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कम पानी में गेहूं की फसल ली जा सकती है - कृषि विभाग


कृषक बन्धु उन्नत प्रजातियों का चयन कर अच्छी उपज ले सकते हैं
    उज्जैन । मालवा क्षेत्र में गेहूं की खेती सफलतापूर्वक की जा रही है। इस बार वर्षा कम होने से गेहूं का रकबा कम करते हुए चना, मसूर, अलसी व सरसों जैसी फसलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। किसानों से आग्रह किया जा रहा है कि वे अपने निजी उपयोग के लिये आवश्यक मात्रा में गेहूं की फसल लगायें, बाकी भूमि पर कम पानी की चना एवं अन्य फसलें करें। कृषि वैज्ञानिकों द्वारा गेहूं की ऐसी किस्मों को लगाने की सलाह दी जा रही है, जो एक से दो पानी में आसानी से अच्छी उपज दे सकती है।
    कृषि विभाग द्वारा बताया गया कि उज्जैन संभाग में लगभग सात लाख हेक्टेयर क्षेत्र में गेहूं की फसल ली जाती रही है। इस बार कम पानी गिरने की वजह से इसका रकबा कम किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में कम पानी की विपुल उत्पादन देने वाली किस्मों से कृषक अच्छा उत्पादन ले सकते हैं।
गेहूं की कम पानी में पकने वाली वैरायटीज में एनपी-3288 (जेडबलयू-3288), एचआई-1531 (हर्षिता), एचआई-1500 (अमृता), एचआई-8638 (मालव क्रान्ति) तथा एचआई-8627 (मालव कीर्ति) 120 से 135 दिनों में पक जाती हैं। इनमें एक से लेकर तीन सिंचाई की जरूरत होती है। एमपी-3288 प्रति हेक्टेयर 45 से 47 क्विंटल उत्पादन देती है। एचआई-1531 (हर्षिता) 25 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं एचआई-1500 (अमृता) 20 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन देने के साथ ही शरबती होकर रोटी के लिये उत्तम होती है। मालव क्रान्ति प्रति हेक्टेयर 25 से 30 क्विंटल उत्पादन देती है। मालव कीर्ति 20 से 30 क्विंटल उत्पादन देती है। मालव क्रान्ति तथा मालव कीर्ति सूजी, दलिये तथा रोटी के लिये उत्तम होती है।
गेहूं की बोवनी के लिये भूमि का उपचार, बीज दर
    कृषि विभाग द्वारा सलाह दी गई कि खेत की अच्छी तैयारी करने के बाद दीमक एवं भूमि में रहने वाले अन्य कीड़ों की रोकथाम के लिये क्यूनालफॉस 1.5 चूर्ण 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई पूर्व अन्तिम जुताई के साथ खेत में मिलायें। असिंचित क्षेत्रों में इसकी रोकथाम के लिये 35 किलो नीम की खली को प्रति हेक्टेयर बुवाई पूर्व अन्तिम जुताई के साथ मिलाना लाभप्रद होता है। बीजों का उपचार फफूंद नियंत्रण के लिये किया जाता है। बीजों को क्लोरीपायरीफॉस 20 ईसी 450 मिली से उपचारित कर सूखाकर बोवनी करनी चाहिये।
    बोये जाने के पहले बीज की अंकुरण क्षमता कम से कम 85 प्रतिशत होना चाहिये। अगेती एवं पछेती बुवाई के लिये 125 किलो प्रति हेक्टेयर बीज का उपयोग करना लाभप्रद होता है।
बुवाई का समय एवं बुवाई की विधि
    बुवाई का समय किसी भी फसल में उत्पादकता को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। किस्मों के आधार पर बुवाई का समय तय करना चाहिये। अगेती किस्मों की बुवाई का समय 15 अक्टूबर से नवम्बर का प्रथम सप्ताह है। समय या मध्यम किस्मों की बुवाई का समय 10 से 15 नवम्बर निर्धारित है।
    गेहूं की अधिकतम उपज के लिये कतारों में बोवनी करने की सलाह दी गई है। कतार से कतार की दूरी 22 सेमी से 30 सेमी रखना चाहिये। बीच की गहराई 3 से 4 सेमी से ज्यादा न हो। शुष्क अवस्था या सूखे में उथली बोवनी लाभप्रद होती है।
संतुलित उर्वरक प्रबंधन
    किसान भाईयों को मिट्टी परीक्षण के आधार पर उर्वरकों की सही मात्रा का निर्धारण करना चाहिये। गेहूं के लिये सामान्यत: असिंचित खेती में 40:20:10, सीमित सिंचाई में 60:30:15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के अनुपात में नत्रजन, स्फूर व पोटाश उर्वरक देने चाहिये। वर्षा आधारित तथा सीमित सिंचाई की खेती में सभी उर्वरक बुवाइ्र पूर्व मिट्टी में एकसाथ देने चाहिये।
जल प्रबंधन, निदाई-गुढ़ाई
    गेहूं की खेती में सीमित सिंचाई एक-दो पानी वाली फसलों में पहली सिंचाई 35 से 45 दिन पर तिथि दूसरी सिंचाई 70 से 80 दिन में करनी चाहिये। निदाई-गुढ़ाई प्रथम सिंचाई के 10-12 दिन बाद कम से कम एक बार करना चाहिये एवं इसके बाद समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिये।
    खरपतवारों की रोकथाम के लिये संकरी पत्तियों की खरपतवार के लिये सल्फोसल्यूरॉन नामक खरपतवारनाशी का 25 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सर्फेक्टंट के माध्यम से प्रथम सिंचाई के बाद छिड़काव किया जाना चाहिये। विगत वर्षों में जिन खेतों में गुल्ली-डंडा व जंगली जई का प्रकोप अधिक रहा हो उनमें 30 से 35 दिन की अवस्था पर आइसोपोट्यूरॉन अथवा मेराक्सिरॉन अथवा मेंजोबेंजाथयोजूरॉन निंदानाशी का प्रयोग हल्की मिट्टी में 750 ग्राम तथा भारी मिट्टी में एक किलो 250 ग्राम सक्रिय तत्व का घोल बनाकर एकसाथ छिड़काव किया जाये। किसान भाईयों का ध्यान देने वाली बात यह है कि वे कहीं भी दोहरा छिड़काव न करें।
फसल सुरक्षा
    गेहूं की फसल में दीमक का प्रकोप होने पर यथाशीघ्र चार लीटर क्लोरोपाइरीफॉस 20 प्रति हेक्टेयर सिंचाई के साथ उपयोग करना चाहिये। मकड़ी, मोयला व तेला होने पर फार्माथीन 25 ईसी या डायमिथिएट 30 ईसी एक लीटर या क्यूनालफॉस 25 ईसी 800 से एक हजार मिली का प्रति हेक्टेयर की दर से 15 दिन के अन्तराल से छिड़काव करने से इसका प्रकोप कम होगा। फलीबिटल, फड़का एवं फिल्ड किकेट्स की रोकथाम के लिये 25 किलो मिथाइल पैराथियॉन दो प्रतिशत या मेलाथियॉन पांच प्रतिशत का प्रति हेक्टेयर में सुबह या शाम के समय छिड़काव किया जाये। तनाछेदक इल्लियों के लिये एक लीटर क्यूनालफॉस 25 ईसी या फेनिट्रोथियॉन 750 मिली का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव किया जाना चाहिये।
    गेरूआ रोग से बचने के लिये अनुशंसित रोगरोधी किस्मों का प्रयोग करना आवश्यक है। रोग दिखाई पड़ते ही डायथेन जेड 78 या डायथेन एम 45 का 0.25 प्रतिशत का घोल का फसल पर छिड़काव किया जाना चाहिये। अन्य रोग होने पर कृषि वैज्ञानिक की सलाह लेकर आवश्यक उपचार किया जाना चाहिये।
फसल की कटाई एवं गहाई
    फसल की फिजियोलॉजिकल मैच्योरिटी अवस्था पर कटाई करने से कटाई के दौरान होने वाली उपज की हानि से बचा जा सकता है। पकी फसल की जल्दी कटाई करना आवश्यक है। अधिक पकी फसल में बालियां टूटती हैं एवं दाने झड़ते हैं। झड़ने वाली किस्मों की कटाई सुबह के समय की जानी चाहिये। काटी गई फसल को खलिहान में इकट्ठा कर गहाई की जाना चाहिये। गेहूं को साफ कर सूखा लेना चाहिये। सूखाने के बाद बोरों में भरकर गेहूं को संधारित किया जाये। अनाज भण्डारों में भण्डारित करने में सल्फास या ईडीवी डालकर गेहूं को सुरक्षित रखा जा सकता है।

 

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