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बिहार देश का सबसे गरीब राज्य : किसी राज्य का मुद्दा गरीबी हटाओ नहीं !


    डॉ.चन्दर सोनाने

               देश के नीति आयोग ने अपना पहला बहुआयामी गरीबी सूचकांक ( मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स - एमपीआई ) हाल ही में जारी कर दिया है । इस नेशनल इंडेक्स के अनुसार बिहार देश का सबसे गरीब राज्य है ! इस राज्य में 51.91 प्रतिशत आबादी गरीब है । इसके बाद क्रमशः सबसे गरीब राज्यों में झारखंड है । इस राज्य की 42.16 प्रतिशत आबादी गरीब है । इसके बाद नंबर आता है उत्तर प्रदेश का । इस राज्य की 37.79 प्रतिशत आबादी गरीब है । देश के सबसे गरीब राज्यों में चौथे नंबर पर मध्यप्रदेश है । इस राज्य की 36.65 प्रतिशत आबादी गरीब पायी गई है । गरीबी के मामले में सबसे अच्छी स्थिति केरल राज्य की है । यहाँ केवल 0.71 प्रतिशत आबादी ही गरीब है । 
               नीति आयोग द्वारा जारी सूचकांक में 700 से अधिक जिलों के जिला स्तरीय गरीबी का तीन क्षेत्रों स्वास्थ्य , शिक्षा और जीवन स्तर से जुड़े 12 सूचकांकों के आधार पर आकलन किया गया है । इसमें पोषण , शिशु - किशोर मृत्युदर , प्रसवपूर्व स्वास्थ्य सुविधा की उपलब्धता , पढ़ाई के वर्ष , स्कूल में उपस्थिति , सफाई , पेयजल , बिजली , घर , संपत्ति , बैंक खाते जैसे सूचकांक शामिल किए गए हैं । देश के सभी 27 राज्यों और 9 केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे गरीब राज्यों का क्रम क्रमशः इस प्रकार है - बिहार , झारखण्ड , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश , मेघालय , असम , छत्तीसगढ़ , राजस्थान , ओडिसा , नगालैंड , अरुणाचल प्रदेश , पश्चिम बंगाल , गुजरात , मणिपुर , उत्तराखंड , त्रिपुरा , महाराष्ट्र , तेलंगाना , कर्नाटक , आंध्र प्रदेश , हरियाणा , मिजोरम , हिमाचल प्रदेश , तमिलनाडु , सिक्किम , गोवा और केरल । केंद्र शासित प्रदेशों का क्रम इस प्रकार है - दादर नगर हवेली , जम्मू -  कश्मीर , लद्दाख , दमन दीव , चंडीगढ़ , दिल्ली , अंडमान निकोबार , लक्षदीप और पुड्डुचेरी ।
               नीति आयोग द्वारा जारी गरीबी के सूचकांक जारी होने के बाद देश के किसी भी राष्ट्रीय और प्रादेशिक दलों में से एक ने भी इस पर कोई भी चिंता और प्रतिक्रिया जारी नहीं की है ! छोटी - छोटी बातों पर तुरंत अपनी प्रतिक्रिया देने वाले राजनैतिक दलों के किसी भी बड़बोले प्रवक्ताओं ने भी इस पर एक शब्द भी नहीं बोला है ! अनर्गल विषयों पर घंटों और कभी - कभी दिन भर चीखने -  चिल्लाने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एंकरों की चुप्पी आश्चर्यजनक तो है ही , उससे ज्यादा चिंताजनक भी है ! जरा - जरा सी बातों को बड़ा - चढ़ा कर सोशल मीडिया पर वायरल कर देने वाले भी चुप हैं ! कुछ ही अखबारों ने इसे केवल एक खबर देने के बाद चुप्पी साध ली है ! किसी ने इस गंभीर विषय पर संपादकीय लिखने की भी जोहमत नहीं उठाई ! इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , प्रिंट मीडिया और सोशल मीडिया ने इस बड़ी खबर को अपवाद को छोड़कर लगभग नजरअंदाज ही कर दिया ! इसे हम क्या कहेंगे ? इसके क्या मतलब निकाले जाए ? क्या इस देश में अब गरीबी कोई मुद्दा नहीं रहा ? गरीबों की किसी को अब कोई चिंता नहीं है ? 
              देश के प्रधानमंत्री जी को चाहिए कि वे उनके ही द्वारा बनाये गए नीति आयोग की रिपोर्ट को देखते हुए जिन राज्यों में सबसे ज्यादा गरीबी है , उन राज्यों में सबसे अधिक आर्थिक मदद देनी चाहिए ! जिन राज्यों की आबादी में दहाई अंकों में गरीबी पायी गई है , उन राज्यों में गरीबों की मदद के लिए विशेष योजनाएँ भी संचालित की जानी चाहिए ! इसके साथ ही देश के सबसे ज्यादा गरीब राज्यों के मुख्यमंत्री को भी अपने - अपने राज्यों में विशेष दीर्घकालीन योजनाएँ संचालित कर उनकी निरंतर समीक्षा और समयानुकूल संशोधन भी करते रहने की आज सख्त जरूरत है ! 
               देश में पहली बार गरीबों की चिंता पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी ने की थी। भले ही वह चिंता राजनैतिक महत्वाकांक्षा की थी ! किंतु उन्होंने देश में पहली दफा गरीबी हटाओ का नारा दिया ! गरीबों का दर्द बयां किया ! इसका फायदा भी उन्हें मिला । लोकसभा चुनाव में उन्हें शानदार सफलता भी मिली । प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने गरीबों के लिए कुछ योजनाएँ भी शुरू की । किन्तु उसके बाद क्या हुआ ? अगले चुनावों में नये नारे और नये मुद्दे आ गए ! गरीब फिर लगभग भूला ही दिए गए ! कभी -  कभी जब कभी किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को गरीबों की याद आती भी है तो उनके लिए कुछ योजनाएँ लांच कर दी जाती ! बस ! उन योजनाओं की निरंतर समीक्षा नहीं होती ! और ना ही जरूरत के हिसाब से उनमें सुधार किए जाते ! इसका परिणाम यह हुआ कि गरीबी कम तो हुई , किन्तु खत्म नहीं हुई ! क्या कारण है कि देश की आजादी के 74 साल गुजर जाने के बाद भी इस देश के कर्ता धर्ता गरीबी को खत्म नहीं कर पाए हैं ? आज भी लाखों लोगों को दो समय का खाना भी नसीब नहीं होता है ? लाखों लोग आज भी भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं ? यह क्या देश के राजनैतिक दलों , संवैधानिक पदों पर बैठे पदाधिकारियों , गणमान्य नागरिकों , सामाजिक और स्वयंसेवी संस्थाओं एवं संगठनों के लिए चिंताजनक तथा शर्म की बात नहीं है ? इन सब को इस अत्यंत मानवीय संवेदना से संबंधित विषय पर गंभीर चिंतन , मनन और दीर्घकालिक ठोस योजना बनाकर उस पर सख्त कार्यवाही नहीं करना चाहिए ? जरा आप भी इस विषय पर सोचिए !!!
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