वेदों में लोक-कल्याण का संकल्प- न्यायमूर्ति ज्ञानी, विशिष्ट व्याख्यान सम्पन्न
उज्जैन/वेदों में राजधर्म की अवधारणा लोक-कल्याण के संकल्पों के साथ प्रस्तुत की गई है। राजधर्म में प्रजा और राजा का सम्बन्ध अभिभावक के रूप में प्राप्त होता है। यूरोप की अनेक शासन व्यवस्थाओं का उल्लेख करते हुए श्री ज्ञानी ने कहा कि राष्ट्रनीति का निर्धारण वर्तमान में इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि जिसमें चरित्र शुद्धि, ज्ञानवृद्धि एवं सहज उपलब्धी के तत्व महत्वपूर्ण हो। अतीत का विस्मरण कर कोई भी सत्ता न तो वर्तमान में सुशासन दे सकती है न भविष्य में कल्याणकारी योजनाएं दे सकती है। वेदों का मार्गदर्शन राष्ट्रधर्म होना चाहिए। हमारे ज्ञान का स्रोत वेद हैं। अतः वेदों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।
मध्यप्रदेश एवं असम उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्रदत्त ज्ञानी ने कल्पवल्ली के अंतर्गत विशिष्ट व्याख्यान देते हुए ये उद्गार व्यक्त किए।
अध्यक्षता करते हुए महर्षि पणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व कुलपति डॉ. मोहन गुप्त ने कहा कि भारतीय संविधान में हमारी पारम्परिकता का समावेश और वेद वचनों का निर्वाह अपेक्षित है। धर्म की लोकव्यापी सत्ता को रेखांकित करते हुए डॉ. गुप्त ने कहा कि मानव जीवन की समग्र शांति, अभ्युदय और राष्ट्रीय चरित्र वेदों के माध्यम से अर्जित किए जा सकते हैं।
डॉ. केदारनाथ शुक्ल ने विषयप्रवर्तन किया, श्रीमती प्रतिभा दवे ने अतिथियों का स्वागत किया तथा आभार प्रदर्शन डॉ.सन्तोष पण्ड्या ने किया।
वैदिक साहित्य में सामाजिक समभाव शोध संगोष्ठी
कल्पवल्ली के अंतर्गत वैदिक साहित्य में सामाजिक समभाव शीर्षक संगोष्ठी आयोजित हुई। जिसकी अध्यक्षता प्रो. रामपाल शुक्ल, बडौदा ने की। इस सत्र में डॉ. देवकरण शर्मा, डॉ. महेन्द्र पण्ड्या, डॉ. संकल्प मिश्र, डॉ. शैलेन्द्र पाराशर, डॉ. देवेन्द्रप्रसाद मिश्र, नई दिल्ली ने शोधपत्रों का वाचन किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. रमेश शुक्ल ने किया। इससे पूर्व चारों वेदों से शाखास्वाध्याय आमंत्रित वैदिकों द्वारा किया गया।