गलत नीतियां और गलत निवेश शिप्रा के सूखने व प्रदूषण के लिए जिम्मेदार
शिप्रा नदी के क्षरण के लिए सरकारी लापरवाही और नीतियों का गलत क्रियान्वयन जिम्मेदार है। 30 साल के भीतर एक सदानीरा नदी बड़े हिस्से में सूखने और प्रदूषण की शिकार हो गई है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने पहली बार मप्र में किसी नदी के क्षरण का ऑडिट करते हुए सरकारी एजेंसियों की कारगुजारियों पर रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट को आईआईटी इंदौर की तकनीकी मदद से तैयार किया गया है। जिसमें नदी का दम घोंटने के लिए नगरीय निकायों के साथ, उद्योगों, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और सरकार द्वारा सिंचाई संसाधनों में गलत निवेश को जिम्मेदार ठहराया है।
रिपोर्ट के मुताबिक पांच साल में (2016 से 2020) के बीच शिप्रा में 12 लाख लीटर से अधिक सीवेज बहाया गया। जिसमें 3.67 लाख लीटर अनट्रीटेड था। नदी किनारे छह शहर हैं, जिनमें इंदौर और देवास को छोड़कर किसी भी शहर ने कोई सिटी क्लीनिंग प्रोग्राम नहीं बनाया। सिंचाई के लिए भूजल का ओवर एक्सप्लोरेशन हुआ, जिसके कारण नदी सूखने लगी।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने उद्योंगो की ही निगरानी की
कैग ने 11 अलग-अलग विभागों से जानकारी एकत्रित कर उनका भौतिक सत्यापन किया। वर्ष 2014 के बाद से सिंहस्थ और दूसरे त्योहारों पर नर्मदा नदी से पानी लिफ्ट कर शिप्रा में स्नान के लिए पानी उपलब्ध कराया जा रहा है। देवास उज्जैन, महिदपुर, सांवेर और आलोट के पास मल कीचड़ और सेप्टेज प्रबंधन की कोई नीति ही नहीं थी। मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सिर्फ उद्योंगो की ही निगरानी की। पीसीबी के तीन क्षेत्रीय कार्यालय इंदौर, देवास और उज्जैन ने उद्योगों को कंसेट टू स्टेबिलिशमेंट (सीटीई) और कंसेट टू ऑपरेट (सीटीओ) मंजूरियां देने में भारी लापरवाही की है। तमाम उद्योगों की सीटीओ अवधि समाप्त होने के बावजूद 46 से 615 दिनों तक देरी के बाद दोबारा कंसेट दी गई, लेकिन ऐसे उद्योगों पर कोई कार्रवाई नहीं की।