विक्रम संवत को राष्ट्रीय संवत घोषित किये जाने के लिये केन्द्र सरकार को प्रस्ताव भेजा जायेगा
भारतीय कालगणना का केन्द्र बिन्दु उज्जैन रहा है
ग्रीनविच के स्थान पर उज्जैन को पूरे विश्व की कालगणना का केन्द्र बनाया जाये
विक्रम संवत और कालगणना पद्धति पर परिचर्चा आयोजित
उज्जैन । विक्रमोत्सव के चौथे दिन गुरूवार को तारा मण्डल अंतरिक्ष परिसर वसन्त
विहार के सभाकक्ष में विक्रम संवत और कालगणना पद्धति पर परिचर्चा आयोजित की गई। यह
परिचर्चा दो सत्र उद्घाटन एवं समापन सत्र में आयोजित की गई। इस दौरान कालगणना और खगोल
शास्त्र पर आधारित आकर्षक प्रदर्शनी भी लगाई गई। प्रदर्शनी का उद्घाटन सिंहस्थ मेला प्राधिकरण
समिति के अध्यक्ष श्री दिवाकर नातू, डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित, प्रो.गोपाल उपाध्याय, पूर्व कुलपति
विक्रम विश्वविद्यालय डॉ.रामराजेश मिश्र, डॉ.राजेन्द्र के.गुप्त, ज्योतिषाचार्य पं.आनन्दशंकर व्यास और
संयुक्त आयुक्त विकास श्री प्रतीक सोनवलकर द्वारा फीता काटकर किया गया। प्रदर्शनी में टेलीस्कोप,
सौर मण्डल, शंकु यंत्र, सम्राट यंत्र, भित्ति यंत्र एवं कालगणना के अन्य यंत्र विद्यार्थियों के अवलोकनार्थ
रखे गये थे।
अतिथियों का स्वागत प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रभारी तारा मण्डल तथा वराह मिहिर वेधशाला
डोंगला के श्री शैलेन्द्रसिंह डाबी, पुरातत्वविद डॉ.प्रशान्त पौराणिक एवं डॉ.रमण सोलंकी द्वारा किया
गया। डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित द्वारा कार्यक्रम की रूपरेखा बताते हुए कहा गया कि विक्रम संवत
काल से सम्बन्धित है। काल अनन्त है, समय चलता हुआ प्रतीत होता है, परन्तु वास्तविकता यह है
कि हम चलते हैं और उत्पन्न तथा नष्ट होते रहते हैं। विदेशी आक्रमणकारी शकों को पराजित कर
विक्रमादित्य ने विक्रम संवत की स्थापना की थी। बड़े आश्चर्य की बात है कि शक संवत को राष्ट्रीय
संवत का दर्जा दिया जाता रहा है, जबकि वे हमारे देश के थे ही नहीं। जिन शकों ने देश पर आक्रमण
किया, उनके नाम का संवत अभी भी चलाया जा रहा है। सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर
देश का ऋणमुक्त किया था, अत: विक्रम संवत को राष्ट्रीय संवत घोषित करने के लिये केन्द्र सरकार
को प्रस्ताव बनाकर भेजने की आवश्यकता है। विक्रमादित्य जब 44 वर्ष के थे, तब उन्होंने विक्रम
संवत प्रारम्भ किया था।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री दिवाकर नातू ने कहा कि इस तरह की परिचर्चाएं निरन्तर
की जायें। युवा पीढ़ी के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के साथ-साथ प्राचीन भारतीय सभ्यता के बारे में भी
जानना बेहद जरूरी है। अंग्रेजी महीनों के साथ-साथ आपको हिन्दी मास, नक्षत्र एवं प्राचीन भारतीय
कालगणना के बारे में भी जानना चाहिये। आगामी 18 मार्च से भारतीय नववर्ष प्रारम्भ हो रहा है। इस
अवसर पर हमें अपने बड़ों से आशीर्वाद लेना चाहिये।
प्रो.गोपाल उपाध्याय ने कहा कि ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल रहा है। संसार में जैसे-जैसे वैज्ञानिक
उपकरण इजाद किये जा रहे हैं, वैसे लोग अब द्रव्य को तोड़ते जा रहे हैं। स्पेस टाइम क्वांटिनम के
कारण ही गुरूत्वाकर्षण पैदा होता है। समय गुरूत्वाकर्षण के कारण ही प्रभावित होता है।
पं.आनन्दशंकर व्यास ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि काल यानी समय के मूल
देवता भगवान महाकालेश्वर हैं। भारतीय कालगणना का केन्द्र बिन्दु उज्जैन रहा है। वास्तव में उज्जैन
ही कालगणना की नगरी थी, इसलिये राजा मानसिंह द्वारा सबसे पहले वेधशाला यहीं बनाई गई।
अनादिकाल से उज्जैन कालगणना की नगरी रही है। विक्रमादित्य ने भी विक्रम संवत इसीलिये चलाया
था, क्योंकि उनके द्वारा कालगणना की नगरी को विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त किया गया। श्री
आनन्दशंकर व्यास ने कहा कि यह उज्जैन के नागरिकों के लिये बड़ा हर्ष और गौरव का विषय है कि
नेपाल में विक्रम संवत को शासकीय संवत का दर्जा प्राप्त है। उज्जैन में सिंहस्थ का आयोजन भी
कालगणना के आधार पर ही किया जाता है। यहां तक कि इस सम्पूर्ण नगर और यहां बनाये गये
एक-एक मन्दिर को कालगणना के हिसाब से ही स्थापित किया गया है। भगवान महाकालेश्वर मन्दिर
के पास स्थित जूना महाकाल, अनादिकल्पेश्वर महादेव, नवग्रह मन्दिर, मंगलनाथ मन्दिर और
कर्कराज का मन्दिर इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
प्रकल्प अधिकारी आचार्य वराह मिहिर न्यास श्री घनश्याम रत्नानी ने कालगणना और इसके
परिप्रेक्ष्य में विश्व कालगणना केन्द्र डोंगला के बारे में सारगर्भित जानकारी दी। इसके पश्चात शासकीय
जीवाजी वेधशाला के अधीक्षक डॉ.राजेन्द्र गुप्त द्वारा पॉवर पाइन्ट प्रजेंटेशन के माध्यम से भारतीय
वेधशालाएं एवं कालगणना पद्धति के विस्तार के बारे में अत्यन्त रोचक जानकारी दी गई।
डॉ.रामराजेश मिश्र द्वारा कालगणना के प्राचीन से लेकर आधुनिक तक के मानकीकरण पर अपने
महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये गये।
डॉ.रमण सोलंकी द्वारा जानकारी दी गई कि उज्जैन ही कालगणना के लिये सर्वोपरि है।
विज्ञान की दृष्टि से भी यह सर्वथा उपयुक्त है, अत: ग्रीनविच के स्थान पर उज्जैन को विश्व की
कालगणना का केन्द्र बनाया जाना चाहिये।
परिचर्चा के समापन सत्र में पूर्व कुलपति महर्षि पाणिनी संस्कृत विश्वविद्यालय डॉ.मोहन गुप्त
द्वारा काल की भारतीय अवधारणा एवं गणना पर पॉवर पाइन्ट प्रजेंटेशन के माध्यम से अपने
महत्वपूर्ण विचार एवं विस्तारपूर्वक जानकारी श्रोताओं को दी गई। उन्होंने कहा कि काल के बारे में
विश्व में व्यापक स्तर पर चर्चा हो रही है। हमारी संस्कृति में काल को चक्र माना गया है। हमारे
प्राचीन भारतीय मनीषियों की सोच का आधार बहुत व्यापक था। भारतीय अवधारणा के अनुसार काल
अखण्ड, अनन्त और परमात्मा का एक गुण है, लेकिन एक गणनीय काल भी है, जिसकी गणना की
जाती रही है। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार यह गणनीय काल दो प्रकार का है मूर्त तथा अमूर्त। इस
काल का एक छेाटा खण्ड प्राण है, अर्थात जितने समय में एक व्यक्ति प्रश्वास लेता है, आज के मान
से यह समय चार सेकण्ड का होता है। इतने ही समय में पृथ्वी एक कला घूम जाती है।
पश्चिम की अवधारणा में काल एक रेखीय है, लेकिन प्राचीन भारतीय संस्कृति में काल के
स्वरूप तीन प्रकार के माने गये हैं। छोटा काल, जिसका प्रतीक सुदर्शन चक्र है। दूसरा प्रतीक भगवान
शिव के गले में सर्प के समान है और तीसरा प्रतीक धनुष है जिसके दोनों छोर खुले हैं। इससे काल
के आदि और अन्त का पता नहीं चलता है। भगवान शिव को ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। यही
एक मुख्य वजह हो सकती है कि उज्जैन जहां भगवान महाकालेश्वर स्थित हैं, वहां से कालगणना की
जाती रही हो। डॉ.मोहन गुप्त ने कालगणना के आधार पर जानकारी दी कि आगामी 18 मार्च को
विक्रम संवत 2075 में सृष्टि के आरम्भ के 1, 95, 58, 119 वर्ष पूरे हो जायेंगे। डॉ.गुप्त ने कहा कि
हमारी भारतीय संस्कृति में प्रत्येक क्षेत्र में शोध के विशाल भण्डार मौजूद हैं। विद्यार्थी भारतीय
मनीषियों के ज्ञान को आधार मानकर अध्ययन करें।
इसके पश्चात अतिथियों को स्मृति चिन्ह एवं प्रमाण-पत्र वितरण किये गये। आभार प्रदर्शन श्री
घनश्याम रत्नानी द्वारा किया गया।