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सरकारी बाबुओं की दुत्कार, अब बनेगी चीत्कार !


निरुक्त भार्गव,वरिष्ठ पत्रकार

“जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा” जैसा नारा सुनते-सुनते कई-कई पीढ़ियों के कान पक गए और सिर के बाल भी. जमीनी स्तर पर इस तरह के नारे परिणामों के रूप  में कितना तब्दील हो पाए, इसकी समीक्षा विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र जरूर की जानी चाहिए. पूछा जाना चाहिए कि गांव, देहात, टप्पे, कस्बे और शहरों का साधारण इंसान जब अपनी समस्याएं और शिकायतें लेकर सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटता है तो उसकी ठीक ढंग से सुनवाई क्यों नहीं होती? अंग्रेजों के जमाने की याद दिलाते सरकारी दामाद और उनके व्यवहार से खिन्न और प्रताड़ित लोग क्या अपने मताधिकार के जरिये कुछ तगड़ा संदेसा देने जा रहे हैं ?   

 वो मंज़र कौन भुला सकता है जब आज से 30-40 साल पहले प्रशासन के जिला और संभागीय मुख्यालय सहित कोर्ट इत्यादि भी एक परकोटे के अन्दर किसी राजसी भवन में संचालित होते थे. इनमें बैठने वाले बड़े और छोटे बाबूओं को पकड़ा जा सकता था. उनके बंगले और अन्य रिहायशी ठिकाने भी दूर नहीं हुआ करते थे. वो एक दौर था जब कलेक्टर और एसपी के पास जीप हुआ करती थी और दूसरे-तीसरे नंबर के अफसर निजी साधनों से कार्य-स्थलों पर पहुंचा करते थे.

 अब वो दौर है जब समूचे सरकारी महकमे का अफसरीकरण हो चुका है. कलेक्टर-एसपी  लोग इनोवा सरीखे भारी-भरकम वाहनों में घूमते दिखाई देते हैं. उनके मातहत वाले लोग यानी एडिशनल कलेक्टर और एडिशनल एसपी भी उनसे कम हलके वाहनों की सवारी किए बगैर नहीं मानते हैं. एसडीएम-एसडीओपी कहां पीछे रहते हैं, वो भी एयरकंडीशंड गाड़ियों में चिपककर बैठते हैं. तहसीलदारों-टीआइयों के तो वारे-न्यारे रहते ही हैं. नायब तहसीलदार, सब-इंस्पेक्टर, गिरदावर, हेड कांस्टेबल, पटवारी और कांस्टेबल की बल्ले-बल्ले के भी क्या कहने.

 चारों तरफ दिखावे और इवेंटबाजी का चलन है, सो सरकारी तंत्र भी वैसा-ही हो चला है. बड़ी-बड़ी बहुंजिला बिल्डिंगें, बड़े-बड़े चैम्बर. अव्वल तो आपको जिस जिम्मेदार सरकारी नौकर से मिलना है, उसका चैम्बर ढूंढना दुष्कर काम होता है, फिर भी यदि श्रीमान अपनी चेयर पर धंसे मिल जाएं तो समझो आपने गंगा नहा ली. उनके चैंबर में पहले से विराजमान दलाल टाइप के लोगों के बीच यदि आगंतुक व्यक्ति साहब के समक्ष कुछ निवेदन कर पाए, तो ये उसकी खुशकिस्मती मानी जानी चाहिए.  

 मप्र में वर्ष 2014 से ‘सीएम हेल्पलाइन’ की शोशेबाजी शुरू हुई. संभवत: वर्ष 2010 से प्रति मंगलवार जिला स्तर पर ‘जनसुनवाई’ कार्यक्रम को लांच किया गया. इन ऑनलाइन और ऑफलाइन व्यवस्था के प्रगति प्रतिवेदनों का अध्ययन किया जाना अपेक्षित है. तथ्य चौंकाने वाले हैं: पीड़ित/ शोषित/ जागरूक नागरिक को एक तरह के नए सरकारी तंत्र की भूल-भुलैय्या का शिकार बनने के लिए छोड़ दिया गया है. 150 विभागों से जुड़ी समस्याओं के निराकरण की स्थिति को देखकर बहुतेरे लोगों की कुर्सी खिसक सकती है.       

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