सम्राट विक्रमादित्य कोई काल्पनिक शासक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक थे
पुष्यमित्र शुंग के समकालीन थे विक्रमादित्य
उज्जैन। सम्राट विक्रमादित्य और उज्जैन के गौरवशाली अतीत के स्मरण के पर्व विक्रमोत्सव
के तीसरे दिन बुधवार को विक्रम विश्वविद्यालय के शलाका दीर्घा सभागृह में विक्रमादित्य के पुरातात्विक साक्ष्य
पर शोध संगोष्ठी आयोजित की गई। यह संगोष्ठी विक्रमादित्य शोध संस्थान मध्य प्रदेश शासन संस्कृति विभाग
और प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग विक्रम विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित हुई। संगोष्ठी
के मुख्य अतिथि सिंहस्थ मेला प्राधिकरण समिति के अध्यक्ष श्री दिवाकर नातू और विशिष्ट अतिथि प्रो.आरसी
ठाकुर, विक्रमादित्य शोध संस्थान के निदेशक डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित और प्रो.धवन रहे। स्वागत भाषण
प्रो.आरके अहिरवार ने दिया। संगोष्ठी में शोध विद्वानों द्वारा अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किये गये, जिनमें सम्राट
विक्रमादित्य के पुरातात्विक साक्ष्यों से सम्बन्धित तथ्य अतिथियों के सामने बड़े ही रोचक तरीके से बताये गये।
अश्विनी शोध संस्थान के प्रो.आरसी ठाकुर ने संगोष्ठी में विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमारा
इतिहास 200 वर्षों तक अंग्रेजों से प्रभावित रहा है। अंग्रेजों को विक्रमादित्य से जितनी पीड़ा थी, उससे ज्यादा
समस्या विक्रम संवत से भी थी। वे नहीं चाहते थे कि विक्रम संवत लोकप्रिय एवं सर्वमान्य हो। एक साजिश के
तहत ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों को नष्ट किया गया है, लेकिन सत्य को कुछ समय के लिये दबाया
जा सकता है, परन्तु छुपाया नहीं जा सकता। यह बात पुरातात्विक साक्ष्यों से साबित हो चुकी है कि सम्राट
विक्रमादित्य कोई काल्पनिक शासक नहीं, बल्कि महान ऐतिहासिक जन-नायक थे।
उन्होंने बताया कि विक्रमादित्य के काल में एक-एक घटनाक्रम से सम्बन्धित मुद्राएं चलाई गई थी।
विक्रमादित्य ने उनके शासन के दसवे वर्ष में रूद्र महोत्सव मनाया था, जिन्हें सिक्कों में अंकित किया गया है।
ये मुद्राएं ही एक बहुत बड़ा प्रमाण हैं कि विक्रमादित्य वास्तव में थे। उस समय मुद्राएं सम्पूर्ण देश में संचार का
माध्यम थी। सम्राट विक्रमादित्य के समय के कई आभूषण, रत्न और शिलालेख पुरातात्विक खुदाई में प्राप्त हुए
हैं। अश्विनी शोध संस्थान में भी तीन क्विंटल से अधिक विक्रमादित्यकालीन सिक्के, सीलें संरक्षित की गई हैं।
इसके अलावा उस समय के कई अस्त्र-शस्त्र भी प्राप्त हुए हैं। विक्रमादित्य के समय देश और अवन्तिका नगरी
अत्यन्त सम्पन्न हुआ करती थी। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि विक्रमादित्य के कारण ही हमारा देश
सोने की चिड़िया कहा गया।
विक्रमादित्यकालीन सिक्कों पर पर्यावरण संरक्षण, राष्ट्रहित और नारी के सम्मान का भी सन्देश मिलता
था। विक्रमादित्य ने उनके शासन में कई प्रयोग किये हैं। नन्दूर उत्खनन से मिट्टी का बर्तन प्राप्त हुआ था,
जिसमें श्री विक्रमस नाम अंकित था।
प्रो.भारद्वाज ने कहा कि इतिहास में कई शासकों द्वारा सम्राट विक्रमादित्य की उपाधि धारण की गई,
जिस कारण मूल विक्रमादित्य को काल्पनिक मान लिया गया। विक्रमादित्य के इतिहास के प्रमाणीकरण के लिये
पुरातात्विक साक्ष्यों की बहुत आवश्यकता है। इसके लिये उज्जैन के पुरातत्वविदों द्वारा निरन्तर अथक प्रयास
किये गये और वे आगे भी जारी रहेंगे। विक्रम संवत के शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के और अनेक आभूषण प्राप्त
हुए हैं। उज्जयिनी के प्राचीन सिक्कों में दण्डधारी मुकुट पहने सम्राट विक्रमादित्य को बताया गया है। राजस्थान
को गंधार के अभिलेखों में मालव संवत का उल्लेख मिलता है, अत: इसमें कोई संशय नहीं है कि सम्राट
विक्रमादित्य वास्तव में एक महान ऐतिहासिक शासक थे न कि काल्पनिक। प्राचीन 'कतस' नाम की मुद्रा में भी
सम्राट विक्रमादित्य का वर्णन मिला है।
श्री दिवाकर नातू ने अपने उद्बोधन में कहा कि शोध विद्यार्थी इस तरह की शोध संगोष्ठियों का लाभ
लें और यहां से अर्जित ज्ञान को सभी के साथ बांटें तभी अधिक से अधिक लोग इतिहास से जुड़ सकेंगे। शोध
विद्यार्थी संगोष्ठी में जो कुछ भी सुनें उसे नोट अवश्य करें, तभी पुरातात्विक तथ्यों को संग्रहित किया जा
सकेगा।
डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित ने कहा कि आधुनिक शिक्षा पद्धति ने प्राचीन भारतीय परम्परा पर सन्देह
करने की प्रवृत्ति को जन्म दिया है। इसी कारण सम्राट विक्रमादित्य का अस्तित्व भी संशय के घेरे में आ गया।
विक्रमादित्य के अस्तित्व से सम्बन्धित कई साक्ष्य मिले हैं और भविष्य में भी पुरातत्वविदों को मिल सकते हैं।
सन 1975 में पं.विष्णु श्रीधर वाकणकर को विक्रमादित्यकाल की एक सील मिली थी, जिसमें सम्राट
विक्रमादित्य का नाम संस्कृत में अंकित था। अमलेश्वर में स्तंभलेख है, जिनका वाचन करने पर यह जानकारी
मिली कि कृत और विक्रम दोनों एक ही व्यक्ति के नाम थे। पिंगलेश्वर में कुछ मुद्राएं मिली हैं, जो शुंगकालीन
हैं। चकरावदा में प्राचीन शिवलिंग के ऊपर कई लेख मिले हैं, जिनके वाचन में पता चला है कि ये विक्रम संवत
8 में प्रकाशित किये गये। कृत संवत विक्रम संवत का ही पूर्व नाम था। इसापूर्व प्रथम शताब्दी में उज्जैन को
मालवा कहा जाने लगा।
इतिहास में मूलदेव ने एक काव्य लिखा था, जिसमें पाटलीपुत्र के मौर्य राज्य में आग लगाये जाने का
प्रसंग आता है तथा उसी समय मूलदेव और पुष्यमित्र शुंग का भी युद्ध हुआ था। ऐतिहासिक साक्ष्यों पर नजर
डालने पर यह पता चलता है कि मूलदेव, पुष्यमित्र शुंग और विक्रमादित्य समकालीन थे। मेगस्थनिज और
अलबरूनी जैसे कई विदेशी साहित्यकारों ने सुनी-सुनाई बातों पर भारत से दूर रहकर यहां के इतिहास पर कई
ग्रंथ लिखे, जिसे इतिहासकारों द्वारा प्रमाणित माना गया। यह खेद का विषय है कि हमारे प्राचीन पुराणों को
गलत मानकर हम विदेशी साहित्यकारों की बात पर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं। इस प्रवृत्ति को बदलने की
आवश्यकता है।
विक्रम विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति प्रो.एचपी सिंह ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि
प्राचीन इतिहास के बारे में जानने के लिये वैज्ञानिक उपकरणों और कार्बन डेटिंग का इस्तेमाल शोधार्थियों को
करना चाहिये। इतिहास को कभी भी संभावनाओं से न जोड़ते हुए निश्चितता से जोड़ने की आवश्यकता है।
सम्राट विक्रमादित्य के प्राचीन इतिहास से सम्बन्धित शोधपत्र महज स्थानीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय और
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के जर्नल में प्रकाशित करने की आवश्यकता है, तभी उज्जयिनी के इतिहास से लोग पुन:
परिचित हो सकेंगे। कई पुरातत्वविदों पर सम्राट विक्रमादित्य के अस्तित्व को प्रमाणित किया है। ये भी पता
चला है कि विक्रमादित्य ने ही कृत संवत बनाया, जो बाद में मालवा संवत और फिर विक्रम संवत कहलाया
जाने लगा। आभार प्रदर्शन डॉ.रमण सोलंकी द्वारा किया गया।