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सुशासन के लिए अधिकारों का हों विकेंद्रीकरण



डॉ. चंदर सोनाने
 
                  हाल ही में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने घोशणा की है कि राज्य में प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन होगा। मध्यप्रदेश में प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन पूर्व में भी हुआ हैं और उसकी सिफारिशे धूल खा रही हैं। सन् 1972 में मध्यप्रदेश में श्री नरसिंहराव दीक्षित की अध्यक्षता में प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन हुआ था । आयोग ने नौ खंडां में अपनी सिफारिशें भेजी थीं । इनमें से एक प्रमुख सिफारिश यह थी कि “ विकासखंड को प्रशासन और योजना की प्राथमिक ईकाई बनाई जाना चाहिए। प्रशासन के निचले स्तर तक अधिकारों का विकेंद्रीकरण अत्यंत आवश्यक हैं।” किंतु इस महत्वपूर्ण सिफारिश को किसी भी सरकार ने अमल में नहीं लाया। मध्यप्रदेश में हाल ही में वित्त विभाग ने आश्चर्य जनक निर्णय लिए हैं। इसमें अधिकारों का विकेंद्रीकरण समाप्त कर केंद्रीयकरण करने की कोशिश की गई हैं।
                  हाल ही में राज्य सरकार के वित्त विभाग ने शिक्षा विभाग और महिला एवं बाल विकास विभाग के विकास खंड स्तर के अधिकारियों से आहरण संवितरण के अधिकार छिनकर जिला मुख्यालय में पदस्थ अधिकारियों को दे दिए हैं। अर्थात शिक्षा विभाग के विकासखंड के स्कूलों के प्राचार्यो से आहरण संवितरण अधिकार छिनकर जिला स्तर के अधिकारियों को यह अधिकार दे दिए गए हैं। इसी प्रकार महिला बाल विकास विभाग के विकास खंड स्तर पर पदस्थ परियोजना अधिकारियों से आहरण एवं संवितरण के अधिकार छिनकर जिला मुख्यालय में पदस्थ जिला अधिकारियों को दे दिए गए हैं। मजेदार बात यह है कि वित्त विभाग के इस निर्णय से शिक्षा विभाग और महिला बाल विकास विभाग के मंत्री और वरिश्ठ  अधिकारी भी सहमत नहीं हैं। इसके बावजूद वित्त विभाग के तुगलकी आदेश के कारण यह स्थिति निर्मित हो गई हैं। दोनों विभागों में सर्वाधिक अधिकारी मैदानी इलाकों में पदस्थ हैं। शिक्षा विभाग में एक विकास खंड में अनेक हायर सेकेंडरी स्कूल है। उसी प्रकार एक विकासखंड में एक से अधिक परियोजना अधिकारी भी पदस्थ हैं। पूर्व की विकेंद्रीकरण की व्यवस्था होने के कारण अधिनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों की छोटी मोटी समस्याएँ उसी स्तर पर निपट जाती थी। अब इनसे आहरण एवं संवितरण अधिकार छिन लिए जाने के कारण छोटे छोटे कामों के लिए भी इन्हें जिला मुख्यालय का मुंह ताकना पड रहा हैं। प्रकरणों के निराकरण में  विलंब होना भी स्वाभाविक है।
                  प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने हाल ही में वल्लभ भवन में पदस्थ समस्त विभागों के उच्च अधिकारियों की एक महत्वपूर्ण बैठक में अत्यंत नाराज होते हुए कहा था कि “मैं जो भी घोशणा करूं उसे पत्थर की लकीर समझा जाए। फिर उसे फाइलों या टेबलों पर घुमाने की प्रथा बंद की जाए।” मुख्यमंत्री की यह सद्इच्छा अनेक प्रश्न खडे कर रही हैं। क्या मुख्यमंत्री की घोशणा के क्रियान्वयन में उच्च अधिकारीगण अडंगे  लगा रहे हैं ? मुख्यमंत्री के आदेशों को जानबुझ कर विलंबित रखा जा रहा हैं ? या उनके निर्देशों की अवहेलना की जा रही हैं ? यहाँ शिक्षा विभाग और महिला बाल विकास विभाग के विकासखंड स्तर के अधिकारियों से आहरण संवितरण अधिकार छीन कर जिला मुख्यालय के अधिकारियों को देने का प्रयास भी क्या इसी के अंतर्गत आ रहा है। मुख्यमंत्री की जानकारी के बिना ही क्या वित्त विभाग बाले बाले ही अधिकारियों के विकेंद्रीयकरण को समाप्त करते हुए केंद्रीयकरण करने जा रहा है ं? यह प्रश्न स्वाभाविक हैं। इस पर मुख्यमंत्री को ध्यान देने की जरूरत हैं।
                     यह स्वयं सिद्ध है कि अधिकारों का विकेंद्रीयकरण होने से जनससमयाओं का तेजी से निराकरण होता हैं। और अधिकारों का केंद्रीयकरण करने से  समस्याओं के निराकरण में निश्चित ही विलंब होता हैं। प्रशासनिक सुधार आयोग के ठंडे बस्ते में पड़ी सिफारिशों पर भी गौर करने की आवश्यकता हैं। मुख्यमंत्री और प्रदेश के मुख्य सचिव  को इस और तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता हैं, ताकि अधिकारों के केंद्रीयकरण की यह बिमारी और फैलने नहीं पाए । न केवल इन पर रोक लगाई जाए , बल्कि जिन विभागों में अधिकारियों का केंद्रीयकरण किया  गया हैं उनका भी विकेंद्रीयकरण फिर से किया जाए।
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