहताज़ हो  - शर्म की बात है । साठ करोड़ हिंदी प्रेमियों के लिए चुल्लू में डूब मरने जैसी हालत । साहू शांतिप्रसाद जैन और उनकी पत्नी रमादेवी की आत्मा को कष्ट पहुँचाने वाला जघन्य कृत्य ।धर्मयुग,दिनमान, माधुरी,सारिका और रविवार की तरह ज्ञानोदय भी इतिहास के पन्नों में दफ़न हो जाएगी । हम लोग भाग्यशाली हैं कि इन पत्रिकाओं का स्वर्णिम दौर देखा, उनमें छपे और छपने का सुख उठाया । खेद यही है कि सोशल मीडिया के तमाम आधुनिक अवतारों के साथ जी रही नई पीढ़ियों को तो पता भी नहीं चलेगा कि इस तरह की पत्रिकाएँ और रिसाले कभी निकलते थे । 
हर महीने साहित्य की इस अनुपम धरोहर के प्रकाशन पर एक लाख रुपए का ख़र्च आता है । विज्ञापनों से इतना पैसा नहीं मिलता । इसलिए फालतू ख़र्च रोकने का उपाय - नया ज्ञानोदय बंद ही कर दीजिए । इस फ़ैसले से साहित्य -हिंदी प्रेमी दुखी हैं । कुछ प्रेमियों ने चार - छह महीनों के लिए कहीं से जुगाड़ किया है तो अब कुछ माह के लिए प्राणवायु मिल गई । उसके बाद फिर तलवार लटकेगी । राष्ट्रभाषा के इस आंदोलन को दम नहीं तोड़ने दिया जाना चाहिए ।  हम सब हिंदी प्रेमी मिलकर  क्या कर सकते हैं ?अपनी भाषा के लिए बहुत लोगों ने बड़ी बड़ी कुर्बानियाँ दी हैं । हम अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के लिए कुछ न कुछ  करें ?  
पश्चिम और योरप के देशों में इस तरह की सांस्कृतिक और साहित्यिक अभिरुचियों को वहाँ का समाज आर्थिक मदद देकर ज़िंदा रखता है । वे इसे क्राउड फंडिंग कहते हैं । इस तरह ये गतिविधियाँ बरसों चलती रहती हैं । अफसोस ! हमारे यहाँ ऐसी पहल हो तो सबसे पहले लोग पहल करने वाले की नीयत पर सवाल उठाने लगते हैं । वे समझते हैं कि चिट फंड कंपनियों की तरह यह भी धन उगाही का ज़रिया है ।कहते हैं न चंदा बिना लागत का धंधा । आज दिन में कुछ चर्चाओं से यही संकेत मिला । ऐसे में अच्छे इरादे की भ्रूण हत्या हो जाती है । अन्यथा मैंने सोचा था कि अगर चार -पाँच हज़ार लोग ऐसे मिल जाएं ,जो एक बार में दस बीस हज़ार रुपए की  मदद करें और एक कोष बनाएँ तो आजीवन ऐसी एक या दो पत्रिकाएँ निकल सकती हैं । 
एक अड़ंगा आर एन आई का भी है । पत्रिकाएँ बंद हुए बरसों हो जाते हैं । पर उनके नाम जैसे कंपनी की बपौती बन जाते हैं । खुद वे इसे घाटे का सौदा मानते हैं लेकिन उनसे शीर्षक माँगो तो उन्हें लगता है जैसे उस मृत शीर्षक से हम करोड़ों कमा लेंगे । वे तुरन्त सौदेबाज़ी पर उतर आते हैं ।अरे भाई ! जिसे आप करोड़ों की कंपनी चलाने वाले नहीं चला पाए तो हमारे पास क्या जादू की छड़ी है ? हम तो बस स्वान्तः सुखाय की भावना से चलाना चाहते हैं|  दस-बीस लोगों को रोज़गार मिल जाएगा और क्या ।आरएनआई से आपको कोई अच्छा शीर्षक मिल जाएगा-यह उम्मीद तो न के बराबर ही है । 
याने नतीजा क्या - एक विराट शून्य । 
नमस्ते । 
राजेश बादल

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