महाराष्ट्र में आरक्षण की आग: क्या मनोज जरांगे महाराष्ट्र के नए हार्दिक पटेल साबित होंगे ?
अजय बोकिल,वरिष्ठ पत्रकार
सार
राज्य की शिंदे सरकार की मुसीबत यह है कि वह हिंदू समाज के दूसरी जातियों को नाराज किए बगैर वो इस समस्या का हल कैसे निकाले। राज्य में 31 फीसदी मराठा हैं तो इतनी ही संख्या ओबीसी की है, जिनमें भाजपा की पैठ ज्यादा है, अगर आमरण अनशन के कारण जरांगे की हालत और खराब होती है तो राज्य में हिंसा का नया दौर शुरू हो सकता है
विस्तार
एक बेहद सामान्य दिहाड़ी मजदूर सा चेहरा। चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे से बाल। शरीर पर साधारण कपड़े, लेकिन आंखों में तेज चमक और दृढ़ विश्वास। ये हैं मनोज जरांगे, जो आज महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन व राजनीति का चमकता चेहरा हैं। मनोज राज्य में मराठा समुदाय को ओबीसी दर्जा देकर सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की मांग को लेकर आमरण अनशन पर हैं। उनके लिए मराठा युवा जान देने तक को तैयार हैं।
इस बीच राज्य की तीन पहियों की शिंदे सरकार बदहवासी में है। राज्य में मराठा मुख्यमंत्री और एक मराठा उपमुख्यमंत्री होने के बाद भी किसी की समझ नहीं आ रहा है कि इस मांग का समाधान क्या हो?
महाराष्ट्र की राजनीति और आरक्षण आंदोलन में मनोज जरांगे का उदय आठ साल पहले गुजरात में ‘पाटीदार अनामत आंदोलन’ के रूप में अनाम से चेहरे हार्दिक पटेल के चमत्कारी नेता के रूप में उदय से काफी कुछ मेल खाता है। यह बात अलग है कि बाद में हार्दिक खुद राजनीति के शतरंज का मोहरा बन गए और आज वो उसी भाजपा से विधायक हैं, जिसके खिलाफ उन्होंने कभी समूचे गुजरात को हिला दिया था।
अब मनोज जरांगे का हश्र क्या होता है, यह देखने की बात है, लेकिन यह मानने में हर्ज नहीं है कि आज महाराष्ट्र में गुजरात ही खुद दोहरा रहा है।
ध्यान रहे कि इस देश में जातिवादी राजनीति का आरक्षण एक ब्रह्मास्त्र है, क्योंकि यदि आरक्षण को हटा दिया जाए तो जातिवादी राजनीति महज एक जाति आधारित वोटों की गोलबंदी या फिर समाज सुधार के सात्विक आग्रह रूप में शेष रहती है।
भारतीय समाज और खासकर हिंदुओं में सामाजिक न्याय के तहत संविधान में दलित व आदिवासियों के लिए जिस आरक्षण का प्रावधान किया गया था, उसने अब मानों यू टर्न ले लिया है।
विज्ञापन पहले माना जाता था कि जाति व्यवस्था के कारण विकास की दौड़ में पीछे रही जातियों और समुदायों को सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों व राजनीतिक आरक्षण देकर उन्हें प्रगत समुदायों के समकक्ष लाया जा सकता है और सामाजिक समता का एक लेवल कायम किया जा सकता है।
दरअसल, वोटों की राजनीति ने सामाजिक समता के इस काल्पनिक माॅडल को जल्द ही सरकारी रेवड़ी और राजनीतिक प्रभुत्व की चाह में तब्दील कर दिया, इसीलिए समाज की मध्यम जातियों ने पहले ओबीसी के तहत आरक्षण मांगा और मिला। अब वो जातियां भी खुद को पिछड़ा कहलवाना चाह रही हैं, जो सत्तर साल पहले आरक्षण को राजनीतिक दान समझ कर हिकारत के भाव से देखती थीं।
अब विडंबना है कि आज महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गुर्जर और हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग इसी संवैधानिक जातीय अवनयन में अपने सामाजिक उन्नयन की राह बूझ रही हैं।
मराठा आरक्षण आंदोलन के मंच पर जितेंद्र आव्हाड - फोटो : सोशल मीडिया
आरक्षण की लाॅलीपाप अब उन जातियों को भी तीव्रता से आकर्षित कर रही है, जो सदियो से समाज में श्रेष्ठताभाव में जीने की आदी रही हैं। यानी अब यदि उन्हें भी आरक्षण मिले तो वो किसी भी जाति के नाम का आवरण ओढ़ने के लिए तैयार हैं। इसका अर्थ इन जातियों में सामाजिक समता को लेकर कोई बुनियादी मानसिक बदलाव का होना नहीं है, केवल आर्थिक बेहतरी और राजनीतिक सत्ता पाने की तात्कालिक स्वार्थसिद्धी ज्यादा है। इसी का नतीजा है कि आरक्षण की राजनीति में अब नए और समाज की निचली पायदान से आने वाले खिलाडि़यों की गुंजाइश बन रही है। यह उस स्थापित नेतृत्व के प्रति जनता का गहरा अविश्वास भी है, जो आरक्षण की फुटबाल को इस पाले से उस पाले में ठेलते रहे हैं।
41 वर्षीय मनोज जरांगे का जन्म महाराष्ट्र के बीड जिले के मातोरी में हुआ। स्कूली शिक्षा उन्होंने वहीं जिला परिषद के स्कूल में पाई। तीन बेटियों और एक बेटी के पिता मनोज शुरू से ही मराठा आंदोलन से भावनात्मक रूप से जुड़े रहे हैं। पहले वो कांग्रेस पार्टी में थे, बाद में उन्होने अपना संगठन ‘शिवबा संघटना’ बनाया।
यूं मराठा आरक्षण आंदोलन पुराना है, लेकिन चार साल ठंडे पड़े आंदोलन में आग पैदा करने का काम जरांगे ने ही किया है। आजकल अंबड गांव के अंकुशनगर के निवासी जरांगे के लिए मराठा आरक्षण का मुद्दा जीने मरने का सवाल है। इसके लिए उन्होंने अपनी जमीन तक बेची। जालना जिले के आंतरवाली सराटी गांव में आमरण अनशन कर रहे जरांगे का तर्क है कि चूंकि मराठा जाति मूलत: कृषक जाति है, इसलिए अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आरक्षण की अधिकारी है।
खेती अब लाभ का व्यवसाय नहीं रहा, इसलिए मराठों को अन्य पिछड़ी जाति वर्ग में आरक्षण दिया जाए। जरांगे दो साल पहले भी 90 दिनों तक अनशन कर चुके हैं, लेकिन तब उसकी चर्चा ज्यादा नहीं हुई थी, क्योंकि वह आंदोलन शांतिपूर्ण था। उनके दूसरे अनशन के दौरान मराठा आरक्षण आंदोलनकारियों पर आंदोलनकारियों पर पुलिस लाठीचार्ज का मुद्दा गरमाया था। तब राज्य सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया था कि मराठों को आरक्षण के अध्ययन के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठित की गई है, जिसकी रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है। लिहाजा मनोज फिर अनशन पर बैठे और आंदोलन हिंसक हो गया। इसमें अब तक 25 मौतें हो चुकी हैं।
मराठा आरक्षण की मांग को लेकर एक ही दिन में 9 लोगों ने आत्महत्या की। कई बसे फूंक दी गई। सरकारी सम्पत्ति को भारी नुकसान पहुंचा। उधर सरकार सुप्रीम कोर्ट में भी रिव्यू पिटीशन दाखिल करने पर भी सोच रही है। लेकिन तत्काल कोई निदान नहीं दिखाई पड़ता है।
हार्दिक पटेल से तुलना क्यों ?
उधर जरांगे के बरक्स गुजरात के एक गांव में 20 जुलाई 1993 को जन्मे हार्दिक पटेल भी एक सामान्य पाटीदार परिवार से हैं। उनके पिता और छोटे कारोबारी भरत पटेल कांग्रेस कार्यकर्ता भी थे। पढ़ाई में कमजोर रहे हार्दिक शुरू में बाद में काॅलेज की पढ़ाई के लिए हार्दिक अहमदाबाद आ गए और छात्र राजनीति करने लगे। बी.काॅम. करते हुए वो सहजानंद काॅलेज छात्र संघ के निर्विरोध महासचिव चुने गए।
हार्दिक ने काॅलेज मे ही 2012 में पाटीदार युवाओं का एक समूह सरदार पटेल ग्रुप ज्वाइन किया। एक माह के अंदर ही हार्दिक इस ग्रुप की वीरमगाम शाखा के अध्यक्ष बन गए। लेकिन साथियों से विवाद के टकराव के बाद उन्हें ग्रुप से बाहर कर दिया गया।
हार्दिक के मन में पाटीदार आरक्षण की आग तब सुलगी जब उनकी बहन मोनिका ज्यादा नंबर लाने के बाद भी 2015 में सरकारी छात्रवृत्ति प्राप्त करने में असफल रहीं, क्योंकि पाटीदारों को आरक्षण नहीं था।
इसके बाद हार्दिक ने ठान लिया कि वो पाटीदारो को आरक्षण दिलाने के लिए राज्यव्यापी आंदोलन खड़ा करेंगे। इसके लिए उन्होंने पाटीदार अनामत (आरक्षण) आंदोलन समिति गठित की। इस आंदोलन का एकमात्र उद्देश्य पाटीदार जाति को आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग ( ईबीसी) का दर्जा देकर सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ दिलवाना था। इसी के तहत 25 अगस्त 2015 को अहमदाबाद के जीएमडीसी मैदान में जबर्दस्त रैली का आयोजन कर आरक्षण की मांग की गई। जल्दी ही इस आंदोलन ने जोर पकड़ लिया और कई जगह हिंसक प्रदर्शन और तोड़ फोड़ होने लगी।
पाटीदार आरक्षण आंदोलन में गुजरात में 14 आंदोलनकारियों की मौतें हुई, 230 से ज्यादा घायल हुए। सैंकड़ों सरकारी और सार्वजनिक गाडि़यां आग के हवाले कर दी गईं। 214 करोड़ रुपये की सम्पत्ति का नुकसान हुआ। 650 लोग गिरफ्तार हुए। इनमे से कई पर अभी भी केस चल रहे हैं।
हार्दिक गुजरात की राजनीति का एक चर्चित चेहरा बन गए। हार्दिक को गिरफ्तार किया गया और उन पर सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप लगे।
2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में हार्दिक ने राज्य में विपक्षी कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान कर अपनी सियासी अहमियत दिखाई। इसी दौरान हार्दिक की चरित्र हत्या की कोशिश भी हुई। लेकिन पाटीदार आरक्षण का मुददा जिंदा रहा, जिसने सत्तारूढ़ भाजपा को मुश्किल में डाल दिया। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा जीती, मगर बहुत कम बहुमत के साथ।
2018 में हार्दिक पटेल ने पाटीदार आरक्षण को लेकर 19 दिनो तक अनशन भी किया। तब उन्होंने भाजपा को ‘गोधरा के गुंडे’ बताते हुए कहा था कि मैं अगर मर भी जाऊं तो बीजेपी को कोई फरक नहीं पड़ेगा। बाद में हार्दिक ने अनशन खत्म कर दिया।
इसका दूरगामी परिणाम यह हुआ कि केन्द्र सरकार ने सामान्य वर्ग ( अनारक्षित) के आर्थिक रूप से कमजोर तबके (ईबीसी) के लिए 10 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया। जिसमें पाटीदार भी आ गए। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले हार्दिक कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। लेकिन मोदी लहर के आगे हार्दिक का जादू काम न आया, बाद में कांग्रेस ने उन्हे प्रदेश कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष बनाया लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति ने हार्दिक को पार्टी से निष्कासित करवा दिया। इसके बाद हार्दिक ने ‘व्यावहारिक राजनीति’ का रास्ता पकड़ा और भाजपा में शामिल हो गए। वे वीरमगाम से भाजपा के टिकट पर चुने गए। लेकिन भाजपा ने उन्हें अभी तक मंत्री नहीं बनाया है।
इस बीच पाटीदार आरक्षण का मुद्दा भी ठंडे बस्ते में चला गया । कभी पूरे गुजरात को हिलाने की ताकत रखने वाले हार्दिक अब सत्तारूढ़ पार्टी के महज विधायक हैं और शायद संतुष्ट भी हैं। उन्होंने अपना घर भी बसा लिया है।
इसके विपरीत मनोज जरांगे का सियासी सफर ज्यादा संघर्ष और चुनौती से भरा है। वो अपनी मांग पर अड़े हैं और सरकार को डर है कि जरांगे ने अनशन नहीं तोड़ा तो प्रदेश में मराठा और ओबीसी जातियों में आरक्षण को लेकर संघर्ष सड़कों पर आ सकता है।
दरअसल, मराठा भी कोई एक जाति न होकर समुदायों का समुच्चय है। जरांगे की मांग के मुताबिक यदि सरकार मराठों को कुणबी होने का प्रमाण-पत्र देती है तो पहले से ओबीसी में शामिल कुणबी मराठा समुदाय विरोध में उठ खड़ा होने को तैयार है। ओबीसी नहीं चाहते कि मराठों को उनके आरक्षण कोटे में हिस्सेदारी दी जाए।
इसके पहले 2018 में तत्कालीन देवेन्द्र फडणवीस सरकार ने कानून बनाकर मराठा समाज को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 16 प्रतिशत आरक्षण दिया था। - फोटो : AMAR UJALA
सर्वदलीय बैठक बेनतीजा, आखिर क्या होगा आगे?
इस बीच बदहवास शिंदे सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। सभी पार्टियों ने मराठा आरक्षण का समर्थन कर गेंद फिर सरकार के पाले में सरका दी है। यूं मराठों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग ( ईबीसी) के तहत 10 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन वो इसे नाकाफी मानते हैं। लिहाजा आरक्षण के लिए वो अपनी जाति का अवनयन ( डीग्रेडेशन) स्वीकार करने के लिए भी तैयार हैं।
इसके पहले 2018 में तत्कालीन देवेन्द्र फडणवीस सरकार ने कानून बनाकर मराठा समाज को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 16 प्रतिशत आरक्षण दिया था। लेकिन जून 2019 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे कम करते हुए शिक्षा में 12 और नौकरियों में 13 फीसदी आरक्षण तय किया।
हाईकोर्ट ने कहा कि अपवाद के तौर पर ही राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 फीसदी आरक्षण की सीमा पार की जा सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर यह कहकर रोक लगा दी कि इस मामले में बड़ी बेंच बनाए जाने की जरूरत है।
राज्य की शिंदे सरकार की मुसीबत यह है कि वह हिंदू समाज के दूसरी जातियों को नाराज किए बगैर वो इस समस्या का हल कैसे निकाले। राज्य में 31 फीसदी मराठा हैं तो इतनी ही संख्या ओबीसी की है, जिनमें भाजपा की पैठ ज्यादा है, अगर आमरण अनशन के कारण जरांगे की हालत और खराब होती है तो राज्य में हिंसा का नया दौर शुरू हो सकता है, जो महाराष्ट्र जैसे देश के सबसे धनी, विकसित और अग्रणी राज्य को बिहार की तर्ज पर घोर जातिवादी राजनीति के गर्त में धकेल सकता है।
...000...